एक बार में एक चीज पर करें फोकस, कई चीजें होंगी तो रहेगी उलझनें
आप जिस चीज पर फोकस करते हैं बस उसी पर विचार कर प्रतिक्रिया करता है। विचार हमारी प्रतिक्रियाओं को ही सच का आकार देते हैं। अक्सर सच्चाई वास्तविक जीवन से जुड़ी नहीं होती।
नई दिल्ली [सीमा झा]। ये बात तो पूरी तरह से सच है ही कि यदि हम किसी एक चीज पर फोकस करते हैं तो बाकी चीजें धुंधली पड़ती है, इस वजह से हमेशा एक ही चीज पर फोकस करने के बाद हमें दूसरी चीज पर ध्यान देना चाहिए। यदि एक साथ कई चीजों पर ध्यान और मन लगाने की कोशिश करें तो वो संभव भी नहीं है। ऐसी दशा में मन तमाम तरह की उलझनों में फंस जाता है और काम ठीक न होने पर तनाव की स्थिति भी पैदा हो जाती है। इस बारे में देश दुनिया के तमाम लोगों की राय भी अलग-अलग हैं।
समझें 'सूरज’ का उजाला
यदि हम किसी चीज पर फोकस करें तो बाकी दूसरी चीजें धुंधली पड़ने लगती हैं। जैसे हाथ अपनी आंखों के सामने रखें। आपका फोकस हाथ की अंगुलियों पर टिक जाएगा। आप समझ जाएंगे कि हम एक बार में एक चीज पर पूरा फोकस कर पाते हैं, कई चीजें हों तो मन उलझनों में फंसता है और तनाव होता है। यह वैज्ञानिक रूप से ज्ञात तथ्य है कि हमारे 50 प्रतिशत विचार पल से जुड़ी चीजों से नहीं जुड़े होते।
यह आपके वर्तमान अनुभव पर प्रतिक्रिया नहीं करता। आप जिस चीज पर फोकस करते हैं, बस उसी पर विचार कर प्रतिक्रिया करता है। विचार हमारी प्रतिक्रियाओं को ही सच का आकार देते हैं। अक्सर सच्चाई वास्तविक जीवन से जुड़ी नहीं होती। यह बस वह सच होता है, जो हम अपने दिमाग में तैयार करते हैं।
(-तूती फरलैन, थेरेपिस्ट, मोटिवेशनल स्पीकर, ग्वाटेमाला, अमेरिका)
एक छोटा-सा किस्सा है। मेरी स्कूल की दोस्त कनाडा में रहती है। एक बार वह ग्वाटेमाला 20 साल बाद मुझसे मिलने आई। जब वह जाने लगी तो उसने एक बात कही, 'गुड बाय एंजाय योर सन’, उसे सुनते ही मैं चौंक गई। सोचा कि इसमें 'एंजॉय’ यानी आनंद उठाने वाली कौन-सी बात बात है, सूरज तो रोज निकलता है। इस पर मेरी जिज्ञासा देख उसने जवाब दिया।
उसने कहा कि कनाडा में जहां वह रहती है, वहां का सूरज ऐसा नजर नहीं आता यानी ग्वाटेमाला जितना चमकीला और तेज से भरा। यह उसकी सच्चाई या विचार है पर मेरे लिए एक खूबसूरत जीवन संदेश कि हम सबके पास होता है अपना सूरज, उसे पहचानें। वह आपको उजाला दे रहा है। उस उजाले से आपका जीवन भी उतना ही रोशन हो सकता है। (सीमा झा से ईमेल से हुई बातचीत के आधार पर)
लगा दो दौड़, मैं हूं न!
दया और करुणा की भावना, इंसान का मदद करने का स्वभाव समाज को सुनहरी चेन में बांधता है। यह आपदा काल में आशा बनाए रखने का सबसे बड़ा आधार बन रहा है। देने का भाव कितना सुखकर है मनोविज्ञान में इस पर खूब अध्ययन हुए हैं कि यह किस तरह स्ट्रेस हार्मोन का स्राव कम कर खुशियां बढ़ाता है। मदद करने का भाव पशु समाज से इंसान को अलग करने का सबसे बड़ा पैरामीटर भी है। नि:स्वार्थ देने के भाव को हमारी संस्कृति और अध्यात्म जगत में जीवन का अंतिम सत्य माना गया है।
हालांकि पिछले दो दशकों में भारतीय समाज तेजी से भौतिकवाद की चपेट में आया है। अब यहां वह पीढ़ी भी मौजूद है जो बिना आकलन के नि:स्वार्थ भाव से कुछ दान या मदद नहीं करना चाहती। पर इससे इतर जिनमें नि:स्वार्थ भाव से मदद करने का भाव है, वे भले कुछ ही प्रतिशत हों, उनके पावन भाव का उजाला उनके मन को रोशन करता है और समाज में भी आशा जगती है।
यदि आपको लगता है कि आप कुछ मदद नहीं कर पा रहे तो यह सोच ही गलत है। आपके पास हरदम यह अवसर है। किसी अनजान को जिनसे आप जीवन में एक ही बार क्यों न मिले हों, उन्हें फोन कर सकते हैं। उनका हालचाल लें और यह भरोसा भी जरूर दें कि लगा दो दौड़ मैं हूं न! यह स्निग्ध भाव सारी देनदारियों से अनमोल है। (-रितु सारस्वत, वरिष्ठ समाजशास्त्री)
क्या डर का जेंडर से कोई रिश्ता है?
हर इंसान चिंता और भय का अनुभव करता है पर क्या यह जेंडर से भी जुड़ा है, यह सवाल यदि आपके मन में भी है तो कुछ सामान्य कल्पनाएं होंगी। पर मनोविज्ञान इसे अपने नजरिए से देखता है। सामान्य तौर पर भय की स्थिति में सामान्य प्रतिक्रिया होती है, इसे 'फाइट या फ्लाइट’ मोड कहते हैं यानी भय से लड़ो या भाग जाओ। इस दौरान, दिल की धड़कन बढऩा और सांसें तेज चलने के साथ मांसपेशियों में जकडऩ आदि जैसे बदलाव सब महसूस करते हैं।
पर कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी अमेरिका के मनोविज्ञान की प्रोफेसर शैली टेलर और उनके सहयोगियों ने यह जानने की कोशिश की कि जेंडर पर यह अलग प्रभाव डालता है या नहीं। जब इस विषय पर शोध किया गया तो निष्कर्ष में महिलाओं को लेकर अलग बातें सामने आईं। 'टेंड ऐंड बीफ्रेंड’ रिस्पांस कहा जाता है। यह उसके केयर बिहेवियर सिस्टम यानी परवाह करने और लोगों की मदद करने से जुड़ जाता है।
भय की स्थिति में वे परिवार के हित के प्रति अधिक सजग हो जाती हैं। वे समाज से मदद के लिए पुरुषों से अधिक पहल करती हें। पुरुष मुश्किल काम निपटाने के बाद अकेला रहना चाहते हैं पर महिलाएं सोशल कनेक्शन को तलाशती हैं। (फियरलेस साइकोलॉजी डॉट वर्डप्रेस डॉट कॉम से साभार)
अपने दिल की सुनें, पर कैसे?
जीवन कभी ऐसे दौर से गुजरता है जब हमें ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं, जिस पर न आपका दिल तैयार होता है न दिमाग। पर कभी सोचा है कि दिल की सुननी चाहिए, इसका मतलब क्या है। दिल की सुनने का मतलब है-उस अर्थपूर्ण क्रिया को चुनना जो आपके व्यक्तित्व के अनुकूल हो और सामान्य हित से भी जुड़ा हो। रोजाना ऐसी जटिल और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियां आती हैं जब हमारे भीतर नैतिक द्धंद्ध शुरू हो जाता है।
पर ये असल में किसी खास अवसर की तरह होते हैं। ये आपको एक दिशा दे सकते हैं और दृष्टि भी। आपके लिए उस वक्त सबसे अधिक जरूरी है, आपकी मजबूती क्या है और व्यापक हित में इसका प्रयोग कैसे हो, इसका जवाब भी मिलने लगता है।
इसके लिए आप इन तीन चरणों पर अमल कर सकते हैं-
- पहला, गहरी सांस लें। वर्तमान पल में लौटें। उस बिंदु पर जब बाहरी परिवेश और भीतर का संसार एक महसूस हो।
- दूसरा, खुद से सवाल करें-इस परिस्थिति में सबसे अधिक क्या महत्व रखता है, कैसे मैं व्यापक हित में योगदान कर सकता हूं।
- तीसरा, अपनी मजबूती को खोजना शुरू करें, उसे महसूस करें और एक्शन लें।
(साइकोसेंट्रल डॉट कॉम ब्लॉग से साभार)
टि्वटर से
स्वीकार करने के लिए स्थिति को समझना पहला चरण है। स्वीकार्यता से मुश्किलों का समाधान आसानी से हो सकता है।
- जेके रॉलिंग, मशहूर ब्रिटिश लेखिका