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हिमालय से आने वाली नदियों में पानी के साथ मैदानी क्षेत्रों में गाद का आना स्वाभाविक

Flood News In India लगभग हर वर्ष की तरह इस बार भी भारत में मानसून के सीजन में हिमालय से आने वाली नदियों से बिहार में बाढ़ की समस्या के गहराने और इसके समाधान की चर्चा हो रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 17 Sep 2021 09:27 AM (IST)Updated: Fri, 17 Sep 2021 09:31 AM (IST)
हिमालय से आने वाली नदियों में पानी के साथ मैदानी क्षेत्रों में गाद का आना स्वाभाविक
बिहार सरकार द्वारा एक राष्ट्रीय नीति की कवायद के संदर्भ में इसे समग्रता में समझना चाहिए।

दिनेश मिश्र। Flood News In India बाढ़ के समय नदियों में केवल पानी ही नहीं आता, उसके साथ नदी के ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्र में जो भूमि का क्षरण होता है, उसके साथ वाली मिट्टी भी आती है जिसे हम गाद कहते हैं। प्रकृति ने नदियों को जो दायित्व सौंपा है उसमें भूमि निर्माण एक महत्वपूर्ण काम है जिसमें इस गाद की बहुत बड़ी भूमिका होती है। अगर हम लोग गंगा या ब्रह्मपुत्र घाटी की बात करें तो इनका निर्माण ही नदियों द्वारा बरसात के समय लाई गई गाद ने ही किया है।

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भूगर्भ-विज्ञानियों का मानना है कि भारत के विंध्य पर्वत और प्रायद्वीपीय भारत यानी जम्बूद्वीप कभी दक्षिणी ध्रुव के पास हुआ करता था और समय के साथ वह खिसकता हुआ ऊपर की ओर आया तथा एशियाई भूमि से उसका संपर्क हुआ और बीच का हिस्सा, जो कभी समुद्र हुआ करता था, उसको ऊपर से आई हुई गाद ने पाट कर इस मैदानी इलाके का निर्माण कर दिया। फिर इसमें बसाहट हो गई और आज का इसका स्वरूप उभरा है। ऐसा होने में करोड़ों साल लगे होंगे, लेकिन यह प्रक्रिया आज भी रुकी नहीं है। यह गाद पानी के माध्यम से ही सब जगह पहुंचती है।

नदियों को बाढ़ से बचाव के लिए नियंत्रित करने, विद्युत उत्पादन करने, नौ-परिवहन, सिंचाई, मनोरंजन आदि के लिए मनुष्य ने नदियों से छेड़-छाड़ की है। उसने नदियों के प्रवाह के सामने बांध बनाकर जलाशय का निर्माण किया है। नदी के किनारे तटबंध बनाकर नदी के पानी को फैलने से रोका है, गांवों या शहरों के चारों ओर बांध बनाकर उसे नदी से सुरक्षित करने का काम किया है। इन सभी कार्यो में उसने पानी का उपयोग अपने फायदे के लिए किया और गाद के बारे में कोई खास विचार नहीं किया, सिवाय इसके कि वह भविष्य में उसकी परेशानी बढ़ाएगी। ऐसा इसलिए होता है कि आप अगर नदी के सामने बांध बना लेंगे तो गाद का एक बड़ा हिस्सा बांध में जमा हो जाएगा और उसकी संचयन क्षमता को घटाएगा, यहां तक कि उस बांध का जीवनकाल कितना है, यह भी गाद ही तय करेगी।

अगर तटबंध बनाकर आपने नदी को छेड़ा है तो नदी के प्रवाह के साथ आने वाली गाद नदी की पेटी में साल दर साल बैठेगी और नदी के प्रवाह की क्षमता को घटाएगी। इससे निपटने के लिए नदी का तटबंध बनाए जाने के बाद जो प्रवाह है उसे सुरक्षित बहाने के लिए तटबंध को लगातार ऊंचा करते रहना पड़ेगा। ये तटबंध तो मिट्टी के ही बनते हैं तो उसकी बढ़ती ऊंचाई के साथ साथ सुरक्षित क्षेत्र पर खतरा भी बढ़ेगा, क्योंकि तटबंध टूटने के लिए मशहूर हैं और जब यह टूटता है तब बाढ़ नहीं आती, प्रलय होता है।

अगर आपने किसी शहर या गांव को सुरक्षा देने के लिए उसके चारों ओर घेरा बांध बनाया है तो यह गाद घेरा बांध के बाहर जमा होगी और गाद के जमाव के साथ उसकी ऊंचाई निरंतर घटती जाएगी। इसलिए समय के साथ उसको भी ऊंचा करना पड़ेगा। इस बांध को जितना ऊंचा करेंगे, सुरक्षित किया गया गांव या शहर उतना ही गड्ढे में समाता जाएगा और अगर किसी दुर्योग से यह बांध टूट जाए तो उस सुरक्षित गांव की जल-समाधि होगी। इसलिए हमारे इंजीनियर हमेशा यह कहते हैं की समस्या पानी की नहीं है, समस्या गाद की है कि उसका क्या किया जाए।

दुर्भाग्यवश हमारी सारी बुद्धि पानी पर केंद्रित है और गाद के बारे में हम तभी सोचते हैं जब कोई मुश्किल हमारे सामने आ जाए। बिहार में कोसी नदी की ही बात करें तो यह नदी जहां नेपाल के बराहक्षेत्र में मैदान में उतरती है, गाद का वार्षकि औसत परिमाण करीब 9248 हेक्टेयर मीटर है। सरल शब्दों में इतनी गाद से अगर एक मीटर चौड़ी और एक मीटर ऊंची मेड़ बनाई जाए तो वह भूमध्य रेखा के कम से कम दो फेरे जरूर लगाएगी।

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पानी तो बह जाएगा, भाप बन कर उड़ जाएगा, जमीन में रिस जाएगा, पर गाद ऐसा कोई काम नहीं करेगी। वह जहां ठहर गई, वहीं रहेगी और साल दर साल बढ़ती ही जाएगी। चिंता का विषय यही है। कमोबेश यही स्थिति बागमती, गंडक, कमला, महानंदा आदि नदियों के साथ भी हो रहा है।फरक्का से होकर गंगा नदी पर हर साल 73.6 करोड़ टन गाद आती है जिसमें से 32.8 करोड़ टन गाद इस बराज के प्रतिप्रवाह में ठहर जाती है। काफी कुछ गाद बराज के नीचे भी जमा होती है जिससे नई जमीन निकल आती है। बराज से उसके प्रति प्रवाह में नदी के पानी के फैलाव को रोकने के लिए गंगा पर तटबंध बने हुए हैं और जब-जब ये टूटते हैं, तो उससे पीछे हट कर नए तटबंध का निर्माण कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में मानव बसावट प्रभावित होती है।

जो राजनीतिज्ञ नदियों की उड़ाही यानी मिट्टी को खंगाल कर बाहर फेंक देने का प्रस्ताव करते हैं उन्हें शायद इस समस्या की विकरालता का अंदाजा नहीं है। फरक्का के निकट से यदि इस गाद को निकाला भी जाएगा तो फिर इसे रखा कहां जाएगा और इस पर कितना खर्च आएगा और आता रहेगा, इस कार्य के लिए कितने बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत पड़ेगी, यह किसी को नहीं मालूम।

कोसी तटबंधों के विस्थापितों के आर्थिक पुनर्वास के लिए पिछली सदी के आठवें दशक में पाठक समिति की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें सीमेंट मिली ईंटें और चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने का प्रस्ताव किया गया था। इन ईंटों को दूर के बाजार में ले जाना तो मुश्किल होगा, परंतु सीमित मात्र में स्थानीय खपत पर चर्चा जरूर हो सकती है।

हाल के वर्षो में इस गाद के व्यापारिक उपयोग की भी बात उठी है। कुछ लोग गाद को एक बड़े इलाके पर फैलाने का भी प्रस्ताव दे रहे हैं। यह काम तो नदी अपने मुक्त स्वरूप में बिना पैसे के कर रही थी, यह हमें नहीं भूलना चाहिए। हमारे पास विश्वस्तर के इंजीनियर मौजूद हैं। शायद वे कुछ उपयोगी सुझाव दे सकें और इस पर सोच-विचार कर आगे बढ़ना चाहिए।

[संयोजक, बाढ़ मुक्ति अभियान]


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