विश्व पर्यावरण दिवस: विकास के साथ प्रकृति को सहेजने के चुनने होंगे रास्ते
विकासशील देश के गरीबों की हर जरूरत को पूरा करने के लिए विकास अनिवार्य शर्त है। पर्यावरण क्षरण दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में विकास के साथ प्रकृति को सहेजने के रास्ते चुनने होंगे। और वे रास्ते मौजूद भी है।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। धरती पर इंसानियत पनपी तो प्रकृति ने उसे पुष्पित-पल्लवित करने के लिए सभी जरूरी संसाधन पर्याप्त मात्रा में मुहैया कराए। जरूरतें बढ़ीं तो इन संसाधनों पर दबाव बढ़ा। तब भी गनीमत थी, प्रकृति में ऐसी लोच है कि जरूरत पड़ने पर अगर आप उसके किसी संसाधन का अनुपात से अधिक इस्तेमाल कर लेते हो तो कुछ उपायों से आप उसे फिर संतुलित कर सकते हो। लोग ऐसा करते रहे, संसाधनों का संतुलन बरकरार रहा। फिर हुई औद्योगिक क्रांति और जनसंख्या विस्फोट। इस क्रांति ने पश्चिमी देशों में लोभ पैदा कर दिया। वे धरती के संसाधनों का दोहन करने लगे। आर्थिकी के लिए पारिस्थितिकी को तबाह किया गया। कोई संतुलन साधने की जहमत नहीं उठाई गई । कुछ सदियों तक वे प्रकृति के साथ मनमानी करते रहे। अधिक आबादी वाले देश लोगों को रोटी-कपड़ा और मकान मुहैया कराने के लिए प्रकृति को विकृत करते रहे। उसी का फलाफल है कि आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के चपेट में है।
बूंद-बूंद पानी को लोग तरस रहे हैं। जो पानी है वो दूषित हो चुका है। शुद्ध हवा मयस्सर नहीं है। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि लोगों को अब पारिस्थितिकी याद आने लगी है। लेकिन भारत जैसे देश में बड़ी आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास भी बहुत जरूरी है। ऐसे में पारिस्थितिकी और आर्थिकी के बीच संतुलन साधना अपरिहार्य हो चला है। आज असली विकास वही है जिसमें प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंच रहा हो। चुनौती इस बात की है कि इन दोनों के बीच रास्ता कैसे निकाला जाए। आगामी पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। ऐसे मौके पर आर्थिकी और पारिस्थितिकी के बीच संतुलन साधने की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के दुष्परिणामों को जब से वैज्ञानिक मान्यता मिली है, तभी से ये अंतहीन बहस चल रही है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ कैसे किया जा सकता है। जाहिर है, हर विषय की तरह इसके लिए भी दुनिया दोफाड़ है। एक तबका आधुनिक विकास के तौर-तरीकों को सिरे से खारिज करता है तो सरकारों के साथ खड़ा तबका लोगों की जरूरत के लिए येनकेन-प्रकारेण विकास को अनिवार्य बताता है। सरकारें विवश हैं। उन्हें विकास के चमत्कारी आंकड़ों की सीढ़ी से सत्ता की कुर्सी पर चढ़ना होता है। विडंबना तो यह है कि जनमानस भी इसी तरीके के विकास की चकाचौंध से भ्रमित होता दिख रहा है। दुनिया के किसी भी कोने के गांव या शहर हों, लोग इसी तरीके के विकास के पक्षधर हैं।
विकास के इसी सोने के मृग के पीछे भागते- भागते हम लोग उस हालात में पहुंच चुके हैं जहां आबोहवा की दशा-दिशा चहुंओर से हमें घेरने लगी है। सांस लेना दूभर हो रहा है। बवंडरों और तूफानों की रफ्तार तेज होती जा रही है। पानी के लिए गली-मोहल्लों में लड़ाइयां शुरू हो रही हैं। नदी-पोखरों के गायब होने के किस्से बड़ी जगह बना रहे हैं। ऐसे में अब सोचने का नहीं करने का समय आ चुका है। समाज के हर वर्ग के विकास की उस मांग को नकारा नहीं
जा सकता जो हर तरह की आवश्यकताओं से आज भी वंचित हैं। इनकी सड़कें, घरों की छत, बिजली पानी के सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं। बिजली की बढ़ती खपत को भी मना नहीं किया जा सकता क्योंकि इसके तार कहीं समृद्धि से भी जुड़े हैं। जब एक वर्ग हर तरह के ठाट-बाट में जीता हो और दूसरा पूरी तरह से वंचित हो तो फिर सामाजिक संघर्ष के सवाल भी खड़े होते ही हैं।
बड़े रूप में इसे ऐसे भी देख सकते हैं कि अमेरिका जैसे संपन्न देश चीन व भारत को सुझाव देते हैं कि वे अपने उद्योगों पर लगाम लगा लें जबकि वो खुद दुनिया में सबसे बड़े प्रदूषण का कारण बने हैं। अक्सर यही देखा जाता है कि हम या तो विकास के पक्ष पर पर्यावरणविदों को विकास विरोधी मानकर उनकी पैरोकारी को दरकिनार कर देते हैं। वहीं दूसरी तरफ विशुद्ध पर्यावरणविद किसी भी तरह के विकास में जहां पारिस्थितिकी का अहित होता हो उसके बड़े विरोध में खड़े हो जाते हैं। अजीब सी बात है कि दोनों ही पक्ष विकल्पों पर चर्चा नहीं करते। आज तक कभी भी वैकल्पिक विकास पर इन दोनों वर्गों के लोगों ने मिल बैठकर रास्ता खोजने की कोशिश नहीं की। ये तो तय है कि दोनों ही वर्ग आने वाले समय में अपनी इस हठधर्मिता के लिए दोषी ठहराए जाएंगे। एक तरफ अंधे विकास के पक्षधर पृथ्वी और प्रकृति के प्रति उनकी नासमझी को झेलेंगे वहीं दूसरी तरफ घोर प्रकृति प्रेमी संतुलित विकास की पैरोकारी ना करने के लिये दोषी ठहराये जायेंगे।
इस बात को ऐसे समझा जा सकता है। आज ऊर्जा की जरूरत को खारिज नहीं किया जा सकता है। इसके लिए बड़े बांधों की आवश्यकता ही नीतिकारों की समझ का हिस्सा रहती है। वो इससे जुड़े पर्यावरणीय व पारिस्थितिकीय नुकसानों को लाभ की तुलना में कम आंकते हैं। दूसरी तरफ पर्यावरणप्रेमी उसके बड़े विरोध में खड़े होकर अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करते हैं। उन्हें देश की ऊर्जा खपत व आवश्यकता से कुछ भी सरोकार नहीं होता जबकि वे आत्ममंथन कर लें तो वे खुद भी कहीं ऊर्जा खपत के बड़े भागीदार हैं। ऐसे में रास्ता वैकल्पिक ऊर्जा का शेष बचता है। छोटी-छोटी जल विद्युत परियोजनाएं उतनी ही स्थाई और उससे भी ज्यादा ऊर्जा दे सकती है। इससे पारिस्थितिकी के नुकसान को रोका जा सकता है। दूसरा हवा, सौर और अन्य ऊर्जा के विकल्प तैयार किए जा सकते हैं। हर क्षेत्र व देश के ऊर्जा नक्शे पर काम होना चाहिये कि किस स्थान में कहां से ऊर्जा ली जा सकती है।
आज सबसे ज्यादा जरूरत उन विकल्पों को तलाशने की है जो पर्यावरण या प्रकृति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। उदाहरण के लिए, पहाड़ में सड़कों का विकल्प ट्रॉली बन सकती है। जिसके लिए ऊर्जा का प्रबंध छोटे-बड़े जल, सौर ऊर्जा के माध्यम से किया जा सकता है। अगर सड़क लंबी चौड़ी ही बननी हो तो पारिस्थितिकी को जोड़कर ही निर्माण की शर्तें होनी चाहिए। चीन व यूरोप में पारिस्थितिकी को साधते हुए सड़कों के निर्माण का उदाहरण है। किसी भी तरह के बड़े निर्माणों में ऊर्जा और जल की खपत के बचाव का रास्ता सौर ऊर्जा व स्वयं के जल प्रबंधन पर आधारित हो सकता है। इन्हें ग्रीन बिल्डिंग भी कहा जा सकता है। ऐसे ही बड़े उद्योगों को उनकी जल व ऊर्जा की व्यवस्था के लिएबांधा जा सकता है जो वे वर्षा व सूर्य से सीधे जुटा सकते हैं। गर्मियों में तपते घरों का विकल्प एसी ही नहीं होता है। छतों को रिफ्लेक्टिव शीट व सौर पैनलों से ढककर जहां एक तरफ तपन कम की जा सकती है, वहीं सौर पंखों से काम चल जायेगा। छोटी दूरी के लिए साइकिल और लंबी दूरी के लिए सार्वजनिक परिवहन पारिस्थितिकी से तारतम्य साधेंगे।
हर जरूरत की पूर्ति के लिए प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हुई चीजें मौजूद हैं। फ्रिज का बेहतर विकल्प सुराही और जीरो ऊर्जा चैंबर हो सकते हैं। ये न तो बिजली की खपत करते हैं और न ही खतरनाक गैसों का उत्सर्जन करते हैं। तमाम तरीके के इलेक्ट्रॉनिक गैजेट ऊर्जा खपत की बड़ी वजह बन रहे हैं। इनके इस्तेमाल पर स्वनियंत्रण जरूरी है। छोटे छोटे प्रयोगों से आपूर्ति का विकल्प निकल सकता है। जैसे फाइन चारकोल वाले वाटर फिल्टर की जगह परंपरागत कोयला, बजरी व रेत के फिल्टर उपयोगी हो सकते हैं। जिस तरह से परिस्थितियां बदल रहीं हैं उसको देखते हुए ऊर्जा खपत के विकल्पों से समझौते करने ही पड़ेंगे। विकास बनाम पारिस्थितिकी की बहस पर विराम लगाने का भी समय है। ऐसे में हमें अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और विकास के मध्य मार्ग पर चिंतन करना चाहिए।