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Positive India: अब ई-कचरे को भी रिसाइकिल कर होगा इस्तेमाल, IIT ने की तकनीक विकसित

यह तकनीक स्मार्ट सिटीज स्वच्छ भारत अभियान और आत्मनिर्भर भारत के लिहाज से पूर्णत अनुकूल होगी। इस तकनीक को आईआईटी दिल्ली के केमिकल इंजीनयिरंग के प्रोफेसर के.के.पंत ने शोधकर्ताओं के साथ मिलकर विकसित किया है। प्रोफेसर पंत का कहना है कि ई-वेस्ट को अर्बन माइन भी समझा जा सकता है।

By Vineet SharanEdited By: Published: Tue, 02 Mar 2021 08:42 AM (IST)Updated: Tue, 02 Mar 2021 08:50 AM (IST)
भारत ई-वेस्ट का तीसरा बड़ा उत्पादक है। भारत ने 2019 में 3.23 मिलियन मीट्रिक टन इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट उत्पादन किया था।

नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। इलेक्ट्रॉनिक कचरा दुनियाभर में लगातार चुनौती बना हुआ है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर रिपोर्ट 2020 के अनुसार, 2019 में वैश्विक स्तर पर 53.7 मिलियन मीट्रिक टन कचरे का उत्पादन हुआ था। 2030 में इसके 74.7 मिलियन मीट्रिक टन होने की उम्मीद है। आईआईटी दिल्ली के वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसके माध्यम से ई-कचरे का कुशल प्रबंधन किया जा सकेगा, साथ ही रिसाइकिल करके उसका फिर से इस्तेमाल करना संभव होगा। आईआईटी के वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तकनीक स्मार्ट सिटीज, स्वच्छ भारत अभियान और आत्मनिर्भर भारत के लिहाज से पूर्णत: अनुकूल होगी। इस तकनीक को आईआईटी दिल्ली के केमिकल इंजीनयिरंग के प्रोफेसर के.के.पंत ने शोधकर्ताओं के साथ मिलकर विकसित किया है।

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ऐसी है तकनीक

प्रोफेसर पंत का कहना है कि ई-वेस्ट को अर्बन माइन भी समझा जा सकता है। इससे मेटल रिकवरी और एनर्जी प्रोडक्शन का भी काम किया जा सकता है। इस नई कार्य प्रणाली में तीन प्रक्रियाएं हैं। पहला ई-वेस्ट का पायरोलाइसिस किया जाता है, जो ताप-अपघटन-पदार्थ को गर्म करके अलग-अलग पदार्थों में विभक्त करने की प्रक्रिया है। यह 'तापीय अपघटन' भी कहलाता है। उदाहरण के लिए, यदि कैल्शियम कार्बोनेट को गर्म किया जाए, तो कैल्शियम कार्बोनेट कैल्शियम ऑक्साइड में टूट जाता है और इससे कार्बन डाइऑक्साइड विमुक्त होती है, दूसरा सेपरेशन ऑफ मेटल फ्रेक्शन (मेटल को अलग करना) और तीसरा रिकवरी ऑफ इंडीविजुअल मेटल।

सबसे पहले ई-कचरे से तरल और गैसीय ईंधन प्राप्त करने के लिए उसे पायरोलाइज्ड किया जाता है। इसके बाद एक तकनीक का प्रय़ोग कर 90 से 95 फीसद मेटल मिक्चर और कुछ कॉर्बनयुक्त मैटीरियल निकलते हैं। कॉर्बनयुक्त मैटीरियल को एयरोजेल में बदला जाता है। इसका उपयोग छलके हुए तेल की सफाई, डाई रिमूवल औऱ सुपरकैपिसिटर में किया जाता है।

अगले चरण में कम तापमान की रोस्टिंग तकनीक का प्रयोग कर इंडिविजुअल मेटल, जैसे कॉपर, निकिल, लेड, जिंक, सिल्वर और सोने को रिकवर किया जाता है। इससे 93 फीसद कॉपर, सौ फीसद निकिल, सौ फीसद जिंक, सौ फीसद लेड और 50 फीसद तक गोल्ड और सिल्वर को रिकवर किया जाता है। यह पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल प्रक्रिया है। इसमें से किसी भी तरह के हानिकारक तत्वों का वातावरण में उत्सर्जन नहीं होता है।

प्रोफेसर के.के.पंत का कहना है कि समय रहते अगर इस समस्या का हल न तलाशा गया तो ई-वेस्ट के पहाड़ एकत्रित हो जाएंगे। इस नई तकनीक से हर तरह के ई-वेस्ट को रिसाइकिल किया जा सकेगा, साथ ही प्लास्टिक वेस्ट को भी रिसाइकिल किया जा सकेगा। पर्यावरण को फायदा पहुंचाने के साथ इस तकनीक से रिसाइकलिंग इंडस्ट्री को बड़ी संख्या में नौकरियां मिल सकेंगी। इस तकनीक का पेटेंट करा लिया गया है। इसे जर्नल ऑफ क्लीनर प्रोडक्शन, जर्नल ऑफ हेजारड्यूस मैटीरियर, वेस्ट मैनेजमेंट एंड द जर्नल ऑफ इंवायरमेंट केमिकल इंजीनियरिंग में प्रकाशित किया गया था।

भारत की स्थिति

भारत ई-वेस्ट का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत ने 2019 में अकेले 3.23 मिलियन मीट्रिक टन इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट का उत्पादन किया था। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ई-वेस्ट में कई तरह के विषैले मैटीरियल जैसे, लेड, कैडमियम, क्रोमियम, ब्रोमिनेटेड फ्लेम रिटॉर्डेंट्स और पॉलीक्लोरीनेटेड बाईफिनाइल आदि होते हैं। ऐसे में इनका बिना किसी नियंत्रण के एकत्र करना, लैंडफिलिंग करना और समुचित तरीके से रिसाइकिल न कर पाना कई तरह की स्वास्थ्य और पर्यावरण की समस्याएं पैदा करता है। 


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