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लोक सेवकों के करीबियों के पास आए दिन बड़ी मात्रा में नकदी बरामद होने से प्रशासनिक शुचिता पर उठते सवाल

भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी पूजा सिंघल पर भ्रष्टाचार के आरोप से संबंधित हालिया मामला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था सत्ता के गलियारों में या प्रशासन में लोगों को सही मायने में उत्तरदायी और जवाबदेह बनाने में सक्षम हो पाई है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 23 May 2022 11:30 AM (IST)Updated: Mon, 23 May 2022 11:30 AM (IST)
लोक सेवकों के करीबियों के पास आए दिन बड़ी मात्रा में नकदी बरामद होने से प्रशासनिक शुचिता पर उठते सवाल
लोक सेवकों के करीबियों के पास बड़ी मात्रा में नकदी बरामद होने से प्रशासनिक शुचिता पर उठते सवाल। प्रतीकात्मक

सीबीपी श्रीवास्तव। आइएएस अधिकारी पूजा सिंघल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद भ्रष्ट आचरण का मामला आजकल सुर्खियों में है। वैसे भ्रष्टाचार कोई नई घटना नहीं है। कारण यह कि भ्रष्टाचार किसी व्यक्ति के व्यवहार में वह विचलन है जो उसे सार्वजनिक वस्तुओं का व्यक्तिगत लाभ लेने के लिए प्रेरित करता है। सिविल सेवा को ‘स्टील फ्रेम’ सेवा माना जाता है और यह औपनिवेशिक काल की विरासत है। हालांकि हमने स्वतंत्रता के बाद नीति निर्माण के संदर्भ में बड़े परिवर्तन किए तथा इसे अपेक्षाकृत और अधिक लोकतांत्रिक बनाने का प्रयास भी किया, फिर भी, ऐसे नीतिगत परिवर्तनों को प्रक्रिया सुधारों से आवश्यक समर्थन नहीं मिला, जिस कारण यह सिविल सेवा की संपूर्ण कार्यात्मक संरचना में प्रभावी परिवर्तन नहीं ला सका। और यह सही अर्थ में नागरिक केंद्रित नहीं बन सका। यही कारण है कि आज एक सामान्य धारणा प्रचलित है कि भारत में सिविल सेवक अनम्य और अंतर्मुखी होते हैं जो उन्हें समाज के प्रति असंवेदनशील बनाते हैं और उनमें सेवा दृष्टिकोण की कमी होती है।

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जब 1887 में एक ब्रिटिश अधिकारी ने कहा था, ‘निरपेक्ष शक्ति निरपेक्ष रूप से भ्रष्ट बनाती है’, तब उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि प्राधिकार का परिसीमन ही नागरिक-केंद्रित प्रशासन की कुंजी है। ध्यातव्य हो, ऐसे ही परिसीमन को संविधानवाद कहा जाता है जिसके अनुसार राज्य को स्वेच्छाचारी होने से रोकने के लिए उसकी शक्तियों के प्रयोग की सीमा का निर्धारण अनिवार्य होता है। हालांकि भारत का संविधान पूर्णत: संविधानवादी है और जैसा आवश्यक है वैसा परिसीमन भी किया गया है, लेकिन समस्या यह है कि इसकी वास्तविक जागरूकता न तो नागरिकों को है और न ही अधिकांश अधिकारियों को। अगर यह मान भी लिया जाए कि अधिकारियों में यह जागरूकता अपेक्षाकृत अधिक है, फिर भी नैतिक और आचार संहिताओं के अभाव में उनके कृत्यों पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं होता और इसके फलस्वरूप वे अधिकांश अवसरों पर अपनी शक्तियों का स्वेच्छाचारी प्रयोग करते हैं।

जनता के प्रति जवाबदेही : जहां तक अधिकारियों के आचरणों को निर्देशित करने का प्रश्न है, वर्तमान में केंद्रीय सिविल सेवाएं (आचरण) नियमावली 1964 और अखिल भारतीय सेवाएं (आचरण) नियमावली 1968 प्रभावी हैं। इनका निर्माण भ्रष्टाचार पर 1964 में गठित संथानम समिति की रिपोर्ट और संविधान के अनुच्छेद 309 के उपबंधों के आधार पर किया गया है। इनके प्रभावित नहीं होने के पीछे के कारणों की समझ के लिए यह जानना आवश्यक है कि शासन में नैतिकता के ऐसे कौन से अवयव समाहित किए जाएं जिनसे अधिकारियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के साथ-साथ उनमें सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के गुणों का विकास किया जा सके।

सामान्यत: यह देखा गया है कि किसी व्यक्ति का आचरण उसके चरित्र से निर्देशित होता है जो मूल्यों का एक समुच्चय है। कई अवसरों पर आचरणों को नैतिक बनाकर भी चरित्र में आवश्यक परिवर्तन लाए जा सकते हैं। ये दोनों कार्य क्रमश: व्यक्ति की नैतिक जवाबदेही या विधिक जवाबदेही से नियमित होते हैं। आचरण संहिता में जो एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात शामिल है, वह यह कि विवेकाधिकारों पर अंकुश लगाया जाना अनिवार्य है। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी अधिकारी इनका दुरुपयोग करते हैं। वस्तुत: हाल के दशकों में प्रशासनिक जटिलताओं में जिस प्रकार वृद्धि हुई है उनके परिप्रेक्ष्य में विवेकाधिकार अत्यंत कारगर सिद्ध होते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में संलिप्त अधिकारियों द्वारा इनके दुरुपयोग की आशंका अत्यधिक होती है। कदाचित इसी पृष्ठभूमि में वर्ष 2005 में वीरप्पा मोईली की अध्यक्षता में गठित द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी विवेकाधिकारों को समाप्त करने की सिफारिश की है। आयोग ने तो यहां तक कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 311 को निरस्त कर दिया जाना चाहिए जिसमें अधिकारियों को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हैं। प्रशासनिक सुधार आयोग ने यह भी कहा है कि विवेकाधिकारों से एकाधिकार उत्पन्न होता है और यदि जवाबदेही का अभाव हो तो यह भ्रष्टाचार को जन्म देता है। ऐसे में अधिकारियों के आचरणों को नीतिपरायण बनाने के लिए नैतिक संहिता का निर्माण उसका पहला चरण होगा।

विवेकाधिकार और स्वेच्छाचार : मंत्रियों, विधायिका के सदस्यों और प्रत्येक स्तर पर अधिकारियों के कार्यों, शक्तियों और उत्तरदायित्वों का उल्लेख कारगर सिद्ध हो सकता है। कई अवसरों पर इसके अभाव में अनजाने में भी उनके द्वारा स्वेच्छाचारी कार्य हो जा सकते हैं। विवेकाधिकारों को पूर्णत: समाप्त नहीं कर उनके प्रयोग को संविधान या विधि के तहत तर्कसंगत बनाए जाने वाले उपबंध किए जाने चाहिए। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने ब्रिटेन की भांति भारत में भी एक नैतिक आयुक्त कार्यालय को लोकसभा/ विधानसभा से संबद्ध करने की सिफारिश की थी जो मंत्रियों और विधायिका के सदस्यों की जवाबदेही बढ़ाने में कारगर होगी। वर्ष 2008 में न्यायमूर्ति जगन्नाथ राव की अध्यक्षता वाली एक समिति ने न्यायिक प्रभाव मूल्यांकन की संकल्पना को लागू करने पर बल दिया था। समिति ने कहा था कि महज कानूनों का निर्माण न्याय नहीं दिला सकता, क्योंकि इनसे न्यायपालिका पर कार्य बोझ बढ़ता है और वित्तीय अपर्याप्तता भी होती है। अत: कानून का निर्माण करने के पूर्व उसके वित्तीय और न्यायिक प्रभावों के आकलन के लिए वित्त आयोग के अध्यक्ष तथा देश के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाना उचित होगा। चूंकि न्याय में विलंब स्वयं ही भ्रष्टाचार बढ़ाने वाला एक बड़ा कारण है।

सत्यनिष्ठा का ऊंचा स्तर : कुल मिलाकर शासन की प्रत्येक इकाई में सुधार करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रणालियों में नैतिकता के स्तर में गिरावट हुई है, उसमें यदि तत्काल सुधार नहीं किया गया तो भारत जैसे संविधानवादी लोकतांत्रिक देश में भी राज्य-नागरिक संबंधों को सुदृढ़ आधार नहीं किया जा सकेगा। इस दिशा में सबसे पहला कदम विधायिका के सदस्यों के साथ-साथ अधिकारियों के लिए नैतिक और आचरण संहिताओं का निर्माण होगा। इन संहिताओं में एक महत्वपूर्ण आयाम विवेकाधिकारों को सीमित करना सर्वथा उपयोगी होगा। पहली पंचवर्षीय योजना के छठे अध्याय के पैरा सात में योजना आयोग ने यह टिप्पणी दी थी कि ऐसा कोई भी अधिकारी, जो ईमानदार न हो, ऐसे पद पर न रखा जाए, जहां पर विवेकाधिकार की काफी गुंजाइश हो। जिम्मेदारी वाले पदों पर पूर्व अधिकारी की ईमानदारी तथा निष्पक्षता से संबंधित सभी बातों पर विचार किया जाए। नि:संदेह यह कोई नया सिद्धांत नहीं है, और यह सर्वथा अपेक्षा की गई है कि तैनाती और पदोन्नति करने वाले संबंधित अधिकारी इसका सामान्य रूप से पालन करें।

प्रक्रियात्मक सुधारों पर दिया जाए जोर : कोई अधिकारी भ्रष्टाचार के लिए कब और क्यों प्रेरित होता है? निश्चित रूप से इसका एक बड़ा कारण राजनीति में भ्रष्टाचार का होना भी है। राजनीतिक कार्यपालिका (मंत्री परिषद) तथा स्थाई कार्यपालिका (अधिकारी तंत्र) के बीच गहरा कार्यात्मक संबंध है। ये दोनों क्रमश: नीति निर्माण और नीति क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी हैं। ऐसे में दोनों के बीच परस्पर सहयोग और समन्वय अनिवार्य है। यदि राजनीतिक नैतिकता का स्तर निम्न होता है तो स्वाभाविक रूप से अधिकारियों में भ्रष्टाचार की भावना प्रबल होती है, क्योंकि उन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो जाता है। दूसरा कारण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़ा है। पिछले दो दशकों में बाजार की शक्तियों के प्रबल हो जाने के कारण पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति का व्यापक प्रसार हुआ है।

यहां यह उल्लेख करना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऐसा उपभोक्तावाद व्यक्तिवादिता को जन्म देता है, क्योंकि बाजार में व्यक्ति उपभोक्ता के रूप में विद्यमान है। यही व्यक्तिवादिता स्वार्थी बनाने वाला एक बड़ा कारण है। स्वार्थ से प्रेरित किसी अधिकारी के लिए अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सार्वजानिक वस्तुओं का निजी लाभ लेना सरल है। अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि बाजार के प्रसार ने यदि आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो इसे रोकना क्या उपयुक्त होगा? इसका उत्तर निश्चित रूप से यह है कि भारत का संविधान जिस प्रकार संसाधनों के वितरण के लिए राज्य को उत्तरदायी बनाता है, उसके लिए संसाधनों का सृजन अनिवार्य है और यह कार्य सरलतापूर्वक बाजार से लाभ लेकर किया जा सकता है। ऐसे में बाजार के प्रसार को रोकना किसी भी स्थिति में उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन अधिकारियों में इसके कारण उत्पन्न व्यक्तिवादिता और उससे निर्देशित भ्रष्टाचार को रोकने में उनके लिए नैतिक संहिता और उसके अनुरूप आचरण संहिता का निर्माण अपरिहार्य है। इसी प्रकार, राजनीति में भी ऐसी संहिताएं उपयोगी सिद्ध होंगी। केवल शासन या प्रशासन की नियमावलियों या नीतिगत परिवर्तनों से हम भ्रष्टाचार पर काबू नहीं पा सकते जब तक कि प्रक्रियात्मक सुधारों पर बल नहीं दिया जाए और जब तक उन्हें जवाबदेह बनाने वाले कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं किया जाए। विधि के शासन, विशेषकर सम्यक विधि प्रक्रिया पर बल दिया जाना चाहिए, ताकि न्यायालयों द्वारा बदलते परिवेश में नए अधिकारों की पहचान कर उनके संरक्षण की प्रक्रिया से भी राज्य को अवगत कराया जा सके।

पिछले दो दशकों में न्यायपालिका ने अपनी इस भूमिका का निर्वाह बखूबी किया है और अपनी सक्रियता के जरिये राज्य को अधिक जवाबदेह बनाया है, लेकिन अब भी कई बड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है। नैतिक संहिताओं के निर्माण के लिए व्यापक अनुसंधान करना आवश्यक है और पारिवारिक स्तर से ही व्यवहार में परिवर्तन लाने वाले कार्यों पर बल देना आवश्यक है। इस दिशा में महाराष्ट्र सरकार का सभी विद्यालयों में भारत के संविधान का परिचय पाठ्यक्रम में शामिल करने वाला निर्णय सराहनीय है। इससे हम आरंभ से ही नैतिकता और व्यावहारिकता का समन्वय कर पाने में सफल हो सकेंगे।

[अध्यक्ष, सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली]


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