बेलगाम होते साइबर अपराध पर नियंत्रण, तकनीकी समझ से समस्या का समाधान
पुलिस साइबर अपराधों से निपटने में बेहतर रूप से भले ही सुसज्जित हो गई हो लेकिन देश में साइबर अपराध दोष-सिद्धि अनुपात खराब बना हुआ है। इसके अपराधी नाम बदलकर नए नए तरीके अपनाकर जालसाजी को अंजाम देते हैं।
शंभु सुमन। तेजी से बढ़ते आनलाइन कामकाज, आम नागरिकों समेत पुलिस तक में जागरूकता और तकनीक की जानकारी के अभाव, छिपी हुई यूजर पालिसी, साइबर क्राइम मामले में जांच की मुश्किलें और डाटा सुरक्षा कानून नहीं होने के चलते डिजिटल अपराध में वृद्धि हो रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार बीते एक दशक में राष्ट्रीय स्तर पर साइबर क्राइम में सालाना छह प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है। यह हमारे लिए एक बड़ी चिंता का विषय है।
इंटरनेट और टेक्नोलाजी से लैस नई डिजिटल दुनिया में अनचाहे काल, अनजाना मैसेज, अवांछित ईमेल, अपिरिचत फ्रैंडशिप रिक्वेस्ट लोगों को डराने लगे हैं। ऐसे ही अनर्गल मीम्स, अननेचुरल पिक्चर, वीडियो, लाटरी, बिजनेस गेम, डिस्काउंट लिंक, आफर वाले तमाम एप और गैर जरूरी बैंकिंग इनफार्मेशन के जाल में लोग आसानी से फंसाए जा रहे हैं, जबकि आनलाइन कामकाज दिनों-दिन मुश्किल होता जा है। छोटी-बड़ी खरीदारी से लेकर रकम के ट्रांजेक्शन, बात-बात पर सूचना-संपर्क और जानकारी जुटाने के लिए आनलाइन या लाइव होना रोजमर्रा की आवश्यकताओं में शामिल हो चुका है। इसी के साथ साइबर अपराध की आशंकाएं भी फन फैलाए हुए है। इनसे बचाव के लिए किए गए उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं।
आनलाइन क्षेत्र में सुविधाएं और सुरक्षा देने वाली नई टेक्नोलाजी को अपनाते ही साइबर अपराधी भी उसके अनुरूप जालसाजी के नए तरीके विकसित कर लेते हैं। वे डाटा प्रोटेक्शन कानून के नहीं होने और तकनीकी जांच में कमी का फायदा उठाते हैं। सरकारें भी इसे लेकर लोगों को केवल जागरूक रहने के लिए विज्ञापन देने तक ही जिम्मेदारी निभा पा रही हैं। दुष्परिणाम : अब जो दुष्परिणाम आया है उसकी भयावहता से केंद्र सरकार के भी हाथ-पांव फूलने लगे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक साइबर क्राइम के तेजी से बढ़ते आंकड़े खतरे की लकीर पार करने की चेतावनी देते हैं।
बीते एक दशक के दरम्यान उसमें हुई बेतहाशा वृद्धि की वजह से साल 2021 में साइबर क्राइम के 52,974 मामले दर्ज किए गए, जो एक साल पहले की तुलना में लगभग छह प्रतिशत अधिक है। एनसीआरबी के राज्यवार आंकड़ों के अनुसार तेलंगाना 19 प्रतिशत की अधिकता के साथ इस मामले में राज्यों के चार्ट में सबसे ऊपर है। इस मामले में एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि वास्तव में घटित होने वाले अपराध के केवल एक तिहाई मामले ही पुलिस में दर्ज होते हैं। यानी इस तरह के हो रहे अपराध की तुलना में चार्जशीट रेट और रिपोर्ट रेट भी काफी कम है। लोग अपने साथ हुई घटना की रिपोर्ट नहीं करते हैं या फिर उनकी सुनवाई नहीं होती है।
इंटरनेट की नई दुनिया की उपज साइबर क्राइम को साइबरबुलिंग, फिशिंग, यौन शोषण, जबरन वसूली और हैकिंग जैसे धोखाधड़ी की चर्चा तो होती है, लेकिन इससे निजात दिलाने के लिए तकनीकी इंतजाम नहीं के बराबर हैं। इसे हाल के कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। फर्जी लोन एप, गेमिंग एप और बिजनेस एप के जरिए जब लाखों लोगों का डाटा चोरी का मामला आया, तब साइबर सेल ने कार्रवाई करते हुए अपने अधिकार क्षेत्र के अनुसार 255 एप हटवा दिए। जबकि पुलिस सूत्र का कहना है कि गूगल प्लेटफार्म पर उनके डिलीट किए जाने के बावजूद कई एप फिर से नाम बदलकर एक्टिव हो जाते हैं। इसे देखते हुए पुलिस ने भले ही बिजनेस गेम, डिस्काउंट लिंक जैसे एप से सावधान रहने की हिदायत दी हो, लेकिन गूगल प्लेटफार्म के जरिए आने वाले ऐसे एप को रोका जाना उनके वश की बात नहीं है। कारण नए एप बनाने के रेडीमेड साफ्टवेयर टैंपलेट बिजनेस पोर्टल पर फ्री ट्रायल सर्विस के साथ उपलब्ध हैं। मामूली पैसा खर्च से उनकी सर्विस लेकर कोई भी मिनटों में नया एप बना सकता है। दूसरी तरफ गूगल अपने प्ले स्टोर पर उन्हें चलाने के लिए दोनों हाथ फैलाए रहता है। उसे बदले में मिलने वाले फीस से मतलब है, जबकि इसका अिधकांश खेल चीन से होता है। साइबर अपराध शाखा की पुलिस के अनुसार चोरी किया गया डाटा चीन के सर्वर में छिपा लिया जा सकता है, जिसमें ओटीपी और दूसरे पासवर्ड और पिन नंबर तक हो सकते हैं।
अक्सर संदिग्ध एप लोगों को वाट्सएप, टेलीग्राम, ग्रुपिंग एप या आफलाइन के मैसेजिंग बाक्स में लिंक मैसेज से मिलते हैं। उसे डाउनलोड करते समय इंस्टालेशन फाइल गूगल के सर्वर पर ले जाती है। वहीं से यूजर का मोबाइल कनेक्ट हो जाता है। एप डाउनलोड करने से पहले ही डाटा लेने का एक मैसेज आता है। एप उस विकल्प को स्वीकार करने के बाद ही अगले चरण की ओर आगे बढ़ता है। इसके लिए दिए गए पालिसी को लोग अमूमन नहीं पढ़ते हैं, जो लंबा और उलझा होता है। परंतु ये एप ओटीपी को पढ़ लेते हैं। यानी एसएमएस की जानकारी भी एप को होती है। उसके बाद मोबाइल की ट्रैकिंग आसान हो जाती है। सर्च पर गूगल की-वर्ड के स्टोर के होते ही मोबाइल की लोकेशन, ट्रांजेक्शन नजर में आ जाता है। साइबर क्राइम पर अंकुश लगाने की यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि मोबाइल डाटा चुराकर साइबर जालसाज न केवल निजी फोटो या वीडियो को वायरल कर सकता है, बल्कि हैकिंग करके वसूली भी कर सकता है। बचाव के तौर पर दी जाने वाली हिदायतों में गैर जरूरी एप को डाउनलोड करने से बचना, बैंक कम्युनिकेशन की आइडी को अलग रखना समेत डाउनलोड डाक्यूमेंट्स को रिसाइिकल बिन से भी डिलीट करना आिद महत्वपूर्ण है।
दिन-प्रतिदिन बढ़ते साइबर क्राइम के आतंक से निबटने के लिए इसे न केवल गंभीर मुद्दे के तौर लेना होगा, बल्कि तकनीक की समझ के लिए लोगों को जागरूक करने और उसकी कमी को दूर करना होगा। इस संबंध में एक सख्त कानून बनाने की भी जरूरत है। भारत में जो कानून बने हैं उसके मुताबिक किसी के सिस्टम से निजी या गोपनीय डाटा या सूचनाओं की चोरी को अपराध माना गया है। इसके लिए आइटी (संशोधन) कानून 2008 की धारा 43 (बी), धारा 66 (ई), धारा 67 (सी), आइपीसी की धारा 379, 405, 420 और कापीराइट कानून है। इसके दोष साबित होने पर तीन साल की सजा या दो लाख रुपये तक जुर्माना है।
अब पुलिस के सामने मुश्किल यह है िक डाटा चुराने वाला किसी दूसरे देश से संचालित सिस्टम के साथ छिपा होता है। यहां पुलिस के जो सामने आता है, उनमें आइटी कंपनियां होती हैं। उन पर कार्रवाई करने से कुछ भी हाथ नहीं लगता है, क्योंकि वे अपने बचाव के सारे तकनीकी इंतजाम के साथ सेवाएं देती हैं। डाटा सुरक्षा के लिए विदेशी कंपनियों को मोटी फीस देकर वे उनकी सेवाएं लेते हैं। यहां तक कि बाहरी सर्वर पर ही उनका सारा कामकाज चलता है। इस लिहाज से उनके काम को गैरकानूनी नहीं ठहराया जा सकता है। उनकी सेवा विदेशी सर्वर की नीतियों के साथ जुड़ी होती हैं। यहीं पर आइटी क्षेत्र के लिए आवश्यक सर्वर टेक्नोलाजी और डाटा सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम में हमारा पिछड़ा होना साफ नजर आता है। आज डिजिटल क्षेत्र में हमारी निर्भरता अमेरिकी कंपनियों पर बनी हुई है। यहां चौंकाने वाली बात यह भी है कि अमेरिका की हजारों बड़ी आइटी कंपनियों की निगाह भारत पर टिकी हुई है। यहीं से उनका बिजनेस चलता है। उनके तकनीकी कर्मचारियों में भारतीयों की संख्या भी काफी अधिक है। ऐसे में भारत में गूगल जैसे प्लेटफार्म का सपना देखना बेमानी लगता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि इस कारण भी हमारी पुलिस साइबर क्राइम के छोटे तालाब की मछली तक को नहीं पकड़ पा रही है। उनके लिए साइबर मामलों को सुलझाने में अधिकार क्षेत्र बड़ी बाधा बनती है। जिससे साइबर ठग के सजा की दर काफी कम है। उदाहरण के लिए तेलंगाना में रिपोर्ट किए गए अधिकांश मामलों में आरोपी बंगाल, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्यों के होते हैं। स्थानीय स्तर पर इन्हें नियंत्रित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। वहां जाना और उन्हें पकड़ना भी आसान नहीं है। ऐसा तेलंगाना की पुलिस का कहना है। साइबर विशेषज्ञों के अनुसार इस तरह के मुद्दे साइबर क्राइम को अपराधी से जोड़ना मुश्किल बना सकते हैं। अक्सर भारत के बाहर सर्वर की सर्विस देने वाली कंपनियों से इलेक्ट्रानिक लाग प्राप्त करना आवश्यक होता है। उनसे इस जानकारी को हासिल करना एक राज्य स्तरीय पुलिस के लिए आसान नहीं है।
पुलिस साइबर अपराधों से निपटने में बेहतर रूप से भले ही सुसज्जित हो गई हो, लेकिन देश में साइबर अपराध दोष-सिद्धि अनुपात खराब बना हुआ है। इसके अपराधी नाम बदलकर नए नए तरीके अपनाकर जालसाजी को अंजाम देते हैं। हालांकि पुलिस का दावा है कि साइबर अपराधों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाकर उसमें कमी लाई जा सकती है। जबकि भारत सरकार ने इसके खिलाफ कदम उठाते हुए एक वेबसाइट शुरू की है। वहां जाकर आनलाइन धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज की जा सकती है। यह पोर्टल साइबर अपराध की शिकायतों की आनलाइन रिपोर्ट करने के लिए है, जहां पीड़ितों या शिकायतकर्ताओं को मदद उपलब्ध कराई जाएगी। यहां दर्ज की गई शिकायतों को संबंधित राज्य की पुलिस, राजकीय या केंद्रीय कानूनी एजेंसियों की ओर से दी गई सूचनाओं के आधार पर निपटाया जाता है। ऐसे मामलों में त्वरित कार्रवाई के लिए शिकायत दर्ज करते समय सटीक जानकारी देना जरूरी है। सूचनाएं सही हों तो जांच एजेंसियों को अपराधी तक पहुंचने में मदद मिलती है। इसके लिए तमाम विभागों के बीच समन्वय का प्रयास किया जा रहा है।
[तकनीकी मामलों के जानकार]