मंदिरों पर न हो सरकारी नियंत्रण, अनुयायियों को ही मिले व्यवस्था का अधिकार
समझना होगा कि ये देवस्थान हिंदू धर्म के केंद्र अवश्य हैं किंतु इनके अपने रीति रिवाज हैं। मंदिरों के संचालन व उनकी आर्थिक व्यवस्था पर कई राज्यों में सरकारी नियंत्रण का प्रयास किया गया तथा कई राज्यों में अब किया जा रहा है जिसे उचित नहीं कहा जा सकता।
अमिय भूषण। मठों और मंदिरों के संदर्भ में बिहार सरकार ने एक नया फरमान जारी किया है, जिसके अनुसार इनका निबंधन अनिवार्य है। ऐसे में सवाल यह है कि दैवीय संपदा का नियंत्रण और दान पर उगाही का नैतिक अधिकार भला कैसे किसी सरकार के पास हो सकता है? ये सरकारी आदेश संतों के लिए परेशानी का सबब बन गया है। दरअसल निबंधन के साथ ही सभी मठों-मंदिरों को अपनी आय व्यय एवं चल अचल संपत्ति का ब्यौरा भी देना होगा। मंदिरों की भूमि, कोष और जेवरातों पर अंतिम नियंत्रण सरकार का होगा। नियत समय पर इन्हें कर का भुगतान भी करना होगा।
बिहार में लगभग साढ़े पांच हजार मठ-मंदिर निबंधित हैं। इनमें से करीब तीन सौ ही सरकार को नियमित कर देते हैं। सरकार का सोच है कि कठोरतापूर्वक इसे लागू करने से शासकीय कोष में एक बड़ी रकम लाई जा सकती है। एक आकलन के अनुसार अभियान के प्रथम चरण में ही करीब ढाई हजार नए मठ-मंदिर सरकारी नियंत्रण में आ सकते हैं। इसकी संख्या निरंतर बढ़ेगी। ऐसे में सरकार इसको लेकर बेहद सक्रिय है। निबंधन की अंतिम तिथि 15 जुलाई है। इसके बाद सरकार अनुशासनात्मक कार्रवाई की भी तैयारी कर रही है। इसकी बानगी बिहार सरकार के संबंधित मंत्रियों के तल्ख बयानों से समझा जा सकता है। जबकि मठों-मंदिरों के निर्माण में सरकारों का कोई योगदान नहीं है।
दरअसल इसके पीछे एक कुत्सित मानस है जो यह मानता है कि मठ मंदिर जातिगत और लैंगिक भेदभाव के स्थान हैं। यहां के पुजारी और पीठाधिपति एक विशेष जाति वर्ग के होते हैं जिनका काम केवल जनता की गाढ़ी कमाई लूटना है। ऐसा मानने वाले राजनेता और शासकीय अधिकारी देशभर में हैं। ये हिंदू आस्था केंद्रों पर सरकारी नियंत्रण के हिमायती हैं। अगर कब्जा पूर्णरूपेण संभव नहीं हो तो सत्ता के प्रभाव से प्रबंधन में प्रवेश का जुगाड़ तो रखा ही जाए। इस माध्यम से अपनों के लिए अवसर बनाए जा सकते हैं। धर्म से दूरी बनाए रखने वाले केरल के वामपंथी भी मंदिरों के नियंत्रण प्राप्ति की जुगत में रहते हैं। वहीं धार्मिक आस्थाओं पर चोट करने वाले तमिल द्रविड़ियन नेता अपने सहयोगी एवं समर्थकों को मुक्त हस्त से मठ भूमि बांटते हैं।
सरकारी हस्तक्षेप का दुष्प्रभाव : सरकारी हस्तक्षेप के नाते मठ-मंदिर की परंपराएं समाप्त होने को है। एक आकलन के अनुसार कर्नाटक के पांच हजार मंदिर बंद पड़े हैं। तमिलनाडु में रखरखाव के अभाव में 12 हजार मंदिर ढह रहे हैं। ओडिशा के सैकड़ों एकड़ भूमि वाले मंदिरों तक में अर्थाभाव है। जबकि बिहार से लेकर तमिलनाडु तक मूल्यवान मूर्तियां चोरी हो रही हैं। हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार पर मंदिरों के स्वर्ण चोरी का आरोप लगाया है। ऐसा ही मसला त्रिपुरा के प्रसिद्ध त्रिपुर सुंदरी मंदिर कोष से मूल्यवान रत्नों के गायब होने का भी है।
सरकारी नियंत्रण में बिहार और ओडिशा से लेकर तमिलनाडु तक मठों की जमीनें अतिक्रमण का शिकार हैं। इसके बावजूद सरकारें अधिग्रहण को बेताब हैं। मठ-मंदिर के सरकारी व्यवस्था से जुड़ते ही बाह्य हस्तक्षेप शुरू हो जाता है। धार्मिक व्यवस्थाओं से अपरिचित सरकारें और न्यायालय सुधारों के नाम पर परंपरा विरुद्ध निर्णय सुनाने लगती हैं। जिसका उदाहरण केरल का शबरीमाला और त्रिपुरा का त्रिपुर सुंदरी मंदिर है। त्रिपुर सुंदरी में बलिप्रथा को रोका गया, वहीं शबरीमाला में रजस्वला काल वाली महिलाओं को प्रवेश दिया गया। जबकि ऐसा ही एक प्रस्तावित निर्णय हिमाचल प्रदेश के ज्वालादेवी मंदिर में चढ़ाए स्वर्णाभूषणों को लेकर है। यहां की सरकार इन्हें गला कर सिक्के एवं स्मृति चिन्ह बना कर बेचने की योजना में है।
अधिग्रहित देवस्थानों के पुजारी कर्मचारी और न्यासी नियुक्ति में भी सरकारों की ही चलती है। ऐसे ही एक मामले में हिमाचल प्रदेश के ज्वालादेवी मंदिर ट्रस्ट में दो मुस्लिमों की नियुक्ति हुई थी। धार्मिक न्यास प्रविधानों के नाते ये गैर हिंदू भी हस्तक्षेप कर सकते हैं। ऐसे कानूनी आड़ में ही एआर अंतुले ने सिद्धि विनायक मंदिर का अधिग्रहण किया था। वैसे कुछ राज्यों में वस्तुस्थिति को समझते हुए इसके विपरीत भी निर्णय लिया गया है। इसी वर्ष उत्तराखंड में प्रस्तावित मठ मंदिर अधिग्रहण प्रस्ताव सरकार को वापस लेना पड़ा है। ऐसा ही कुछ गुजरात में 2011-12 में दोहराया जा चुका है, जब सरकार द्वारा एक ट्रस्ट बनाकर सैकड़ों मंदिरों को अधिग्रहित किया जाना था, किंतु बाद में इसे निरस्त कर दिया गया। वहीं महाराष्ट्र में 2018 में शनि शिंगणापुर मंदिर के मसले पर सरकार मुंहकी खा चुकी है। जबकि राजस्थान की गहलोत सरकार को मेंहदीपुर बालाजी के मुद्दे पर आसपास के सौ गांवों के पंचों का विरोध ङोलना पड़ा।
ऐसे में सवाल यह है कि हिंदू धार्मिक मान्यता और बाहुल्यता वाले राज्यों में इस कानून की क्या जरूरत है? इस मुद्दे को न्याय और भेदभाव से जोड़कर देखने की आवश्यकता है। एक आकलन के अनुसार भारत में प्रति दस हजार लोगों पर एक मंदिर है। ऐसे में सरकारों पर बनाया गया दबाव और न्यायालय का खटखटाया गया द्वार अंतत: न्याय दिलाएगा। ऐसे में दर्शन और सुविधाओं का लाभ सभी को मिले। किंतु व्यवस्थाओं पर अधिकार केवल अनुयायियों का हो। तभी ये देवस्थान धर्म संस्कृति के जागरण और राष्ट्रीयता के पोषण केंद्र हो पाएंगे।
[अध्येता, भारतीय ज्ञान परंपरा]