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इन लड़कियों को फुटबॉल खेलता देख इनके संघर्ष भरे अतीत का अंदाजा लगाना मुश्किल है

जब बकरी चराने वाली बालाएं थावरी, गंगा और खेमा बेहतरीन फुटबॉलर हैं और वह दूसरी आदिवासी बालिकाओं को भी फुटबॉलर बनाने में जुट चुकी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 01 Feb 2019 10:35 AM (IST)Updated: Fri, 01 Feb 2019 10:42 AM (IST)
इन लड़कियों को फुटबॉल खेलता देख इनके संघर्ष भरे अतीत का अंदाजा लगाना मुश्किल है
इन लड़कियों को फुटबॉल खेलता देख इनके संघर्ष भरे अतीत का अंदाजा लगाना मुश्किल है

सुभाष शर्मा, उदयपुर। कोयले की खदान में दबे हीरे की पहचान पारखी ही कर सकता है। उसे निखारा जाए तो उसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है। ऐसी ही पारखी नजर ने बकरियां चराने वाली बालिकाओं में छिपे फुटबॉलर को ढूंढ निकाला। आज बकरी चराने वाली बालाएं थावरी, गंगा और खेमा बेहतरीन फुटबॉलर हैं और वह दूसरी आदिवासी बालिकाओं को भी फुटबॉलर बनाने में जुट चुकी है। आदिवासी बाला थावरी, गंगा और खेमा को फुटबॉल खेलते देख ले तो हर कोई अचंभित हो जाएगा।

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उदयपुर जिले के कुराबड़ क्षेत्र के आदिवासी गांव लालपुरा में बकरियां चराने वाली इन बालिकाओं पर पहली बार उदयपुर की स्वयंसेवी संस्था सेवा मंदिर की नजर पड़ी। जिसने इन बालिकाओं को स्पोर्ट्स ड्रेस, जूते एवं अन्य संसाधन उपलब्ध कराए। शुरूआत में इन आदिवासी बालक-बालिकाओं को वीडियो के माध्यम से खेल दिखाया गया तो उनके मन में भी जिज्ञासा जगी। पहले दिन ये बालक-बालिका फुटबॉल खेले तो उनके हाथ-पांवों में दर्द हुआ लेकिन खेलने की उमंग ने आगे खेलने की प्रेरणा दी। इससे पहले इनके घरवाले उन्हें खेलने नहीं देते थे।

फुटबॉल के प्रति उनकी ललक देखकर सेवा मंदिर ने राष्ट्रीय स्तर के कोच की सेवाएं ली और उन्हें प्रशिक्षित कराया। साथ ही इन बालिकाओं के शिक्षण की भी व्यवस्था की। हाल ही सेवा मंदिर ने आदिवासी क्षेत्र के 90 बालक-बालिकाओं को चयन कर पांच टीमें गठित की और उनके बीच एक प्रतियोगिता भी कराई। अब इनमें से चयनित बालिकाओं एवं बालकों को आगे लाने की योजना है। लालपुरा गांव के आदिवासी बालिकाओं को फुटबॉल खेलते देखकर कोज्यों का गुड़ा, सांवरियाखेड़ा, परतल, देवड़ा के बालक-बालिका भी फुटबॉल का प्रशिक्षण लेने के लिए आगे आए हैं।

घाघरे की धोती बनाकर करती थीं प्रेक्टिस
आदिवासी बालाएं बताती हैं कि कोज्यों के गुड़ा गांव की पहाड़ी पर वह बकरियां चराने जाती थीं। वहीं पास ही स्कूल मैदान में बच्चों को खेलते देखते थे। उनके मन में भी फुटबॉल खेलने की इच्छा आई। उन्होंने एक फुटबॉल का इंतजाम किया और जब कभी मैदान खाली देखती तो घाघरे को पुरुषों की धोती की तरह बनाकर फुटबॉल खेलने लगीं। बाद में उन्होंने अपनी टीम बनाकर गांव के लडक़ों के साथ फुटबॉल खेली। इसी बीच स्वयं सेवी संस्था के गिरिश सनाढ्य की नजर उन पर पड़ी तो उन्होंने उनकी खेल प्रतिभा को जाना और इसे आगे बढ़ाने में जुट गए।


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