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पर्यावरण संरक्षण के लिए अनूठी पहल, ये लोग पेड़ों और पशु-पक्षियों के नाम पर रख रहे अपने गोत्र का नाम

बस्तर के आदिवासी पर्यावरण संरक्षण के लिए अपने गोत्र का नाम पेड़ों व पशु-पक्षियों के नाम पर रख रहे हैं।

By Manish PandeyEdited By: Published: Sat, 13 Jul 2019 09:41 AM (IST)Updated: Sat, 13 Jul 2019 09:41 AM (IST)
पर्यावरण संरक्षण के लिए अनूठी पहल, ये लोग पेड़ों और पशु-पक्षियों के नाम पर रख रहे अपने गोत्र का नाम
पर्यावरण संरक्षण के लिए अनूठी पहल, ये लोग पेड़ों और पशु-पक्षियों के नाम पर रख रहे अपने गोत्र का नाम

बस्तर, [हेमंत कश्यप]। छत्तीसगढ़ में बस्तर के आदिवासी अपने गोत्र का नाम पेड़ों व पशु-पक्षियों के नाम पर रखते हैं। इससे वे स्वाभाविक रूप से पर्यावरण के संरक्षक हो जाते हैं। जिस पेड़ से गोत्र जुड़ता है, उसकी पूजा करते हैं। उसे नुकसान से बचाते हैं। इससे जंगल कटने से बच जाते हैं। आदिवासियों का मानना है कि गोत्रज पेड़ को नुकसान पहुंचाने का मतलब कुलदेवता को नाराज करना है। आदिवासियों में बेलसरिया गोत्र से बेल पेड़, कश्यप से कसही व कछुआ, बड़सरिया से बरगद यानी वट पेड़ जुड़े हुए हैं। इतना ही नहीं, उनके गोत्र का वन्य-जीवों से भी नाता है। उनके बीच बासुकी से नाग, माकड़ी से बंदर, बघेल से बाघ, गोटा से बकरा, मंजूरबसिया से मोर, भेंडिया से भेंड़िया, कोलिहा से सियार का नाम जुड़ा है। गोत्रज पेड़ को काटना महापाप मानते हैं।

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हरियाली की वजह

सर्व आदिवासी समाज के जिला कार्यकारी अध्यक्ष दशरथ राम कश्यप बताते हैं कि आदिवासी समाज अपने गोत्रज पेड़-पौधों को काटना तो दूर, गोत्रज जीव-जंतुओं को पालते तक नहीं। आदिवासी समाज ही नहीं, हर समाज में कुलदेव और उनके संकेतक गोत्रज हैं। देवी-देवताओं के वाहन के रूप में हम वन्य जीवों को देखते हैं। वट, पीपल, आंवला आदि वृक्षों की पूजा करते हैं। कश्यप कहते हैं कि आज बस्तर में जो हरियाली और जंगल दिखते हैं, उसके पीछे यही वजह है।

बेल खाना तो दूर, पत्ते तक नहीं छूते

हल्बा और मरार जाति के लोग बेल वृक्ष को कुलदेव मानते हैं। अपना गोत्र बेलसरिया बताते हैं। वे बेल फल खाना तो दूर, इसके पत्ते को भी नहीं छूते। भतरा आदिवासियों में कश्यप गोत्र वाले कसही वृक्ष और कछुआ की पूजा करते हैं। बड़सरिया गोत्र लिखने वाले कुम्हार जाति के लोग वट वृक्ष को अपना देव मान इनकी सूखी टहनियों को जल में विसर्जित कर देते हैं, ताकि कोई इनके देव वृक्ष के अंश को जला न सके। धाकड़ जाति के लोग उपनाम भारत लिखते हैं और टेरा (पक्षी) को अपना गोत्रज बताते हैं।

उरांव जनजाति में गोत्र का महत्व

उरांव जाति के लोग भी वृक्ष, लताओं और पशुओं के नाम पर अपना गोत्र रख उनका संरक्षण करते हैं। छत्तीसगढ़ के ही जशपुर जिले के विभिन्न विकासखंडों में साढ़े सात सौ गांवों में इस जाति के लोग निवास करते हैं। इनमें केरकेट्टा, किंडो, कुजूर, टोप्पो, मिंज, तिर्की, पन्न, खलखो, खेस, किसपोट्टा, बेक आदि गोत्र के नाम पेड़-पौधों व पशुओं से जुड़े हैं। यही वजह है कि उरांव अपने गोत्रज पेड़ों व पशुओं को कभी नुकसान नहीं पहुंचाते। केरकेट्टा पक्षी का, किंडो मछली, कुजूर जंगली लता, टोप्पो पक्षी, मिंज विशेष प्रकार की मछली, तिर्की बाज पक्षी, पन्न लोहा, खलखो व खाखा रात को विचरण करने वाले विशेष पक्षी के नाम हैं। वहीं खेस का अर्थ धान, किसपोट्टा का सूकर, बेक का नमक व लकड़ा का बाघ है। 


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