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'नैन नचाय मुस्काय कहें, लला फिर अइयो खेलन होरी', कुछ ऐसी ही है इसकी खुमारी

यदि बात होली की हो तो फिर हर किसी की जुबान पर मथुरा और वृंदावन का नाम आना तय है। इसकी वजह भी बेहद खास है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 28 Feb 2018 03:59 PM (IST)Updated: Thu, 01 Mar 2018 09:14 AM (IST)
'नैन नचाय मुस्काय कहें, लला फिर अइयो खेलन होरी', कुछ ऐसी ही है इसकी खुमारी

नई दिल्ली [स्‍पेशल डेस्‍क]। उत्तर भारत में फागुन का आगमन अपने आप में मस्‍ती भरा होता है। ऐसे में होली का त्‍योहार इस मस्‍ती को कई गुना बढ़ा देता है। और यदि बात होली की हो तो फिर हर किसी की जुबान पर मथुरा और वृंदावन का नाम आना तय है। इसकी वजह भी बेहद खास है। यहां पर जो होली खेली जाती है वह शायद ही देश के किसी दूसरी जगह पर खेली जाती है। आखिर ऐसा हो भी क्‍यों नहीं। ये भूमि ही उस ‘छलिया’ के नाम की भक्‍त है जिसके नाम से लट्ठमार होली की शुरुआत मानी जाती है। ‘छलिया’ का नाम सुनकर आप समझ ही गए होंगे कि हम भगवान श्री कृष्‍ण की बता कर रहे हैं। उसको चाहे छलिया कहें या सांवरा कन्‍हैया या ग्‍वाला हर रूप और हर रंग में वह बेहद प्‍यारा लगता है। होली का एक रूप यहां पर दिखाई देता है तो पंजाब में होली का रूप कुछ और होता है। वहां इसको ‘होला मुहल्‍ला‘ बुलाते हैं।

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अपने तरीके से कागज पर उतारी होली की छटा
होली को अलग-अलग दौर में भी कवियों और साहित्‍यकारों ने अपने ढंग से कागज पर शब्‍दों में उकेरा है। मुगल काल में रचे गए उर्दू साहित्य में दाग देहलवी, हातिम, मीर, कुली कुतुबशाह, महज़ूर, बहादुर शाह ज़फ़र, नज़ीर, आतिश, ख्वाजा हैदर अली 'आतिश', इंशा और तांबा जैसे कई नामी शायरों ने होली की मस्ती और राधा कृष्ण के निश्छल प्यार को अपनी शायरी में ख़ूबसूरती से पिरोया है। भक्तिकाल के महाकवि घनानंद ने होली की मस्ती को 'प्रिय देह अछेह भरी दुति देह, दियै तरुनाई के तेह तुली' से तुक देते हैं तो महाकवि पद्माकर ने कृष्ण और राधा की होली की मस्ती इस तरह बिखेरते हैं -

फाग की मीर अमीरनि ज्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी,
माय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी।
छीन पितंबर कम्मर ते, सुबिदा दई मीड कपोलन रोरी,
नैन नचाय मुस्काय कहें, लला फिर अइयो खेलन होरी।

इसी तरह से शायर नज़ीर अकबराबादी ने भी होली पर कुछ खास लिखकर इसकी छटा को कुछ ऐसे बताया है-
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की,
और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की,
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की,
खुम, शीशे जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की,
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।

प्राचीनकाल में होता था ‘होलाका
प्राचीनकाल में होली को होलाका के नाम से जाना जाता था और इस दिन आर्य नवात्रैष्टि यज्ञ करते थे। होलिका दहन के बाद 'रंग उत्सव' मनाने की परंपरा भगवान श्रीकृष्ण के काल से प्रारंभ हुई। तभी से इसका नाम फगवाह हो गया, क्योंकि यह फागुन माह में आती है। वक्त के साथ सभी राज्यों में होली को मनाने और उसको स्थाननीय भाषा में अन्य नाम से पुकारने लगे। प्राचीन भारतीय मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव से संबंधित विभिन्न मूर्ति या चित्र अंकित पाए जाते हैं। अहमदनगर चित्रों और मेवाड़ के चित्रों में भी होली उत्सव का चित्रण मिलता है। ज्ञात रूप से यह त्योहार 600 ईसा पूर्व से मनाया जाता रहा है। सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी होली और दिवाली मनाए जाने के सबूत मिलते हैं।

कहां-कहां किस नाम से होती है होली
होली मनाने की परंपरा सदियों पुरानी है, लेकिन क्‍योंकि भारत विविधताओं का देश है इसलिए भारत में होली को अलग-अलग नामों से पुकारा भी जाता है। जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश में होली को फगुआ, फाग और लठमार होली कहते हैं। खासकर मथुरा, नंदगांव, गोकुल, वृंदावन और बरसाना में इसकी धूम होती है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में होली वाले दिन होलिका दहन होता है, दूसरे दिन धुलैंडी मनाते हैं और पांचवें दिन रंग पंचमी मनाते हैं। यहां के आदिवासियों में होली की खासी धूम होती है। महाराष्ट्र में होली को 'फाल्गुन पूर्णिमा' और 'रंग पंचमी' के नाम से जानते हैं। गोवा के मछुआरा समाज इसे शिमगो या शिमगा कहता है। गोवा की स्थानीय कोंकणी भाषा में शिमगो कहा जाता है। गुजरात में गोविंदा होली की खासी धूम होती है। हरियाणा में होली को दुलंडी या धुलैंडी के नाम से जानते हैं।

होला मुहल्‍ला से महिला होली तक
पंजाब में होली को 'होला मोहल्ला' कहते हैं। पश्चिम बंगाल और ओडिशा में होली को 'बसंत उत्सव' और 'डोल पूर्णिमा' के नाम से जाना जाता है। तमिलनाडु में लोग होली को कामदेव के बलिदान के रूप में याद करते हैं। इसीलिए यहां पर होली को कमान पंडिगई, कामाविलास और कामा-दाहानाम कहते हैं। कर्नाटक में होली के पर्व को कामना हब्बा के रूप में मनाते हैं। आंध्र प्रदेश, तेलंगना में भी ऐसी ही होली होती है। मणिपुर में इसे योशांग या याओसांग कहते हैं। यहां धुलेंडी वाले दिन को पिचकारी कहा जाता है। असम इसे 'फगवाह' या 'देओल' कहते हैं। त्रिपुरा, नगालैंड, सिक्किम और मेघालय में भी होली की धूम रहती है। यहां होली को भिन्न प्रकार के संगीत समारोह के रूप में मनाया जाता है, जिसे बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली कहते हैं।

आ अब लौट चलें
चलिए अब जरा वापस मथुरा वृंदावन चलते हैं जिसका जिक्र हमनें सबसे पहले किया था। होली में भी ब्रज की होली की छटा अलग होती है। यहां पर होली भले ही एक दिन की होती हो लेकिन मथुरा, वृंदावन, गोकुल, नंदगांव, बरसाने में होली करीब एक सप्‍ताह तक होती है। यहां हर दिन होली का रूप अलग होता जाता है।

लट्ठमार होली
बरसाने की लट्ठमार होली की शुरुआत शुक्ल पक्ष की नवमी को होती है। इस दौरान नंदगांव (कृष्ण के गांव) के लड़के बरसाने जाते हैं और गोपियां उनके पीछे लठ लेकर भागती हैं और उन्हें मारती हैं। वहीं पुरुष स्त्रियों के इस लठ के वार से बचने का प्रयास करते हैं। इस लट्ठमार होली के पीछे की कहानी भी बेहद दिलचस्‍प है। कहते हैं कि होली पर एक बार यहां आए कृष्‍ण वहां मौजूद राधा और उनकी सहेलियों को छेड़ने लगे। उसके बाद राधा अपनी सखियों के साथ लाठी लेकर कृष्ण के पीछे दोड़ने लगीं। तभी से यहां पर होली का ये नया रूप आया जिसको लट्ठमार होली के नाम से पुकारा जाने लगा।

होली का दूसरा रूप
फागुन की एकादशी को वृंदावन में फूलों की होली मनाई जाती है। बांके बिहारी मंदिर में मनाई जाने वाली ये फूलों की होली करीब-करीब आधा घंटे तक चलती है। इस दौरान समय का पाबंदी बहुत सख्‍त होती है। शाम 4 बजे इसकी शुरुआत होती है और मंदिर के कपाट खुलते ही पुजारी भक्तों पर फूलों की वर्षा करनी शुरू कर देते हैं।

होली का तीसरा रूप

वृंदावन में एक जगह ऐसी भी है जहां देश के विभिन्‍न जगहों से आई विधवा महिलाएं रहती हैं। इनमें से कुछ को उनके परिजन छोड़ जाते हैं तो कुछ अपनी इच्‍छा से यहां पर आ जाती हैं। पहले इनके होली खेलने पर पाबंदी लगी रहती थी। रुढि़वादी सोच के आगे इन्‍हें भी झुकना पड़ जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। वृंदावन में विधवाओं की होली का चलन पागल बाबा के मंदिर से शुरू हुआ। इनकी होली यहां देखने लायक होती है। 2013 में शुरू हुई इस होली ने सभी को अपनी ओर आकर्षित किया है। इसका आयोजन एक गैर सरकारी संस्‍था करती है।

होली का चौथा रूप
होली और वृंदावन का जिक्र हो तो यहां के बांके बिहारी मंदिर का जिक्र होना जरूरी हो जाता है। यहां की होली भुलाए नहीं भूली जाती। यहां की होली का जश्‍न पूरी दुनिया में जाना जाता है। इतना ही नहीं होली के अवसर पर यहां विदेशी सैलानियों की तादाद बढ़ जाती है। यहां पर भक्त अपने भगवान के साथ होली खेलते हैं। दरअसल मंदिर के कपाट खुलते ही श्रद्धालु अपने प्रभु पर रंग बरसाने के लिए टूट पड़ते हैं। इस होली में कई क्विंटल गुलाल और रंग बरसाया जाता है।

होली के रंग का बदलता मिजाज
बांके बिहारी से अलग हटकर अब आ जाते हैं ऐतिहासिक द्वारकाधीश मंदिर की नगरी में मनाई जाने वाली होली की तरफ जिसकी बात ही निराली है। होली का उत्सव विश्राम घाट से शुरू होता है। यहां की होली बांकेबिहारी मंदिर में मनाई जाने वाली होली से अलग होती है। बांके बिहारी में जहां गुलाल का सुरूर होता है वहीं यहां पर गुलाल के साथ देसी साज पर नाचने वालों की संख्‍या काफी होती है।

दाऊ जी के मंदिर की होली
यहां पर होली के अगले दिन इस मंदिर के सेवादार परिवार की महिलाएं पुरुषों के कपड़े फाड़कर उनसे उन्हें पीटती हैं। यहां पर यह परंपरा करीब 500 वर्ष पुरानी है। दाऊ जी का मंदिर मथुरा से 30 किलोमीटर दूर है। इसको देखने के लिए भी यहां पर लोगों का हुजूम उमड़ता है।

दुनियाभर में मनाई जाती है होली
होली का यह त्‍योहार अब देश की सीमाओं को तोड़कर आगे निकल चुका है। पूरी दुनिया में फैले भारतीय पूरे जोश के साथ इसको वहां मनाते आ रहे हैं। सबसे मजे की बात तो ये है कि अब विदेशी लोग भी इसमें बढ़ चढ़कर हिस्‍सा लेने लगे हैं। अमेरिका के स्पैनिश फोर्क सिटी में बनी इस्कॉन टेम्पल में होली का आयोजन बड़े स्तर पर किया जाता है। इसमें 35 से 40 हजार लोग हिस्सा लेते हैं और धूमधाम से होली खिलते हैं। यहां के अलावा 11 अन्य जगहों पर भी होली मनाई जाती है। कई जगहों पर इसको फेस्टिवल ऑफ कलर के नाम से ही जाना भी जाता है।

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