'अयोध्या' की गवाही, ...अब रामराज की राह देख रही है अयोध्या
अधिगृहीत 67 एकड़ जमीन की सुरक्षा के लिए लगाए गए बैरीकेडिंग के निकट 60 साल के राम अधीर अपने इस प्रश्न का जवाब पाने के लिए अधीर हैं।
हरिशंकर मिश्र। मैं अयोध्या हूं, यानी अयुध्य हूं। कहते हैं मेरी धरती पर कोई युद्ध नहीं हुआ। कोई मुझे जीत नहीं सका। सरयू के आंचल ने मां की तरह मेरी रक्षा की है, लेकिन सरयू की लहरें आज कुछ बेचैन हैं। त्रेता से कलियुग तक पल-पल की गवाह रही इन लहरों में मेरा वह दर्द छिपा हुआ है, जिसे मैं आज सबके सामने लाना चाहती हूं। मैं दशरथ पुत्र राम की अयोध्या...देश की सबसे बड़ी अदालत में दो पक्षों को लेकर चल रहे अदालती विवाद में खुद भी पक्षकार बनना चाहती हूं। अपनी गवाही रिकार्ड कराना चाहती हूं...नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत मुझे अनुमति देते हैं कि अपना पक्ष सबके सामने रखूं। मेरा पक्ष अनसुना रह गया तो यह अयोध्या के साथ अन्याय होगा। उस अयोध्या के साथ, जिसमें हिंदू भी रहते हैं और मुस्लिम भी।
मी लॉर्ड!
मेरा पक्ष मेरे वर्तमान से जुड़ा है, भविष्य से जुड़ा है और आने वाली पीढ़ियों से जुड़ा है। अधिगृहीत 67 एकड़ जमीन की सुरक्षा के लिए लगाए गए बैरीकेडिंग के निकट 60 साल के राम अधीर अपने इस प्रश्न का जवाब पाने के लिए अधीर हैं कि आखिर इससे अधिक जमीन यहां के तीन क्षेत्रों में तय किए गए इंडस्ट्रियल एरिया को दी गयी है, लेकिन फैक्ट्रियों की कब्रगाह क्यों बन गई? आखिर वहां तो पहरा नहीं है! मेरी ओर से यानी अपनी अयोध्या के लिए 70 साल के अविनाश चंद्रा भी हलफनामा देना चाहते हैं। इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के पूर्व पदाधिकारी चंद्रा बताना चाहते हैं कि यह धरती पूरे देश में रेलवे को ट्रांसफार्मर बनाकर देती है। मुझे इस बात पर गर्व होता है, लेकिन मंदिर-मस्जिद के शोर में खत्म होते गए सैकड़ों कल-कारखाने इस उपलब्धि पर धब्बा लगा देते हैं। बाहलफ वह कहते हैं कि इलाहाबाद, लखनऊ और गोरखपुर के बीच अयोध्या सैंडविच की तरह पिस गई। सबने इन नगरों की चिंता की। किसी को याद तक न आया कि मेरी भी कुछ आकांक्षाएं, अपेक्षाएं हैं। जरा सोचिए, परिवहन बिना कोई नगर कैसे विकास करे? हवाई पट्टी भी अब तैयार हो रही है, आजादी के 70 साल बाद।
मी लॉर्ड! मेरा पक्ष मेरे विकास से जुड़ा है। इसे ईर्ष्या न माना जाए। लेकिन आज मुझे यह पूछने का अधिकार है कि दो जन्मस्थानों में इतना अंतर क्यों? राम और कृष्ण दोनों ही एक ईश्वर के रूप हैं, फिर मथुरा-वृंदावन इतना जीवंत क्यों और अयोध्या में इतनी उदासी क्यों? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? अयोध्या साधुओं की नगरी है। कुछ आज आपकी अदालत में भी पक्षकार हैं। मेरा उनसे भी सवाल है कि अयोध्या में ऐसी रामलीला क्यों नहीं, जो काशी में रामनगर की रामलीला से मुकाबला कर सके? अपने आराध्य के रामराज की कल्पनाओं के प्रति इतनी उदासीनता क्यों? तीन मेले तो हमारे यहां भी हैं। रामनवमी, सावन झूला और कार्तिक मेला। यहां आने वाली लाखों की भीड़ अव्यवस्थाओं की अभिशप्त क्यों? अपने मरीजों का उपचार करते समय आज जब डॉ. प्रभात दत्त त्रिपाठी ने उन्हें दिलासा दी कि जल्द ही यहां भी सीवर लाइनें होंगी तो मेरा कलेजा मुंह को आ गया। पूरी दुनिया में चर्चा में रहने वाली रामलला की धरती पर अब सीवर के लिए गड्ढे खुद रहे हैं। ओडीएफ के महायज्ञ में अयोध्या नहीं शामिल है। सुन लीजिए आप भी प्रधानमंत्रीजी!
ऐसा नहीं कि मेरे लिए योजनाएं नहीं बनीं। एनडी तिवारी के कार्यकाल में राम की पैड़ी ने मुझे कई सब्जबाग दिखाए थे। हर की पैड़ी जैसा विकास का वादा था। कहा गया था कि आठ किलोमीटर नहर मांझा में सिंचाई करेगी। मांझा सरयू किनारे के गांवों की संज्ञा है। ऐसे ही तमाम सपने बुने गए। 76 साल के अधिवक्ता जेपी तिवारी मुझे याद दिलाते हैं कि सरयू किनारे भगवान राम के समय के वृक्ष लगाने का वादा भी तो था? अटलजी के जमाने में कहा गया था कि पूरा राम युग यहां जीवंत करेंगे। लेकिन एक ईंट भी न रखी गई। गन्ने की बेल्ट भी है मेरे यहां। दो चीनी मिलें भी हैं, लेकिन इनकी मिठास फीकी पड़ती जा रही। दुनिया आगे बढ़ती रही और हम दर्शक ही रह गए। अस्पताल, सड़कें, पुल, शौचालय, रहनुमाओं ने जब यह सब बांटा तो हमारी अनदेखी की। सियासत उगाते-उगाते अयोध्या खुद बंजर हो गई। यहां से दस किलोमीटर दूर राजा दशरथ की समाधि है। उस स्थान को भी विकसित किया जाना था, लेकिन...। जाने कितनी विकास योजनाएं सरयू में जलसमाधि ले चुकी हैं।
मी लॉर्ड! महाभारत के बाद सबको चित्रगुप्त के दरबार में हिसाब देना पड़ा था। मुझे भी देना होगा, लेकिन मैं इस बात पर शायद चुप रहना ही पसंद करूं कि साकेत नगरी में शिक्षा के संसाधन होने के बावजूद वहां के लोग लखनऊ और प्रयाग की ओर क्यों भागते हैं? साकेत महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. प्रदीप खरे की बात भी सुनें कि अयोध्या को शांति चाहिए। यहां के अशांत माहौल ने शैक्षिक वातावरण को बहुत नुकसान पहुंचाया है। मैं खुद इस बात से आहत होती हूं कि यहां के लोग खुद भी अपनी जरूरतों के लिए आवाज बुलंद नहीं करते। ऐसी उदासी भी ठीक नहीं। साधुओं की आवाज तो सुनी जाती है? लेकिन, उन्होंने भी आवाज नहीं उठाई। पिछले कुछ महीनों को छोड़ दें तो अयोध्या बिजली तक के लिए तरसी है। यहां खड़ाऊं रखकर शासन चलाने की परंपरा राम के युग में शुरू हुई थी। सरकारों ने भी ऐसा ही किया है।
फिर मुझे उम्मीद की कुछ किरणें नजर आती हैं। पिछली दीपावली पर सरयू में झिलमिलाए असंख्य दीपों ने रोशनी दिखायी है। अब खड़ाऊं का शासन नहीं होगा। यह अयोध्या के कायाकल्प का संकेत है। पहली बार नगर निगम के पास चुनौतियों का पहाड़ है। महापौर ऋषिकेश उपाध्याय स्वीकार करते हैं कि बहुत कुछ करना है। बस ईमानदारी से यह भाव बना रहे तो मेरा भाग्य पलटेगा। साधुओं की नगरी में योगी का आना-जाना भी शुरू हुआ है। लेकिन मी लॉर्ड...मैं हलफनामा देकर कहती हूं कि मैं अपनी इस धरती पर एक युद्ध चाहती हूं। अयुध्य धरती पर युद्ध चाहती हूं। यह युद्ध हमारे अपने लोग लड़ें, खुद के लिए लड़ें, अपने विकास के लिए लड़ें, मेरे विकास के लिए लड़ें। मेरी धरती पर रामराज तभी आएगा।
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