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धर्म के स्वर शांति और सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने वाले होने चाहिए

स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के दौर में हमने गांधी से बहुत कुछ सीखा है। अब हम स्वतंत्रता के अमृत काल में प्रवेश कर चुके हैं और साथ ही गांधीजी की जयंती मनाने की तैयारी में भी जुटे हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 16 Sep 2022 03:46 PM (IST)Updated: Fri, 16 Sep 2022 03:46 PM (IST)
सार्वजनिक जीवन में रचनात्मक धार्मिक आचरण। प्रतीकात्मक

विमल कुमार। भारत धार्मिक बहुलता का समाज है। भारतीय समाज में धर्म को लेकर नए विमर्श, गतिरोध और उत्सवधर्मिता निरंतर जारी रहती है। धर्म किसी के लिए जीवन जीने का माध्यम साबित हो रहा है तो किसी के लिए अफीम भी जो कि आधारभूत प्रश्नों पर निश्चेतक की तरह पहरेदारी भी करता है। जब भी धर्म और राजनीति की बात आती है तो महात्मा गांधी बरबस याद आ जाते हैं। धर्म, राजनीति और सत्याग्रह पर विचार और सत्य की जमीन पर इनका अनुप्रयोग ही गांधी से महात्मा बनने की यात्रा की कहानी है। वर्तमान में धर्म और राजनीति के संबंध को गांधी की दृष्टि से देखने और जारी गतिरोधों को हल करने की दिशा में गांधी से न केवल एक नवीन दृष्टि प्राप्त होती है, बल्कि एक नए मार्ग का सृजन भी हो सकता है।

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आज धर्म से संबंधित अनेक चर्चाएं सतही शोर में तब्दील होती जा रही हैं। इस शोर में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, नागरिक अधिकार और आमजन के विकास से संबंधित मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गए हैं। तथाकथित जागरूक भारतीय समाज आधारभूत आवश्यकताओं के बजाय सनसनीखेज शोर के माध्यम से ही एक सतही ऐतिहासिक दृष्टि का प्रतिपादन करने में व्यस्त है। 

ऐसे में वर्तमान दौर में महात्मा गांधी का जीवन और दर्शन न केवल धर्म, बल्कि राजनीति के लिए भी एक सीख है। दरअसल गांधी के लिए धर्म का मतलब इस बात से था कि कोई व्यक्ति अपनी जिंदगी किस तरह जिए, न कि इस बात से कि वह किस पर आस्था रखता था। धर्म का संबंध जागृत आस्था से था। गांधी के लिए धर्म का मर्म नैतिकता थी। उनका धर्म से अभिप्राय नैतिकता के उन आधारभूत नियमों से था, जिन्हें सभी धर्मों तथा धर्मानुयायियों ने स्वीकार किया है।

गांधी धर्म का प्रयोग राजनीति को भ्रष्ट होने से रोकने के लिए करते हैं। जहां तक धर्म और राजनीति तथा धार्मिक संगठनों एवं राज्य के परस्पर संबंधों का प्रश्न है, गांधी धर्मप्रधान अथवा धर्मविहीन राज्य के बजाय धर्मनिरपेक्ष राज्य के पक्षधर थे। वह नहीं चाहते थे कि राज्य धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव करे। गांधी यही मानते थे कि धार्मिक संगठनों व राज्य दोनों का कार्यक्षेत्र एक दूसरे से अलग है, इसलिए आम तौर पर न तो राज्य को लोगों के धार्मिक मामलों में दखल देना चाहिए और न ही धार्मिक संगठनों को राजनीति में। इस प्रकार से गांधी राजनीति के आध्यात्मिकीकरण तथा धर्मनिरपेक्षीकरण दोनों के पक्षधर थे। गांधी की धर्मनिरपेक्षता नकारात्मक के बजाय सकारात्मक है जो कि भारतीय संविधान की भी एक विशेषता है।

गांधी की धार्मिक दृष्टि बहुत व्यापक थी। वह हिंदू धर्म की संसार के प्रति अनासक्तता और जीवन की एकात्मकता का भाव ग्रहण करते हैं। गांधी जैन और बौद्ध धर्म के सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह के भाव को अपने दर्शन का आधार बनाते हैं। यदि हम सार्वजनिक जीवन में गांधी के धार्मिक आचरण को ही देखें तो गांधी का प्रार्थना का अपना स्वरचित तरीका था।

गांधी की प्रार्थना सभाओं में कभी किसी छवि या मूर्ति का इस्तेमाल नहीं होता था और यह किसी विशेष स्थान पर नहीं, बल्कि अक्सर खुले आसमान के नीचे आयोजित होती थी। विभिन्न धर्मों के भक्ति गीत और विभिन्न पवित्र पुस्तकों का पाठ उनकी प्रार्थना सभाओं का प्रमुख अंग था। गांधी अक्सर अपनी प्रार्थना सभाओं में कोई अनावश्यक उपदेश देने के बजाय लोगों को लोक कल्याण के मसलों पर संबोधित किया करते थे।

गांधी सदैव सांप्रदायिक एकता कायम रखने के लिए प्रयासरत रहे। आज धर्म या राजनीति प्रत्येक नागरिक को एक आयामी बनाने पर तुले हुए हैं, जबकि भारतीय समाज की मुख्य पहचान इसकी विविधता है। संक्रमण के इस दौर में महात्मा गांधी का जीवन और चिंतन भारतीय समाज के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि गांधी भारत की समावेशी चिंतन परंपरा के न केवल प्रतिनिधि हैं, बल्कि सहिष्णुता की संस्कृति के वाहक भी।

स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के दौर में हमने गांधी से बहुत कुछ सीखा है। अब हम स्वतंत्रता के अमृत काल में प्रवेश कर चुके हैं और साथ ही गांधीजी की जयंती मनाने की तैयारी में भी जुटे हैं। ऐसे में हमें गांधी से यह सीख लेने की जरूरत है कि धर्म के स्वर शांति तथा सहिष्णुता को बढ़ावा देने वाले हों। सार्वजनिक जीवन में धार्मिक आचरण रचनात्मक हो, न कि विध्वंसक।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, जननायक चंद्रशेखर विवि, बलिया]


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