आइआइटी इंजीनियर संग वर्ल्ड टूर पर जाने को तैयार महुआ, टकीला की तलाश इस पर आकर थमी
डेसमंड का मानना है सिर्फ शराब ही नहीं महुआ के बहुत से औषधीय गुण भी हैं। इस पर शोध के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान की जरूरत है। इससे बनने वाली चीजों को अंतरराष्ट्रीय बाजार मिलेगा तो आदिवासियों को प्रशिक्षित कर उन्हें आगे लाया जा सकता है।
रुमनी घोष, नई दिल्ली: शराब निर्माण भी अपने आप में एक शिल्प है। भारत को पहली बार यह बताने वाले डेसमंड नैजरथ इन दिनों 'महुआ' को वैश्विक पहचान दिलाने की तैयारी में हैं। उन्होंने इस अभियान को नाम दिया है 'महुआ टू द वल्र्ड'। महुआ से देशी शराब के निर्माण की विधि व अधिकार दोनों ही आदिवासियों के पास हैं, लेकिन उसे अंतरराष्ट्रीय मानकों केआधार पर तैयार कर विश्व बाजार में ले जाने की पहल अब तेज हो गई है। एक विशेष बात यह है कि यह दुनिया की एकमात्र ऐसी शराब है जो फूलों से बनती है। अन्य शराब मुख्यत: फल से बनती हैं।
लंबे शोध के बाद पाई सफलता: लगभग 18 वर्ष से गोवा में रह रहे नैजरथ की पहचान भारत के क्राफ्ट डिस्टिलरी संचालक के रूप में होती है। यानी वह ऐसे शराब निर्माता हैं जो नई सामग्री की तलाश, प्रयोग, स्वाद, पारदर्शिता और शराब की उम्र बढ़ाने के क्षेत्र में लगातार अनुसंधान करते रहे हैं। 'दैनिक जागरण' से फोन पर उन्होंने बताया लंंबे शोध के बाद वर्ष 2018 में हमने 'महुआ लिकर' लांच कियाा। तत्काल हमें विदेश से एक आर्डर मिला। इसके पहले कि हम आपूर्ति की स्थिति में आ पाते, कोरोना संक्रमण के कारण पूरी प्रक्रिया थम गई। अब दोबारा प्रक्रिया शुरू हुई है।
एक अमेरिकन कंपनी के साथ मिलकर हम 'महुआ लिकर' को अंतरराष्ट्रीय बाजार में ले जाने की तैयारी में हैं। 65 वर्षीय नैजरथ आइआइटी मद्रास से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर अमेरिका चले गए थे। वह वर्ष 2000 में भारत लौटकर आए और तभी महुआ की शराब को पहचान दिलाने का विचार उनके मन में आया। डेसमंड वर्ष 2013 से ही महुआ से अंतरराष्ट्रीय स्तर का पेय पदार्थ बनाने पर शोध कर रहे थे। इसमें उन्हें 2018 में सफलता मिली।
टकीला की तलाश 'महुआ' पर आकर थमी: डेसमंड कहते हैं चूंकि जियो आइडेंफिकेशन (जीआइ) टैग की वजह से टकीला को भारत में नहीं बनाया जा सकता था, इसलिए मैं उसी तरह के एक ड्रिंक की तलाश में था, जो भारत में बन सके। रामबांस (अगेवा) और गन्ना आदि से अल्कोहल बनाया। आखिरकार महुआ की शराब पर आकर यह तलाश थमी। लगभग हर देश के पास अपना हैरिटेज ड्रिंक है, मैक्सिको का टकीला, फ्रांस की शैंपेंन, स्काटलैंड की स्काट व्हिस्की तो हमारे पास ऐसा कोई ड्रिंक क्यों नहीं है?
2,500 करोड़ रुपये का हो सकता बाजार: महुआ ही क्यों? यह पूछने पर नैजरथ बताते हैं भारत में 13 राज्यों में महुआ मिलता है। हमारे देश में औसतन पांच लाख टन महुआ का उत्पादन प्रतिवर्ष होता है। यदि इसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंचा सकें तो यह लगभग 2,500 करोड़ रुपये तक का होगा।
अलग से आबकारी नीति और कर का सुझाव: आंध्र प्रदेश में डिस्टिलरी और गोवा में बाटलिंग प्लांट का संचालन करने वाले डेसमंड ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप महुआ की शराब बनाने के बाद उसे बाजार तक लाने में कई कानूनी बाधाओं से गुजरना पड़ा। उन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए मैंने महुआ से बनने वाली शराब के लिए अलग से आबकारी नीति और कर नीति पर राज्यों को सुझाव दिया है। इससे चोरी-छिपे कारोबार करने की मजबूरी खत्म होगी और राज्यों को आमदनी भी होगी। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और ओडिशा ने इस बारे में पूछताछ भी शुरू की है।
आदिवासियों के लिए बन सकता बड़ा अवसर: इतना बड़ा बाजार होने के बाद भी महुआ के बारे में न सरकारें नीति बना रही हैं, न ही आदिवासी इसके बारे में खुलकर बात करते हैं। यह छिपाने का नहीं बल्कि विश्व को इसके बारे में बताने का समय है। महुआ पर आदिवासियों के हर अधिकार को सुरक्षित करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में लाने की जरूरत है। आदिवासी सिर्फ सीमित मात्रा में ही देशी शराब का उत्पादन क्यों करें? वह भी प्रशिक्षित होकर अपनी डिस्टिलरी क्यों नहीं खोल सकते हैं?