Holi Special: मिस्टर की गाली
कुष्ण कुमार दुबे भूतपूर्व ग्राम प्रधान! समझे? कहकर उन्होंने लाठी मारने को उठाई ही थी कि जवान में बकरी की आत्मा घुस गई।
किसना दुबे एक दबंग आदमी हैं। सयाने बताते है कि दंबगई का यह गुण उनमें बचपन से था या ऐसा मान लें कि जब उन में पाजामे का नाड़ा बांधने का शऊर आया, उसी के ऐन साथ-साथ वे दबंगई की दुनिया में छोटी-मोटी एंट्री मार चुके थे। बड़ी एंट्री मारना इसलिए संभव नहीं था, क्योंकि पंडित मुसद्दीलाल दुबे, जो कि उनके सगे बाप
की पोस्ट पर थे, वे बहुत बड़े दबंग थे। आस-पास के पचास गांवों तक उनके जैसा कुश्ती लड़ैया नहीं था। कुश्ती कैसी- फ्री स्टाइल! चाहे जैसे लड़ो। कोई चाहे तो भी लड़ो, न चाहे तो और ज्यादा लड़ो। फंडे भी एकदम क्लीयर थे। कोई चार गाली खाकर विरोध करे तो उसकी कुटम्मस कर दो। जो गाली खा के चुपचाप निकलने लगे, उसको भी
रुई की तरह धुन दो-'स्सारै, हम इधर अपना मुंह गंदा कर रए हैं और तू है कि चुपचाप निकला जा रिया है। तेरी तो ऐसी की तैसी...ले दनादन! तो साहब, ऐसे बाप के होते किसना दुबे दबंगई का बस क-ख-ग ही पढ़ पा रहे थे, ह तक नहीं पहुंच पा रहे थे। उन्हीं के कारण किसना दुबे ने पहली कक्षा में पूरे सोलह दिन काटे थे, एक दिन मास्टर जी ने कक्षा में देर से आने पर उनकी थोड़ी कुटाई कर दी, उसके बाद वे मास्टर जी के सिर में पत्थर मारकर जो भागे तो फिर कभी स्कूल नहीं लौटे। अलबत्ता पढ़ाई के उन सोलह दिनों पर उन्हें हमेशा नाज रहा।
हर नए मिलने-जुलने वाले को वो उन सोलह दिनों की कहानी जरूर बताते थे। बाप के फौत हो जाने के बाद किसना दुबे ने दबंगई की फील्ड में काफी नाम कमाया। इनमें उनके बाजुओं का जोर, गजब की बकैती और तीन छोटे भाइयों की हिम्मत का काफी हाथ रहा। सो वह 'ए' ग्रेड के दबंग बन गए। इस दबंगई को मेनटेन करने में उन्होंने मेहनत भी काफी की। सच तो यह है कि किसना दुबे पूरी जवानी और उसके बाद, बैरी बुढ़ापे की शुरुआत के दस साल बाद तक पूरे दबंग रहे। पर अब यानी उम्र के आखिरी पड़ाव तक आते-आते, कुछ ऐसी टेक्निकल समस्याएं आ गईं कि उन्होंने हाथों की कसरत वगैरह छोड़कर जुबानी गोला-बारी पर ही ध्यान केंद्रित कर लिया। उनका उत्तराधिकार उनके बेटों ने संभाल लिया।
इसके लिए उन्होंने पहला काम यह किया कि पूरी दबंगई से, उनके घर से रिटायरमेंट का कागज तैयार किया, बहुओं ने मिलकर उस पर हस्ताक्षर की चिडिय़ा बैठा दी। बड़े बेटे ने किसना दुबे को ये कागज थमा दिया। अब होता यह कि वे सुबह नहा-धोकर पुलिया पर बैठ जाते और जितनी भी बची-खुची दबंगई थी, उसको अंटी में से निकालकर हर उस आदमी को दिखाते, जो उसे बर्दाश्त करने की कुव्वत रखता था। उस दिन भी वे साफ झक्क कपड़े पहनकर, मूंछें पैनाते हुए पुलिया पर विराजमान हुए। तभी पुलिया के पास एक साइकिल आकर रुकी। साइकिल पर एक ताजा-ताजा जवान सवार था। कटोरी कट बालों और तनी हुई मूंछों से वह फौजी होने का भ्रम पैदा कर रहा था। जवान ने दुबे जी के पास आकर अपनी साइकिल की घंटी टनटनाई। दुबे जी ने एक नजर जवान को देखा। नजरों ही नजरों में उसकी मूंछें नापीं। जवान की मूंछें लंबी निकलीं उन्होंने उसे घूरकर देखा। जवान को उनके देखने में शायद कोई संभावना नजर आई। सो वह पूछ बैठा, 'मिस्टर, ये रजपुरा गांव किधर पड़ेगा?
जवान के ये वचन सुनकर दुबे जी के शरीर में जाने कहां-कहां आग लग गई। उन्होंने मूंछों पर ताव दिया, लाठी उठाई और पहुंच गए ऐन जवान के सामने। लाठी और मूंछें दोनों चमकाकर बोले, 'क्यों जी, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, हमें मिस्टर कहने की। जानते नहीं हो हम किसना दुबे हैं। कुष्ण कुमार दुबे, भूतपूर्व ग्राम प्रधान! समझे? कहकर उन्होंने लाठी मारने को उठाई ही थी कि जवान में बकरी की आत्मा घुस गई। वह में में करता हुआ बोला- 'ऐ मिस्टर ये क्या करते हो, हमारी गलती क्या है? -'क्या कहा, फिर मिस्टर... दूसरी बार हमें अंग्रेजी में गाली दी, अब हम तुम्हें नहीं छोड़ेगें। कहकर दुबे जी ने लाठी चला दी, जवान पीछे हटा, लाठी की मार साइकिल के हैंडिल ने झेल ली, हां घंटी जरूर विचलित होकर नीचे गिर गई। इससे पहले कि दुबे जी दूसरी गाली के जवाब में लाठियों की बारिश करने ही वाले थे कि जवान ने शोर मचा दिया। वह चिल्लाया, 'बचाओ, बचाओ, ये ओल्ड मैन हमको मार डालेगा। आस-पास के लोग भागकर आए। बेमन से ही सही, उन्होंने दुबे जी से दुर्वासा ऋषि के अवतार में आने का कारण पूछना पड़ा।
उनका पूछना था कि दुबे जी बमक पड़े। चीखकर बोले, 'हिम्मत देखो इस मरदुए की, इसने हमको अंग्रेजी में गाली दी, हमको मिस्टर कहा। हम इसका कपाल अभई खिलाय देंगे। जवान फिर चिल्लाया, 'नहीं मैंने तो बड़ी रिस्पेक्ट से इनको मिस्टर कहा, मिस्टर तो बड़ा आदर का शब्द है, विश्वास नहीं मानते हैं तो किसी से पूछ लीजिए। दुबे जी को विश्वास तो नहीं हुआ, फिर भी उन्होंने सबसे 'मिस्टर' का मतलब पूछा। बुंदा से, बशीरे से, रामधन से। पर सब अंग्रेजी के मामले में निल बटे सन्नाटा थे। सो तय हुआ कि जो भी इस सड़क से गुजरे, सबसे पूछा जाए। कुल चौदह लोग मिले, जिनमें सात का कहना था कि पंडित जी कह रहे हैं तो मिस्टर हो न हो, कोई गाली ही होगी। बाकी सात का कहना था कि उन्हें पक्का तो नहीं पता पर कुछ-कुछ अंदाजा ऐसा है कि मिस्टर का मतलब कुछ इज्जत देने वाले संबोधन जैसा कुछ होता है। पर दुबे जी संतुष्ट नहीं थे। हारकर किसी ने सुझाया कि क्यों न कि गांव में से छुट्टन मास्टर को बुलाया जाए। छुट्टन आदमी वैसे तो बकलोल टाइप है, पर अंग्रेजी जानता है, दुबे जी ने बात मान ली।
कुछ देर में छुट्टन मास्टर आ गए। उन्होंने पूरी कहानी सुनी और बात का तोड़ यह कहकर दिया कि मिस्टर का मतलब श्रीमान जी टाइप कुछ होता है और यह बाकी और चाहे जो हो, गाली तो हरगिज नहीं है। इस पर दुबे जी ने थोड़ी देर कुछ सोचा। फिर अपनी लाठी समेत उस जवान के सामने दोबारा प्रकट हुए। जवान के सीने पर अपनी लाठी का एक सिरा लगाया और मूंछों पर ताव देकर बोले, 'सुनो छोकरे, हम मास्टर की बात का मान रखते हुए तुम्हें छोड़ रहे हैं पर फिर भी सुन लो, जो मिस्टर का मतलब श्रीमान जी या कुछ आदर-वादर की बात है तो वह हम हैं हम... यानी किसना दुबे और जो ये सब कोई गाली-वाली या कोई बेइज्जती का नाम है तो वो तुम हो तुम, समझे! इतना कहकर वह थोड़ा रुके। कुछ देर और सोचा फिर लाठी को दाएं हाथ से बाएं हाथ में ट्रांसफर किया। दायां हाथ खाली हो गया। अब इसी हाथ को उन्होंने तोला और फिर उससे एक झन्नाटेदार झापड़ जवान को रसीद कर दिया। बड़ी जोर से चटाक की आवाज आई। जवान बिलबिला गया। भिनभिनाकर बोला, 'अब...अब हमें क्यों मारा? मालूम तो चल गया न कि मिस्टर का मतलब गाली नहीं है फिर..?
इस पर किसना दुबे मुस्कराते हुए बोले, 'बेट्टे कल को अगर हमें पता चला कि छुट्टन मास्टर ने झूठ बोला था, या इस बकलोल को ठीक से न पता था तो हम तुम्हें खोजने कहां जाएंगे? बोलो, हम गलत कह रहे हैं क्या? दुबे जी के ये वचन सुनकर जवान ने सिर हिलाया। हाथ जोड़े और साइकिल लेकर ऐसा भागा कि जितना चोर पुलिस के पीछे होने पर भी नहीं भाग पाता। कुछ दूर जाकर उसने कसम खाई कि वह अब किसी को जिंदगी में मिस्टर नहीं कहेगा।