समुद्र के नमक को भी जहरीला बना रही हमारी ये आदत, न सुधरे तो होगा बुरा हाल
धरती को प्लास्टिक से पाटने के बाद हमारी बुरी आदतों के चलते अब सागर और महासागरों में भी प्लास्टिक कचरा फैलता जा रहा है जो समूचे पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
ज्ञानेंद्र रावत। पूरी दुनिया आज प्लास्टिक कचरे की समस्या से जूझ रही है। इससे मानव ही नहीं, बल्कि समूचा पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित है। यदि इस पर शीघ्र अंकुश नहीं लगाया गया तो आने वाले समय में स्थिति और विकराल हो जाएगी। उस समय स्थिति की भयावहता का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय प्राणी जगत यानी जीव-जंतुओं एवं पक्षियों का अस्तित्व ही समाप्ति के कगार पर होगा।।
प्लास्टिक से संबद्ध रसायन एवं प्रदूषक उनमें दशकों तक जमा रह सकते हैं और इससे इन जीवों की जैविक प्रक्रियाओं में बदलाव संभव है। इससे इनकी बढ़ोतरी, विकास एवं प्रजनन दर में कमी समेत प्रजनन की क्रिया में भी परिवर्तन देखा जा सकता है। ऑस्ट्रेलिया की मडरेक यूनिवर्सिटी और इटली की सीमा यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों के अध्ययन जो टेंड्स इन इकोलॉजी एंड इवॉल्युशन पत्रिका में प्रकाशित हुआ है, में कहा गया है कि अतिसूक्ष्म प्लास्टिक के कण नुकसानदायक हो सकते हैं, क्योंकि इनमें जहरीले रसायन बहुतायत में होते हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी देते हुए कहा है कि हमारे समुद्र में विशेषकर बंगाल की खाड़ी जैसे प्रदूषित स्थलों में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक से मंता रे और व्हेल, शार्क जैसे विशालकाय समुद्री जीवों को अवश्यंभावी खतरा है। उनकी मानें तो अतिसूक्ष्म प्लास्टिक के कण ग्रहण एवं जहरीले पदार्थ तक जलीय जीवों की पहुंच के बीच निश्चित संबंध की पुष्टि होती रहती है।
समुद्री नमक में भी जहर घोल रहा प्लास्टिक
समुद्री पक्षियों और छोटी मछलियों में यह संबंध अधिकतर पाया गया है। ये मछलियां दूषित जल से सीधे-सीधे या दूषित शिकार से अप्रत्यक्ष रूप से सूक्ष्म प्लास्टिक को ग्रहण कर लेती हैं। एक अध्ययन में कहा गया है कि बढ़ते प्लास्टिक कचरे के कारण धरती की सांस फूलने लगी है। सबसे चौंकाने वाली और खतरनाक बात यह है कि यह समुद्री नमक में भी जहर घोल रहा है। इससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव निश्चित है।
इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। कारण यह है कि प्लास्टिक एक बार समुद्र में पहुंच जाने के बाद विषाक्त पदार्तों और प्रदूषकों के लिए चुंबक बन जाते हैं। अमेरिका के लोग हर साल प्लास्टिक के 660 से अधिक कण निगल रहे हैं। अध्ययनों ने इसे प्रमाणित भी कर दिया है। यही नहीं धरती पर घास-फूस पर अपना जीवन निर्वाह करने वाले जीव-जंतु भी प्लास्टिक से अपनी जान गंवा ही रहे हैं। समुद्री जीव-जंतु, मछलियां और पक्षी भी इससे अपनी जान गंवाने को विवश हैं। आर्कटिक सागर के बारे में किये गए शोध और अध्ययन और चौंकाने वाले हैं। इस शोध के अनुसार 2050 में इस सागर में मछलियां कम होंगी और प्लास्टिक सबसे ज्यादा। आर्कटिक के बहते जल में इस समय 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है जो तरह-तरह की धाराओं के जरिये समुद्र में जमा हो रहा है। प्लास्टिक के ये छोटे-बड़े टुकड़े सागर के जल में ही नहीं पाये गए हैं, बल्कि मछलियों के शरीर में भी बहुतायत में पहुंच गए हैं। ग्रीनलैंड के पास समुद्र में इनकी सर्वाधिक मात्र पाई गई है।
पक्षियों का जीवन खतरे में
इसमें दो राय नहीं कि दुनिया के तकरीबन 90 फीसदी समुद्री जीव-जंतु-पक्षी किसी न किसी रूप में प्लास्टिक खा रहे हैं। यह प्लास्टिक उनके पेट में ही रह जाती है जो उनके लिए जानलेवा साबित हो रही है। यह प्लास्टिक प्लास्टिक के थैलों, बोतलों और सिंथेटिक कपड़ों से निकले प्लास्टिक के धागों के शहरी इलाकों से होकर सीवर और शहरी कचरे से बहकर नदियों के रास्ते समुद्र में आती है। समुद्री पक्षी प्लास्टिक की इन चमकदार वस्तुओं को गलती से खाने वाली चीज समझकर निगल लेते हैं। इससे उन्हें आंत की बीमारी हो जाती है, उनका वजन घटने लगता है। अगर जल्दी ही समुद्र में किसी भी तरह से आ रहे प्लास्टिक पर रोक नहीं लगाई गई तो आगामी तीन दशकों में पक्षियों की बहुत बड़ी तादाद खतरे में पड़ जाएगी।
अरबों मीट्रिक टन प्लास्टिक का हो रहा उत्पादन
ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच का तस्मानिया सागर इसमें सर्वाधिक प्रभावित इलाका है। पीएनएएस जर्नल में प्रकाशित अमेरिकी वैज्ञानिक एरिक वैन सेबाइल और क्रिस विलकॉक्स के शोध के मुताबिक 1960 के दशक से लेकर अब तक समुद्र में पक्षियों के पेट में पाए जाने वाले प्लास्टिक की मात्रा दिनोंदिन तेजी से बढ़ती ही जा रही है। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि 1960 में पक्षियों के आहार में केवल पांच फीसदी प्लास्टिक की मात्रा पायी गयी थी। आने वाले 33 सालों के बाद 2050 में हालत यह होगी कि 99 फीसदी समुद्री पक्षियों के पेट में प्लास्टिक मिलने की आशंका होगी। पिछले सात दशकों से दुनिया में प्लास्टिक उत्पादन कई गुना बढ़ा है। इस दौरान तकरीबन 8.3 अरब मीट्रिक टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ। इसमें से 6.3 अरब टन प्लास्टिक कचरे का ढेर लग चुका है, जिसका महज 9 फीसदी ही रिसाइकिल किया जा सका है। इससे भी ज्यादा मात्रा में प्लास्टिक कचरे का ढेर दुनिया में जगह-जगह इकट्ठा हो चुका है। वर्ष 1950 में दुनिया में प्लास्टिक का उत्पादन केवल 20 लाख मीटिक टन था जो 65 साल में यानी 2015 तक बढ़कर 40 करोड़ मीटिक टन हो गया है। इसमें भी 2010 तक करीब 80 लाख मीटिक टन प्लास्टिक कचरा महासागरों में इकट्ठा हो चुका है।
उपायों में बांग्लादेश से भी पीछे भारत
वर्ष 2050 तक यह 12 अरब मीटिक टन का आंकड़ा पार कर सकता है। चूंकि इसका जैविक क्षरण नहीं होता, लिहाजा आज पैदा कचरा आने वाले सैकड़ों वर्षों तक हमारे साथ ही रहेगा। भारत में ही हर साल 56 लाख टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। इसमें 9205 टन प्लास्टिक ही रिसाइकिल किया जाता है। राजधानी दिल्ली में पॉलीथिन पर प्रतिबंध होने के बावजूद धड़ल्ले से उसका इस्तेमाल हो रहा है। प्लास्टिक के अटने से नाले बंद हो जाते हैं। जलभराव से डेंगू और चिकनगुनिया के मच्छर पनपते हैं, लेकिन इसके बावजूद सरकार का मौन समझ से परे है। इस मामले में हम बांग्लादेश, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस से बहुत पीछे हैं। बांग्लादेश ने तो 2002 में ही प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया था। आयरलैंड ने प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर 90 फीसदी तक टैक्स लगा दिया। हमारे यहां इस दिशा में सरकारों की बेरुखी समझ से परे है। लगता है सरकारों को मानव जीवन और उसके स्वास्थ्य की चिंता ही नहीं है। इस सोच को बदले बिना समाधान नहीं निकलेगा।
(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)