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महिला सशक्तीकरण में बाधक बाल विवाह, जिसके खिलाफ व्यापक स्तर पर हो जागरूकता का प्रसार

Prohibition of Child Marriage राजस्थान विधानसभा द्वारा हाल में राजस्थान विवाहों का अनिवार्य रजिस्ट्रीकरण अधिनियम-2009 में संशोधन करने के लिए एक विधेयक पारित किया गया है। इसके तहत सभी विवाहों का पंजीकरण कराने का प्रविधान है। इस संशोधन ने देश में गंभीर विवाद खड़े कर दिए हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 29 Sep 2021 10:24 AM (IST)Updated: Wed, 29 Sep 2021 10:25 AM (IST)
महिला सशक्तीकरण में बाधक बाल विवाह, जिसके खिलाफ व्यापक स्तर पर हो जागरूकता का प्रसार
देश के कई इलाकों में अभी भी जारी है बाल विवाह की कुप्रथा। फाइल

सीबीपी श्रीवास्तव। Prohibition of Child Marriage एक पुराना, लेकिन बहुत ही तर्कसंगत कथन यह है कि जब हम किसी महिला को शिक्षित करते हैं तो हम पूरे समाज को शिक्षित करते हैं। इस कथन की ताíककता इसमें है कि महिला ही परिवार की धुरी होती है। इस धुरी को धारणीय बनाए रखने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं की पहुंच न केवल शिक्षा, बल्कि सभी संसाधनों तक सुनिश्चित हो, लेकिन यदि किसी बालिका को इस पहुंच से वंचित रखा जाए और उसकी सुकुमार अवस्था में विवाह करने पर विवश किया जाए तो यह उसकी संवृद्धि और विकास में बाधक तो होगा ही, साथ ही उसके सामने स्वास्थ्य के गंभीर जोखिम भी उत्पन्न होंगे।

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इसी पृष्ठभूमि में हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा विवाह के पंजीकरण से संबंधित कानून में किए गए परिवर्तन की समीक्षा की जानी चाहिए। राजस्थान विधानसभा द्वारा हाल में राजस्थान विवाहों का अनिवार्य रजिस्ट्रीकरण अधिनियम-2009 में संशोधन करने के लिए एक विधेयक पारित किया गया है। इसके तहत सभी विवाहों का रजिस्ट्रीकरण कराने का प्रविधान है। इनमें ऐसे विवाह भी शामिल हैं, जिनमें लड़के और लड़की की आयु क्रमश: 21 वर्ष और 18 वर्ष से कम है। इस संशोधन ने गंभीर विवाद खड़े कर दिए हैं, क्योंकि आलोचकों ने कहा है कि यह बाल विवाह को प्रोत्साहित करेगा।

इसके पहले कि हम इस मुद्दे पर विचार करें यह जानना आवश्यक है कि इन कृत्यों को रोकने के लिए कौन सा विधिक ढांचा कार्यरत है। बाल विवाह प्रतिषेध कानून-2006 में बाल विवाह परिभाषित है। इसमें ऐसे विवाह को बाल विवाह कहा गया है जिसमें दोनों ही पक्ष बाल्यावस्था में हैं। अर्थात जिसमें लड़के की आयु 21 वर्ष से कम और लड़की की आयु 18 वर्ष से कम है। इस कानून की धारा-तीन में बाल विवाह को शून्य घोषित कराने का विकल्प पक्षकारों के पास उपलब्ध है। इसकी वैधता के विषय पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने लज्जा देवी बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली)-2012 मामले में इस कानून में बाल विवाह को शून्य घोषित नहीं किए जाने पर आश्चर्य व्यक्त किया था। इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय ने भी इंडिपेंडेंट थाट बनाम भारत संघ-2017 मामले में यह कहा कि आश्चर्य की बात यह है कि 2006 के कानून में बाल विवाह का हालांकि प्रतिषेध है और इसे अपराध कहा गया है, लेकिन इसे शून्य नहीं किया गया है।

भारत एक बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक राष्ट्र है, जिसके कारण यहां न केवल वैयक्तिक कानून प्रचलन में हैं, बल्कि ये विभिन्न समुदायों में लगभग सभी सिविल मामलों को दिशा देने वाले महत्वपूर्ण कारक भी हैं। हिंदू विवाह अधिनियम-1955 की धारा-पांच में यह उल्लेख है कि विवाह के समय वर की आयु 21 वर्ष और वधू की आयु 18 वर्ष होना अनिवार्य है। दूसरी ओर मुस्लिम वैयक्तिक विधि के अनुसार किसी बालिका का विवाह तब किया जा सकता है जब उसने रजस्वला होने की आयु प्राप्त कर ली है। कर्नाटक तथा हरियाणा में विद्यमान विधियों में संशोधन कर बाल विवाह को आरंभ से ही शून्य मान लेने का प्रविधान किया गया है।

विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने सीमा बनाम अश्विनी कुमार-2006 मामले में कहा कि भारत के सभी नागरिकों के लिए जिन राज्यों में उनका विवाह संपन्न हुआ है, उन राज्यों में विवाह का पंजीकरण अनिवार्य होगा। न्यायालय ने कहा कि फैसला देने की तिथि से तीन माह के भीतर ऐसे पंजीकरण की प्रक्रिया की अधिसूचना जारी कर दी जानी चाहिए। यह कार्य या तो किसी प्रचलित विधि में संशोधन कर किया जा सकेगा या कोई नई नियमावली बनाई जा सकेगी। इनके तहत नियुक्त अधिकारी को विवाह के पंजीकरण के लिए पूर्ण रूप से अधिकृत किया जाना चाहिए। साथ ही इन नियमों में विवाह की आयु और अन्य संबंधित सूचनाएं स्पष्ट रूप से उल्लिखित होनी चाहिए। पंजीकरण नहीं कराने या कोई भी गलत सूचना देने की स्थिति और उसके लिए प्रस्तावित कदमों का भी स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए।

यहां यह भी ध्यातव्य हो कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने नीतू सिंह बनाम राज्य-1999 मामले में यह कहा था कि अवयस्कों का विवाह शून्य या शून्य करणीय नहीं, बल्कि दंडनीय है। भारत के विधि आयोग ने 2008 में अपनी 205वीं रिपोर्ट में बाल विवाह प्रतिषेध कानून-2006 में संशोधन की सिफारिश की थी, ताकि ऐसे विवाहों को रोका जा सके। इसी प्रकार राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी यह कहा है कि बाल विवाह निषेध अधिनियम-1929 में संशोधन कर बाल विवाहों को रोकने वाले कदम उठाए जाने चाहिए, जो कि एक सांविधिक संस्था है। इसके साथ-साथ एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सरकार लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु की समीक्षा पर विचार कर रही है। यह देखा गया है कि वर्तमान में लड़कियों की न्यूनतम 18 वर्ष की आयु ने बाल विवाह पर अंकुश लगाने में बड़ी भूमिका नहीं निभाई। यदि अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों पर गौर किया जाए तो संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अक्टूबर 2012 में एक प्रस्ताव पारित कर बाल विवाहों को रोकने का संदेश दिया था।

इस बीच राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने राजस्थान सरकार को विवाहों का अनिवार्य रजिस्ट्रीकरण (संशोधन) अधिनियम-2021 पर पुनर्विचार करने के लिए कहा है। आयोग ने यह कहा है कि यह अधिनियम बाल विवाह को रोकने वाले कई कानूनों से असंगत है और इससे बाल विवाह को बढ़ावा मिलेगा। यह कानून राज्य में बच्चों के शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास को अवरुद्ध करेगा। बाल विवाह प्रतिषेध कानून के अतिरिक्त किशोर न्याय अधिनियम की धारा-दो (14) के तहत यह उल्लेख है कि ऐसा किशोर या किशोरी जिसके समक्ष 18 वर्ष की आयु के पहले विवाह का प्रत्यक्ष जोखिम है उसे देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता है। कानून के अनुसार ऐसे जोखिम को दूर करने के लिए यथासंभव प्रयास किए जाने चाहिए।

राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण-चार (2015-16) के अनुसार वर्ष 2005-06 की तुलना में 2015-16 में भारत में 18 वर्ष के पूर्व लड़कियों के विवाह में कमी हुई है। सर्वेक्षण के अनुसार 20-24 वर्ष की आयु वाली महिलाओं के वर्ग में 2005-06 में 18 वर्ष के पूर्व विवाह की दर 47 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में घट कर 27 प्रतिशत हो गई थी। राजस्थान में भी ऐसे विवाहों की दर में कमी आई है, लेकिन स्थिति की गंभीरता अब भी बनी हुई है। सर्वेक्षण के अनुसार राजस्थान में 2005-06 में ऐसे विवाह की दर 65 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में घट कर 35 प्रतिशत हो गई। दर में कमी के बावजूद स्थिति की गंभीरता को व्यक्त करते हुए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने 2018 में इस सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट ‘इंडिया चाइल्ड मैरिज एंड टीनएज प्रिगनेंसी’ में कहा कि राजस्थान में बाल विवाहों की औसत दर 16.9 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत 11.9 प्रतिशत है, जो कि गंभीर चिंता का विषय है।

यह विदित है कि बाल विवाह कई कारकों के समेकित प्रभाव के रूप में परिलक्षित होता है। भारतीय समाज में विद्यमान विभिन्न प्रकार की विषमताएं इसका बड़ा कारण हैं। दूसरी ओर महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध और उसके कारण बढ़ती असुरक्षा भी इसके लिए जिम्मेदार है। कई अन्य कारकों ने भी देश में बाल विवाह को संस्थागत बना दिया है। जहां कुछ समुदायों में यह एक आदिवासी रीति-रिवाज है, वहीं दूसरों के लिए बिना दहेज के बेटियों का आदान-प्रदान करना आर्थिक रूप से व्यवहार्य विकल्प है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि स्थानीय रूप से प्रचलित मानदंड और प्रथाएं सामाजिक और आर्थिक कारकों की एक श्रृंखला से उत्पन्न होती हैं। निश्चित रूप से बाल विवाह एक हानिकारक प्रथा और एक सामाजिक बुराई है। यह एक ओर मानवाधिकारों का उल्लंघन है और दूसरी ओर भारत जैसे देश में लोक स्वास्थ्य की एक गंभीर चुनौती है। मानव विकास की दृष्टि से भी इसे गंभीर चुनौती कहा जाएगा, क्योंकि इससे शिशु और मातृ मृत्यु दर के बढ़ जाने की आशंका होती है।

बाल विवाह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए भी हानिकारक है। यह अंतर-पीढ़ी निर्धनता चक्र की ओर ले जा सकता है। कारण यह कि ऐसे लड़के-लड़कियों, जिन्हें विवाह के लिए विवश होना पड़ता है, में कौशल विकास नहीं हो पाता और श्रम बाजार में उनकी स्थिति अत्यंत कमजोर हो जाती है, जो अंतत: उन्हें बेरोजगारी की ओर ले जाती है। हाल के वर्षो में जिस प्रकार समावेशी विकास की पहल की गई है, उसको देखते हुए यह स्थिति और भी चिंताजनक प्रतीत हो रही है, क्योंकि ऐसे बालक-बालिकाओं का विकास की मुख्यधारा से बहिष्करण हो जाने की आशंका है। इस संबंध में यूनिसेफ का मानना है कि कम उम्र में विवाह से लड़कियों के प्रजनन चक्र की अवधि लंबी होती है और अधिक संख्या में बच्चे के जन्म की आशंका भी बढ़ जाती है। यह न केवल स्वास्थ्य और जनांकिकीय समस्याएं उत्पन्न करता है, बल्कि पूरे परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। बाल विवाह को समाप्त करने के लिए कई देशों में पर्याप्त निवेश की कमी इस तथ्य का कारण है। लड़कों की तुलना में लड़कियों को कम महत्व देने वाले मानदंडों के परिणामस्वरूप लड़कियों के पास विवाह करने के अलावा कोई विकल्प मौजूद नहीं होता।

ऐसा प्रतीत होता है कि राजस्थान सरकार द्वारा कानून में किया गया संशोधन प्राथमिक रूप से राजनीतिक दृष्टि से प्रेरित लगता है, लेकिन सरकारों को यह ध्यान देना होगा कि राजनीतिक लाभ लेने की मंशा किसी भी स्थिति में सामाजिक-आर्थिक ढांचे और उसकी प्रगति के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए। कानूनों का निर्माण सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विकास को दिशा देने के लिए किया जाना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में किसी कुरीति या समस्या को समर्थन या प्रोत्साहन नहीं मिले। ऐसे में यह अपेक्षा है कि नए संशोधित कानून पर राज्य सरकार द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

[अध्यक्ष, सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेस, दिल्ली]


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