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स्वतंत्रता संग्राम में कूका आंदोलन का अहम योगदान, भगत सिंह और महात्मा गांधी भी थे प्रभावित

धर्मगुरु विद्रोही व महिलाओं के संरक्षक के रूप में प्रसिद्ध रहे सतगुरु राम सिंह नामधारी (Guru Ram Singh) ने की थी कूका आंदोलन की शुरुआत। आंदोलन से घबराए अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों पर बर्बरता की सीमा पार कर दी थी।

By Manish PandeyEdited By: Published: Sun, 17 Oct 2021 11:17 AM (IST)Updated: Sun, 17 Oct 2021 11:17 AM (IST)
स्वतंत्रता संग्राम में कूका आंदोलन का अहम योगदान, भगत सिंह और महात्मा गांधी भी थे प्रभावित
गौवध के खिलाफ शुरू हुए इस सशस्त्र विद्रोह से भगत सिंह और महात्मा गांधी भी प्रभावित थे।

[भूपेंदर सिंह भाटिया] भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूका आंदोलन का नाम एक ऐसे बदलाव के रूप में दर्ज है, जो आगे चलकर सामाजिक क्रांति का प्रतीक बन गया। पंजाब से शुरू हुए इस आंदोलन की नींव बहुमुखी व्यक्तित्व के मालिक सतगुरु राम सिंह नामधारी ने रखी, जो एक धर्मगुरु, आंदोलन के नेतृत्वकर्ता और महिलाओं का उत्थान करने वाले शख्स के रूप में जाने जाते हैं। अपने बहुमुखी व्यक्तित्व के कारण ही वह ब्रिटिश शासन के खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा करने में कामयाब रहे। उन्होंने नामधारी समाज की स्थापना की और महिलाओं, खासकर बालिकाओं के रक्षक बनकर उभरे। उन्होंने नारी उद्धार, अंतर्जातीय विवाह व सामूहिक विवाह के साथ-साथ गौरक्षा के लिए जीवन समर्पित कर दिया।

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नामधारी सिखों की कुर्बानी स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कूका आंदोलन के नाम से दर्ज है, जिसकी कमान सतगुरु राम सिंह के हाथों में थी। 12 अप्रैल, 1857 को लुधियाना के करीब भैणी साहिब में सफेद रंग का स्वतंत्रता का ध्वज फहराकर कूका आंदोलन की शुरुआत हुई। खास बात यह थी कि सतगुरु राम सिंह के अनुयायी ‘नाम सिमरन’ में लीन रहते हुए आंदोलन को आगे बढ़ाते थे। अंग्रेजों के खिलाफ हुंकार (कूक) के कारण उन्हें कूका के नाम से जाना जाने लगा। इस आंदोलन में सभी वर्गों के साधारण लोग शामिल थे। उन्होंने लोगों में न सिर्फ आत्म सम्मान, देशप्रेम और भक्ति को जगाया, बल्कि समाज में पनपी बुराइयों के खिलाफ एक जंग भी छेड़ी। उन्होंने लोगों में स्वाभिमान चेतना जागृत की। नामधारी समाज से संबंध रखने वाले लेखक संत सिंह कहते हैं, ‘सतगुरु राम सिंह के धार्मिक और सामाजिक सुधार आम लोगों के लिए धार्मिक नेताओं के चंगुल से निकलने की बुनियाद बन गए।’

कुरीतियों के खिलाफ युद्ध

यह वह दौर था जब कन्याओं को पैदा होते ही मार देना, उन्हेंं बेच देना या उनका बाल विवाह कर देने जैसी कुरीतियां समाज में गहरी पकड़ बना चुकी थीं। गुरु जी ने इसकी वजह को समझा और पाया कि इन सभी का ताल्लुक विवाह में होने वाले भारी भरकम खर्च से है। उन्होंने तीन जून, 1853 को फिरोजपुर में छह जोड़ों का सामूहिक विवाह करवाकर सामाजिक बदलाव की शुरुआत की। साथ ही पुरुषों की तरह महिलाओं को भी अमृत छका कर (अमृतपान) उन्हें सिख पंथ से जोड़ा। उन्होंने महज सवा रुपए में विवाह करने की परंपरा की शुरुआत की, जो आज भी बरकरार है। इससे दहेज जैसी कुरीति पर अंकुश लगा और विवाह समारोहों में बेवजह खर्च की होड़ भी कम हुई। महाराजा रणजीत सिंह की फौज छोड़ने के बाद सतगुरु राम सिंह ने पंथ से भटके सिखों को श्री गुरु गोबिंद सिंह के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।

घबरा गए अंग्रेज

उनकी बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेजों को एहसास हो गया था कि नामधारी पंथ सिर्फ एक धार्मिक समुदाय नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक इरादे पालने वाला पंथ है, जो भविष्य में उनके लिए बड़ी चुनौती साबित होगा। यदि इसे तत्काल न कुचला गया तो यह खतरनाक रूप ले सकता है। इसी क्रम में सतगुरु राम सिंह को 1863 में लुधियाना के भैणी साहिब में नजरबंद कर दिया गया। अंग्रेजों ने लोगों को धर्म के नाम पर बांटने के लिए जब पंजाब में गौमांस के लिए बूचड़खाने खोले तो सतगुरु राम सिंह ने इसका कड़ा विरोध किया। अंग्रेजों की मंशा थी कि इससे हिंदू, मुसलमान और सिख आपस में लड़ेंगे। नामधारियों ने लुधियाना के रायकोट के एक बूचड़खाने से बड़ी संख्या में गायों को मुक्त कराया। उन्होंने गायों की सुरक्षा के लिए अपने अनुयायियों को भी प्रेरित किया। इस बगावत की सजा के तौर पर पांच अगस्त, 1871 को तीन नामधारी सिखों को रायकोट में, दो नामधारी सिखों को 26 नवंबर, 1871 को लुधियाना में व 15 दिसंबर, 1871 को चार नामधारी सिखों को अमृतसर में पेड़ पर लटकाकर सरेआम फांसी दे दी गई। नामधारी हंसते हुए फांसी पर चढ़ गए।


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