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लड़कियां बोली बुद्धि, सोच और प्रतिभा का रंग से कोई वास्ता नहीं, आप बस हमारा हौसला देखिए

काली लड़की को अमावस की रात कह दिया जाता है तो गोरी को चांद का टुकड़ा। अब लड़कियां समाज व थोथे कथनों को धता बता रही हैं और समाज से कहती हैं कि रंग नहीं हमारा हौसला देखिए।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Sat, 04 Jul 2020 12:39 PM (IST)Updated: Sun, 05 Jul 2020 05:47 PM (IST)
लड़कियां बोली बुद्धि, सोच और प्रतिभा का रंग से कोई वास्ता नहीं, आप बस हमारा हौसला देखिए
लड़कियां बोली बुद्धि, सोच और प्रतिभा का रंग से कोई वास्ता नहीं, आप बस हमारा हौसला देखिए

नई दिल्ली [यशा माथुर]। व्यक्तित्व बनता है काबिलियत से, लेकिन इसे परखा जाता है त्वचा के रंग से। यह काली है, सांवली है, इसका रंग जाने किस पर गया है, ऐसे ताने सुनकर जीती हैं, बड़ी होती हैं और अपनी राह बनाती हैं वे लड़कियां जो दिखने में गोरी नहीं होती। काली लड़की को अमावस की रात कह दिया जाता है तो गोरी को चांद का टुकड़ा।

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कई बार सीधे मन को भेदने वाले कथन सुनकर उनका आत्मविश्वास चोट खा जाता है। वे हीनभावना महसूस करने लगती हैं, लेकिन अधिकांश लड़कियां इसकी परवाह न करते हुए आगे बढ़ती जाती हैं। सफलता छूती हैं और समाज व थोथे कथनों को धता बता देती हैं और समाज से कहती हैं कि रंग नहीं हमारा हौसला देखिए...

अभिनेत्री बिपाशा बसु ने अपने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट शेयर की है जिसमें उन्होंने सांवलेपन को लेकर बचपन से अब तक के अपने अनुभव शेयर किए हैं। वह कहती हैं कि जब मैंने सुपरमॉडल का खिताब जीता तो अखबारों ने लिखा कि कोलकाता की एक सांवली लड़की ने खिताब जीता। मुझे हैरानी हुई कि क्यों मेरे सांवले कलर को पहले देखा जा रहा है। हमेशा मेरा कलर पहला एडजेक्टिव रहा, लेकिन ये सब मुझे कभी वह करने से नहीं रोक पाया, जो मैं करना चाहती थी।

बिपाशा बसु की तरह ही कई अभिनेत्रियां और आम लड़कियां अपने स्किन कलर को लेकर झेले गए संवादों का जब तब जिक्र करती आई हैं तो क्या समाज में आज भी काबिल लड़की को पहले उसके रंग के आधार पर देखा जाता है? क्या उन्हें रंगभेद का सामना हर जगह करना पड़ता है? ये प्रश्न तब और प्रासंगिक हो जाते हैं जब आज पूरी दुनिया में रंगभेद का मुद्दा उठ रहा है और फेयर एंड लवली ने अपने ब्रांड से फेयर शब्द हटाने का ऐलान कर दिया है। 

बचपन से ताने ही ताने

जब बचपन से ही सुनना पड़े कि यह लड़की तो काली है तो सोचिए बालमन पर क्या प्रभाव पड़ता होगा? उस छोटी सी बच्ची को समझ भी नहीं आता कि इसमें मेरा क्या गुनाह है, लेकिन हमारे समाज में कभी ये जुमले कम नहीं हुए। लोग बोलने से कभी नहीं चूके कि इसका तो रंग दबा हुआ है।

सॉफ्टवेयर इंजीनियर, लेखक और वैदिक वाटिका प्रा. लि. की डायरेक्टर अंकिता जैन कहती हैं, मेरे जन्म के बाद जब मेरी मां मुझे पहली बार एक रिश्तेदार के यहां लेकर गईं तो उनसे कहा गया कि यह किसकी लड़की उठा लाई कोयला सी।

वजह थी कि मेरे माता-पिता की रंगत साफ थी। बाद में बहन हुई वह भी साफ रंगत वाली। मेरे कुछ कजंस आज भी मुझे कल्लो जैसे नामों से चिढ़ाते हैं। बचपन में इस सबने जो किया वह यह कि मेरे लिए सुंदरता का पैमाना सिर्फ गोरा होना ही रहा। मुझे लगता मैं कुरूप हूं और मेरी बहन या मेरी कजंस रूपवान। हां, अच्छी बात यह थी कि मेरी मां ने कभी मुझे कमतर नहीं महसूस होने दिया।

आज महसूस करती हूं तो समझ आता है कि उन्होंने किसी भी बात में फर्क नहीं किया, लेकिन समाज लड़की को मां की नजर से कहां देखता है। अंकिता कहती हैं कि मैं कितना भी तैयार हो लूं, सज-संवर लूं मुझमें आत्मविश्वास ही नहीं आता था कि मैं अच्छी दिख रही हूं।

हां, जब बड़ी होने लगी तो अपनी पढ़ाई और काबिलियत से खुद को बेहतर साबित करने की इच्छा रखने लगी। शायद ऐसा मेरे जैसी अनेकों लड़कियां करती होंगी जिन्हें उनकी रंगत की वजह से बार-बार दया दिखाई जाती है, कमतर आंका जाता है या एक अलग तबके का बना दिया जाता है।

खोट भरी रवायत है यह

सांवली बहू किसी को भी नहीं चाहिए। विवाह के लिए विज्ञापन आएगा तो उसमें गोरी, सुंदर, गृहकार्य में दक्ष बहू की चाहत दिखेगी। नौकरी के लिए आवेदन मांगा जाएगा तो गोरी, लंबी, आकर्षक जैसे विशेषण जरूर होंगे तो क्या बाहरी रंगत ही प्रभाव डालेगी? दरअसल महिलाओं से रंग का भेद सदियों से चला आ रहा है। अपने बागी तेवर के साथ लेखिका नीलिमा चौहान कहती हैं, हमारा अतीत पहले सामंती था। फिर औपनिवेशिक, पर आज इक्कीसवीं सदी में हर तरह की तरक्की के बावजूद हम एक खोट भरी रवायत को सीने से लगाकर खड़े हैं।

समाज दरअसल कल्पना ही नहीं कर पा रहा कि लड़कियां अगर रंग रूप के खांचों में फिट होने के डर से मुक्त हो गईं और उनके पास इस सबसे समय बचने लगा तो क्या होगा? समाज भीतर-भीतर जानता है कि जब लड़कियां अपनी बौद्धिक और दूसरी योग्यताओं को अहमियत देने लगेंगी तो कुंठा मुक्त हो जाएंगी। दरअसल स्त्रियों के लिए सुंदरता के मानक गढ़ते हुए गोरेपन को सबसे खास मानक बनाते हुए हमने बाजार को एक एंट्री का बिंदु थमा दिया।

इंडस्ट्री गहरे रंग से कतराती है

फिल्म इंडस्ट्री तो शो बिजनेस है। इसमें सांवली अभिनेत्रियों की राह और भी ज्यादा कठिन रही। राधिका आप्टे को भी अपने सांवले रंग की वजह इंडस्ट्री में लोगों के ताने सुनने पड़े हैं। कई लोगों कहा कि वह इंडस्ट्री के लायक नहीं हैं, वह कभी अभिनेत्री नहीं बन सकतीं, लेकिन राधिका ने इन बातों की परवाह नहीं की। उन्होंने आलोचकों को अपने शानदार काम के जरिए जवाब दिया।

डायरेक्टर व अभिनेत्री नंदिता दास हमेशा से इस मुद्दे को उठाती आई हैं। नंदिता दास ने साल 2009 में डार्क इज ब्यूटीफुल नामक अभियान की शुरूआत की थी। कंगना रनोट भी कहती हैं कि फिल्म इंडस्ट्री गहरे रंग के एक्टर को फिल्म के लिए कास्ट करने से कतराती है। कंगना ने कभी भी किसी फेयरनेस प्रोडक्ट को एंडोर्स नहीं किया है। एक बार उन्होंने कहा भी था कि मेरी बहन (रंगोली चंदेल) सांवली है। फिर भी सुंदर है। अगर मैं ऐसा करूंगी तो उसका अपमान करूंगी।

 

अंकिता जैन (सॉफ्टवेयर इंजीनियर, राइटर) कहती है कि मुझसे कहा जाता कि पीला, हरा, बैंगनी मत पहनाकर और काली लगती है। गोरी लड़कियों के लिए कहा जाता ये तो गोरी है या इन पर हर रंग फबता है। मेरे विवाह के जब प्रस्ताव आए तो कई बार उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कों से भी रंगत की वजह से रिजेक्शन मिला। एक लड़के ने मुलाकात के बाद कहा था, मैं गुलाबी सोचकर आया था, तुम बैंगनी निकली।

अब सोचती हूं कि वह मेरे साथ घटी सबसे अच्छी घटना थी, क्योंकि वे यदि मुझे स्वीकारते भी तो कमतर आंककर, मानो समझौता कर रहे हों, जबकि आज मैं एक ऐसे इंसान के साथ हूं जिसकी नजरों में सुंदरता व्यक्ति के गुण हैं न कि उसकी रंगत। हां, शादी के बाद पहली बार जब कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने देखा तो कहा था कि सुंदर है, लेकिन रंग थोड़ा दबा है। समाज में आज भी नई बहू को देखने जाने वाली कुछ औरतें रंग पर टिप्पणी कर देती हैं।

मैं यह समझने लगी हूं कि रंग-रूप से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन कई क्रीम बनाने वाली कंपनियों ने समाज के इस रंगभेद पर अपना व्यापार खड़ा किया। उन्होंने इसे आधार बनाया और सांवली लड़कियों को लालच दिया कि वे भी गोरी हो सकती हैं। हैरानी की बात यह है कि वे इसे इस तरह प्रस्तुत करते थे मानो एक लड़की में सारा आत्मविश्वास सिर्फ उसकी रंगत से ही आता है। उसके गुण-दोषों का कोई फर्क नहीं पड़ता।

नीलिमा चौहान, लेखक व एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय का कहना है कि यह विडंबना ही है कि सांवली लड़की की सफलता की कहानियां सुन सुनाकर हम गोरी त्वचा को आदर्श और सांवलेपन को एक कमी के रूप में पेश करते हैं। हमें अपने विमर्शों की इस अदा से बाज आना चाहिए। सांवली लड़कियों की सफलता की कहानियां सुनने का चस्का सिरे से गलत है।

बुद्धि, सोच और प्रतिभा का रंग से कोई वास्ता नहीं है। गोरा रंग एक अतिरिक्त योग्यता, एक सीढ़ी या एक उपलब्धि नहीं है। यह लड़कियों के लिए अभिशाप है। गोरे रंग को अपना मुख्य आकर्षण मानने वाली लड़कियां खुद को केवल देह समझती रहेंगी और ऊपर उठना कभी शुरू नहीं कर पाएंगी ।

अभिनेत्री टीना भाटिया बताती है कि हम चार भाई-बहन हैं। मेरी बड़ी दीदी, भईया और छोटी बहन रंग के मामले में मम्मी पर और मैं पापा पर हूं। वे गोरे हैं और मैं। मेरे मन में हमेशा एक कॉम्पलेक्स रहा कि मैं मम्मी जैसी क्यों नहीं हूं। देश में इसे रंगभेद का नाम भले ही न दिया जाए, लेकिन यह होता जरूर है। मैं यही सोचकर खुश होती हूं कि पापा पर गई हूं तो लकी हूं और गुलाबो सिताबो में अमिताभ बच्चन के साथ काम करने का सपना पूरा कर पाई।

अभिनेत्री नंदिता दास कहती हैं कि लोग पूछते हैं कि डार्क स्किन होने के बावजूद आप इतनी आत्मविश्वासी कैसे हैं? इससे पता चलता है कि त्वचा के रंग को आत्मविश्वास और योग्यता से कैसे जोड़ दिया गया है।

अभिनेत्री राधिका आप्टे कहती है कि मुझे अपने सांवले रंग पर अभिमान है। आपके अंदर जिस भी तरह की कमी है, चाहे वो लुक्स या रंग हो, वो आपकी यूनिकनेस है।

इसी तरह से अभिनेत्री बिपाशा बसु कहती हैं कि जब मैं बड़ी हो रही थी, तब ये सुनते हुए बड़ी हुई कि बोनी सोनी से ज्यादा सांवली है, वह काफी सांवली और काली है। 


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