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Aryan Khan Drugs Case: नशे की अंधी गली में गुम होते युवा, आसान नहीं लत छुड़ाना

Aryan Khan Drugs Case सरकार पुलिस प्रशासन और जांच एजेंसियां अगर सख्ती करें और चुस्त निगरानी करें तो नशे के नेटवर्क को ध्वस्त किया जा सकता है पर असल में यह समस्या तब तक नहीं सुलझेगी जब तक कि समाज इसकी रोकथाम में अपनी सक्रियता नहीं दिखाएगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 09 Oct 2021 09:22 AM (IST)Updated: Sat, 09 Oct 2021 09:24 AM (IST)
ड्रग्स मामले में जमानत याचिका खारिज होने के बाद आर्यन खान की मुश्किलें बढ़ गई हैं। फाइल

संजय वर्मा। Aryan Khan Drugs Case हमारा देश अक्सर जिन बातों पर नाज करता रहा है, उनमें देश की युवाशक्ति की गिनती सबसे ऊपर की पांत में होती है। राजनेता ही नहीं, देश-समाज के प्रबुद्ध तबकों से जुड़े विद्वान भी अक्सर युवा पीढ़ी का उल्लेख इस रूप में करते हैं कि भारत की शक्ति का असली केंद्र तो यही हैं, पर तब क्या हो जब पता चले कि हमारी यह युवा पीढ़ी नशे की भयानक चपेट में है। मसला सिर्फ सिनेजगत की मशहूर हस्तियों और उनकी संतानों के नशे की गिरफ्त में आने या नशीले पदार्थो की खरीद-बिक्री से जुड़े अवैध नेटवर्क में शामिल होने का नहीं है, बल्कि उससे भी बड़ा है।

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जिस तरह से हमारे देश में इधर मादक पदार्थो की भारी-भरकम खेपें पकड़ी गई हैं, उससे इनकी तस्करी रोकने और इनमें संलिप्त लोगों की धरपकड़ से जुड़ी एजेंसियों के ही सतर्क होने की जरूरत है, लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी यह हो गया है कि पता लगाया जाए कि आखिर मादक पदार्थो की इतनी भारी खपत हमारे देश में किन इलाकों और समाज के किस वर्ग के बीच हो रही है। वैसे जिस तरह से युवाओं के नशे की लत के शिकार होने की खबरें गाह-बगाहे आती रही हैं, उससे यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि कैसे नशा हमारी युवा आबादी को घुन की तरह खोखला किए जा रहा है। ऐसे में जब हम खुद में यह दंभ भरते हैं कि भारत तो युवाओं का देश है, तब हमें इसकी खबर भी लेनी होगी कि आखिर दिखावे, आभिजात्य शैली के रहन-सहन, परिवार की टूटन, बेरोजगारी या अकेलेपन आदि समस्याओं ने ही तो कहीं हमारी युवा पीढ़ी को जाने-अनजाने नशे की अंधेरी गलियों में नहीं धकेल दिया है।

फिल्मी गलियारों में नशा: यह तथ्य कोई अनजाना नहीं है कि देश का सिनेजगत दो बातों में नशे के कारोबार से संबंधित रहा है। एक तो फिल्मों में नशाखोरी का चित्रण और दूसरे, सिने सितारों का इसकी लत की चपेट में आना। देवदास, हरे रामा-हरे कृष्णा, संजू से लेकर उड़ता पंजाब आदि फिल्मों में नशे की लत और कारोबार यानी तस्करी आदि के तमाम पहलुओं को काल्पनिक और वास्तविक, दोनों धरातलों पर चित्रित करने के प्रयास हुए हैं, लेकिन यह फिल्मी दुनिया खुद नशीले पदार्थो की खरीद-फरोख्त और उसके नेटवर्क में शामिल हो सकती है, यह नई जानकारी है।

पिछले साल अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या के बाद अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और उनके भाई की गिरफ्तारी आदि प्रकरणों के पीछे सबसे बड़ा संदेह यही रहा है कि कहीं सुशांत की मौत का कोई लेनादेना नशे के कारोबार से तो नहीं है। हालांकि इन संदेहों को साबित करने वाले सुबूतों का अभाव रहा है, जिससे घटनाओं की सत्यता को प्रमाणित करना मुश्किल होता है, लेकिन इसमें संदेह की ज्यादा गुंजाइश नहीं है कि कई फिल्मी सितारे खुद भी नशे की चपेट में आए हैं। जैसे मशहूर अभिनेता संजय दत्त की फिल्मी ही नहीं, असल जिंदगी भी ड्रग्स की चपेट में रही है। उनके जीवन पर बनी फिल्म-संजू से यह तथ्य और पुख्ता हुआ था कि नशे की गिरफ्त में आए शख्स को उस दुनिया से सही-सलामत वापस ले आना काफी मुश्किल और तकलीफदेह होता है, पर इधर जिस तरह से भारत में नशीले पदार्थो की अवैध आवक के मामलों की धरपकड़ बढ़ी है, उससे यह आशंका गहरा गई है कि हमारे देश में पंजाब ही नहीं, युवा आबादी का बड़ा हिस्सा नशे की गिरफ्त में हो सकता है और वह शायद उससे बाहर आने को तैयार नहीं है।

बेशक नशा सेवन के लिए भव्य पैमाने पर आयोजित की जाने वाली रेव पार्टियों पर छापेमारी से अमीर और आभिजात्य तबके के किशोरों-युवाओं के उनमें शामिल होने का पता चलता है, पर नशे की एक बड़ी दुनिया इससे बाहर भी है। भले ही लो-प्रोफाइल मामले होने की वजह से मीडिया में देश के बड़े महानगरों से लेकर गांव-कस्बे तक में फैली नशे की समस्या का ज्यादा जिक्र न हो, लेकिन हकीकत यह है कि नशा तकरीबन हर जगह फैल गया है। अगर जिक्र देश की राजधानी दिल्ली का करें तो इस महानगर का दिल कहलाने वाले कनाट प्लेस तक में सड़क किनारे या अंडरपासों में युवा समूह में नशा करते दिख जाते हैं। दिल्ली-एनसीआर में आए दिन चरस, गांजा, अफीम, स्मैक, हेरोइन, कोकीन, एलएसडी जैसे नशाखोरी के सामानों और लोगों की धरपकड़ की खबरें आती रहती हैं। पिछले कुछ वर्षो में दिल्ली-एनसीआर नशीले पदार्थो की तस्करी का बड़ा अड्डा बन गया है। यहां कभी यमुना किनारे खुलेआम तो कभी गुपचुप होने वाली रेव पार्टियों में प्रतिबंधित ड्रग्स का इस्तेमाल और नशे के साजो-सामान की आवक के बारे में बताते हैं कि यह नौ-दस गुना तक बढ़ गई है। सवाल है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां क्या कर रही हैं, जो बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार और नेपाल से आने वाली ऐसी खेपों को रोक नहीं पाती हैं।

बड़ी खेपों के बड़े इशारे: देश में ड्रग्स के रूप में नशे के बढ़ते चलन का पता इससे चलता है कि हाल के अर्से में ही यहां ड्रग तस्करी के कई बड़े रैकेटों का भंडाफोड़ हुआ है और एक ही बार में करोड़ों रुपये की आधुनिक नशे की खेपें बरामद हुई हैं। बीते महीने 16 सितंबर को गुजरात के कच्छ में मुंद्रा पोर्ट पर, जो तीन हजार किलोग्राम हेरोइन ईरानी टेल्कम पाउडर की शक्ल में बरामद हुई, उसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 21 हजार करोड़ रुपये बताई जा रही है। यह पूरी दुनिया में अब तक पकड़ी गई ड्रग्स की सबसे बड़ी मात्र है। उल्लेखनीय है कि अभी तक हमारे देश में पूरे साल जांच एजेंसियां ड्रग्स की जो धरपकड़ करती रही हैं, उसमें कुल मिलाकर सालाना बरामदगी ढाई हजार किलोग्राम तक रही है, लेकिन एक ही बार में तीन हजार किलोग्राम हेरोइन का देश में आना बताता है कि या तो देश में ड्रग्स की खपत कई गुना बढ़ गई है या फिर भारत ड्रग्स सप्लाई के किसी नेटवर्क का बड़ा केंद्र बन गया है। दोनों ही सूरतों में हालात चिंताजनक हैं।

यदि पकड़ी गई ड्रग्स विशुद्ध हेरोइन हुई तो देश में खपत को आधार बनाने से जुड़ा आकलन बताता है कि इसे 75 लाख युवाओं को नशे की चपेट में लाया जा सकता था। असल में नशे के रूप में सेवन की जाने वाली हेरोइन में मिल्क शुगर आदि को मिलाया जाता है। इस तरह तीन हजार किलोग्राम हेरोइन एक व्यक्ति द्वारा एक दिन में सेवन की जाने लायक 460 मिलीग्राम की न्यूनतम 75 लाख खुराकों में तब्दील हो सकती है। अगर यह हेरोइन मिलावटी हुई तो भी इसे 15 लाख लोगों के इस्तेमाल लायक खुराकों में बदला जा सकता है। ऐसी धरपकड़ अकेले गुजरात में नहीं हुई है, बल्कि महाराष्ट्र, यूपी, पंजाब, तेलंगाना, तमिलनाडु, राजस्थान और मध्य प्रदेश आदि राज्यों में ड्रग्स तस्करी के कई बड़े गिरोहों का भंडाफोड़ हुआ है।

यह भी उल्लेखनीय है कि जांच एजेंसियों को ड्रग्स तस्करी के रास्तों का अंदाजा है। जैसे उन्हें यह मालूम है कि सबसे ज्यादा मात्र में मादक पदार्थ अफगानिस्तान से आते हैं। इसके अलावा नेपाल, पाकिस्तान, म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते से भी हेरोइन, डायजेपाम, मैंड्रेक्स, एफेटेमिन, मार्फिन, केटामाइन, एमडीएमए, पेंटाजोकिन, स्यूडोफिडिन, म्याऊं-म्याऊं और काडिन आदि नशीले पदार्थ भारत आ रहे हैं। यूं ड्रग्स की इस आवक से यह अंदाजा लगता है कि देश में युवा बड़ी तेजी से और भारी संख्या में नशे की जद में आ रहे हैं, पर इसके भी संकेत मिल चुके हैं कि इनमें बची ड्रग्स की खेपों को ज्यादा कीमत पर दिल्ली के रास्ते यूरोप, ब्रिटेन और लैटिन अमेरिकी देशों तक भेजा जाता है।

हम वैसे तो कह सकते हैं कि सरकार, पुलिस प्रशासन और जांच एजेंसियां अगर सख्ती करें और चुस्त निगरानी करें तो नशे के नेटवर्क को ध्वस्त किया जा सकता है, पर क्या इतना ही करना काफी होगा। असलियत में यह समस्या तब तक नहीं सुलङोगी, जब तक कि समाज इसकी रोकथाम में अपनी सक्रियता नहीं दिखाएगा। नशीले पदार्थो का सेवन असल में एक सामाजिक समस्या भी है, जो परंपरागत पारिवारिक ढांचों के बिखराव, स्वच्छंद जीवनशैली, सामाजिक अलगाव आदि के हावी होने और नैतिक मूल्यों के पतन के साथ और बढ़ती जा रही है।

नशे की जद में आना जितना आसान है, उससे छुटकारा पाना हमारे देश में उतना ही मुश्किल है। आम नागरिकों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि उन्हें नशा छुड़ाने वाली तकनीकों और इलाज की पद्धतियों की जानकारी हो, पर जो अपने घर-परिवार में नशे की चपेट में आए युवाओं को इससे बचाना चाहते हैं, उन्हें भी इन उपायों के बारे में पता नहीं चल पाता है। उन्हें इन चिकित्सा पद्धतियों और इलाज के केंद्रों का पता ही नहीं होता है।

फिलहाल हमारे देश की नीतियों में नशे के आदी लोगों को राहत दिलाने के लिए सिंगल कोर्स ट्रीटमेंट दिया जाता है। इसके तहत ड्रग-एडिक्ट शख्स का इलाज चार से छह हफ्ते तक वैकल्पिक दवाओं से किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र नशे के इलाज की इस पद्धति को मान्यता तो देता है, लेकिन मौजूदा संसाधनों में आज के घोषित नशेड़ियों का इलाज शुरू किया जाए तो उन सभी का इलाज करने में दस से बीस साल लग जाएंगे। एक समस्या यह भी है कि भले ही नशे के आदी युवक को उनके परिजन इलाज दिलाना चाहते हैं, लेकिन अक्सर ऊपर से सरकार का ज्यादा ध्यान सिर्फ पुनर्वास और सुधार केंद्रों पर टिका है, जिससे समस्या का संपूर्ण निराकरण संभव नहीं है।

एक दिक्कत यह भी है कि नशा सिर्फ एक खास इलाके तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि नशे के कारोबारी धीरे-धीरे आसपास के इलाकों में भी अपना जाल फैला लेते हैं। जैसे-नशे की समस्या आज पंजाब तक सीमित नहीं है, बल्कि पड़ोसी राज्य हरियाणा इसकी चपेट में है, दिल्ली के स्कूल-कालेजों के सामने भी बच्चों को नशे से दूर रखना चुनौती बन गया है। इसी तरह राजस्थान का कोटा ड्रग्स का गढ़ माना जाने लगा है, उत्तराखंड के देहरादून में शाम ढलते नशे का धुआं और शराब की गंध माहौल में फैलने लगती है। ड्रग्स युवाओं तक पहुंच रही हैं, उन्हें अपनी चपेट में ले रही हैं तो यह समस्या कानून-व्यवस्था से ज्यादा सामाजिक भी है। हमें दोनों स्तरों पर एक साथ कार्रवाई करनी होगी।

[एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी]


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