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उत्तराखंड में 11 दिन पहले ही शुरू हो गया सावन, जानें क्यों और क्या है इसका महत्व

हिंदू कैलेंडर के अनुसार 27 जुलाई से सावन का महीना शुरू होगा, लेकिन उत्तराखंड में 16 जुलाई से ही यह पावन महीना शुरू हो गया है। जानें क्यों...

By Digpal SinghEdited By: Published: Mon, 16 Jul 2018 04:58 PM (IST)Updated: Mon, 16 Jul 2018 05:04 PM (IST)
उत्तराखंड में 11 दिन पहले ही शुरू हो गया सावन, जानें क्यों और क्या है इसका महत्व

नई दिल्ली, [जागरण स्पेशल]। सावन एक ऐसा महीना होता है, जिसका लगभग हर इंसान को सालभर इंतजार रहता है। सावन का संबंध भगवान शिव से भी है। वैसे सावन शब्द आते ही बारिश की फुहारें और हरियाली याद आती है। हिंदू कलेंडर के अनुसार इस साल 27 जुलाई से सावन का महीना शुरू होगा, जो रक्षाबंधन पर खत्म होता है। लेकिन देश का एक राज्य (उत्तराखंड) ऐसा भी है, जहां आज यानी सोमवार 16 जुलाई से ही सावन का महीना लग गया है। सावन माह के पहले दिन यहां एक खास लोकपर्व मनाया जा रहा है, जिसका नाम हरेला है।

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हिंदू कैलेंडर से अलग कैसे सावन
हिंदू कैलेंडर के अनुसार 27 जुलाई से सावन का महीना शुरू होगा, लेकिन उत्तराखंड में 16 जुलाई से ही यह पावन महीना शुरू हो गया है। दोनों के बीच इस अंतर की खास वजह है। चंद्र मास के अनुसार 27 जुलाई यानी गुरु पूर्णिमा से सावन का महीना शुरू होगा। इस मामले में हमने आचार्य नंदा बल्लभ पंत से बात की। आचार्य ने बताया कि उत्तराखंड में सावन का महीना पहले ही शुरू होने का कारण यहां सूर्य के अनुसार मास का चुनाव है। इसका सीधा अर्थ यह है कि आज यानी 16 जुलाई को सूर्य मिथुन राशि से निकलकर कर्क राशि में प्रवेश कर गए हैं। सूर्य के इसी परागमन के साथ सावन का महीना भी शुरू माना जाता है। 

हरेला क्या?
जैसा कि आप जानते हैं सावन माह में हर तरफ हरियाली नजर आती है। ऐसा लगता है जैसे प्रकृति सजकर तैयार हो गई है। हरियाली के इसी उत्सव को मनाने के लिए उत्तराखंड में हरेला पर्व मनाया जाता है। हरेला उत्तराखंड के परिवेश और खेती से जुड़ा पर्व है, जो वर्ष में तीन बार चैत्र, श्रावण और आश्विन मास में मनाया जाता है। हालांकि, लोक जीवन में श्रावण (सावन) मास में पड़ने वाले हरेला को काफी महत्व दिया गया है। क्योंकि, यह महीना महादेव को खास प्रिय है। श्रावण का हरेला श्रावण शुरू होने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है।

हरेले का पर्व न सिर्फ नई ऋतु के शुभागमन की सूचना देता है, बल्कि प्रकृति के संरक्षण को भी प्रेरित करता है। इसीलिए देवभूमि उत्तराखंड में हरेला पर्व लोकजीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। अब तो इसी दिन से पौधरोपण अभियान शुरू करने की परंपरा भी शुरू हो गई है। धार्मिक दृष्टि से देखें तो उत्तराखंड को महादेव का वास और ससुराल दोनों माना गया है। इसलिए हरेला पर्व का महत्व भी इस क्षेत्र के लिए खास है। कुमाऊं में तो हरेला लोकजीवन का महत्वपूर्ण उत्सव है।

ऐसे मनाते हैं हरेला
हरेला से नौ दिन पूर्व घर के भीतर स्थित देवालय अथवा गांव के मंदिर में सात प्रकार के अनाज (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में बोया जाता है। इसे सतनाजा भी कहते हैं। इसके लिए टोकरी में मिट्टी की परत बिछाकर उसमें बीज डाले जाते हैं। यही प्रक्रिया पांच से छह बार अपनाई जाती है। टोकरी को सूर्य की सीधी रोशनी से बचाकर रखा जाता है। नवें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानी हरेले के दिन इसे काटकर तिलक-चंदन-अक्षत से अभिमंत्रित कर देवता को अर्पित किया जाता है। घर की बुजुर्ग महिलाएं सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। यानी हरेला सबसे पहले पैर, फिर घुटने व कंधे और अंत में सिर पर रखा जाता है।


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