पहाड़ों में भूस्खलन के पीछे वनों की आग भी बड़ा कारण, शोध में सामने आया सच
गर्मियों के दिनों में पहाड़ी क्षेत्र के वनों में लगने वाली आग तब न केवल वनस्पति, जैव विविधता और समूचे पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुंचाती है, बल्कि बारिश के दिनों में भूस्खलन का कारण भी बनती है।
सुनील शर्मा, सोलन। पहाड़ों में वनों की आग भूस्खलन का कारण बन रही है। सोलन, हिमाचल प्रदेश के शूलिनी विश्र्वविद्यालय के एक शोध में यह सच सामने आया है। प्रोफेसर डॉ. अदेश सैनी को इस नतीजे पर पहुंचने में पांच वर्ष का समय लगा। ।गर्मियों के दिनों में पहाड़ी क्षेत्र के वनों में लगने वाली आग तब न केवल वनस्पति, जैव विविधता और समूचे पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुंचाती है, बल्कि बारिश के दिनों में भूस्खलन का कारण भी बनती है। इस समय हिमाचल प्रदेश सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में अनेक जगहों पर भूस्खलन से भीषण नुकसान हो रहा है।
किसान व बागवान गुंबर खरपतवार को मिटाने के लिए खेतों व मैदानों की घास में आग लगा देते हैं। वे इससे वाकिफ नहीं हैं कि उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। वनों के विनाश से कृषि-बागवानी में कीटनाशक व यूरिया का ज्यादा इस्तेमाल बढ़ा है। वनों से जीवाश्म खेतों तक पहुंचते हैं, लेकिन जंगल नष्ट होने से जीवाश्म भी खत्म हो जाते हैं।
शोध में यह बात सामने आई है कि पेड़ों की जड़ें जमीन पर पकड़ बनाए रखती हैं। जब आग लगती है तो पेड़-पौधे सूख जाते हैं। इससे जड़ें कमजोर पड़ जाती हैं और जमीन टूट जाती है। इससे बड़ी-बड़ी पहाडिय़ां खिसक जाती हैं। कई बार यही भूस्खलन बड़ी आपदा का रूप धारण कर लेता है। शोध में सामने आया है कि वनों की आग के 90 फीसद कारण के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। लोग वनों में झाडिय़ों को खत्म करने के लिए आग लगा रहे हैं।
हिमाचल की ही बात करें तो बरसात में यहां भूस्खलन से जानमाल की भारी हानि हो रही है। मंडी, शिमला, कुल्लू, चंबा, सोलन और सिरमौर जिलों में भूस्खलन की घटनाएं ज्यादा देखने को मिल रही हैं। इससे हर साल करोड़ों की संपत्ति मिट्टी में मिल रही है।
विवि के शोध प्रोजेक्ट के समन्वयक डॉ. अदेश सैनी ने कहा कि सोलन के सुल्तानपुर में सहित अन्य जगहों पर वैज्ञानिक तरीके से छानबीन की तो पता चला कि अगर पहाड़ पर हरियाली होती तो शायद पहाड़ न गिरता। नौणी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. केएस वर्मा ने कहा कि भूस्खलन के दूसरे भी कारण हैं, लेकिन जब पहाड़ में आग लगती है तो वहां हरियाली खत्म हो जाती है। इससे जमीन पर पकड़ कम हो जाती है। बारिश होने के बाद धूप निकलने पर पहाड़ फटने लगता है और भूस्खलन होता है।
डॉ. सैनी ने वनों में आग के बाद घासनियों की गुणवत्ता पर होने वाले बदलाव पर भी शोध किया। दोनों स्थान चिन्हित किए। एक आग से प्रभावित वन और दूसरा सामान्य। दोनों स्थानों से उन्होंने सूक्ष्म जीवाणु जो कि घास पैदा होने में मदद करते हैं, एकत्रित किए।
उन्होंने पाया कि जिन स्थानों पर चार वर्ष से आग की घटना नहीं हुई, वहां के जीवाश्मों ने बेहतर उत्पादन किया है। जिस स्थान पर जीवाश्म जल गया, वहां नहीं। उन्होंने कहा कि वनों की आग में जीवाश्म के जलने से जो हानि हो रही है, उनसे हम अनजान हैं। जब फसलों के सहयोगी जीवाश्म जल जाते हैं तो उन्हें दोबारा से पुरानी स्थिति में आने में चार वर्ष तक लग जाते हैं। कई वषरें से काम कर रहे जीवाश्म फसलों की गुणवत्ता व उपज की मात्रा को बनाए रखते हैं। यही बात खेतों में लागू होती है।
शूलिनी यूनिवर्सिटी में बायोटेक्नालॉजी विषय में प्रोफेसर व डायरेक्टर सेंटर ऑफ रिसर्च ऑन हिमालयन सस्टेनेबलिटी एंड डिवेलपमेंट प्रोजेक्ट डॉ. सैनी ने यूनिवर्सिटी परिसर में एक संग्रहालय (डिपॉजिटरी) तैयार किया है। इसमें सभी लाभकारी जैविक कणों का संग्रहण किया है। इन्हें एक फ्रिज में स्थापित किया गया है, जिसका तापमान माइनस 60 तक जाता है।
डॉ. सैनी ने इस रिसर्च के परिणामों को किसानों तक पहुंचाने के लिए अभियान छेड़ दिया है। वह अपने सहयोगियों के साथ ग्राम पंचायतों सहित अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर लोगों को जागरूक कर रहे हैं।