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भारत और पूर्वी एशियाई देशों में अनेकता में एकता का दर्शन स्थापित करने का प्रयास

यह पुस्तक ऑन द ट्रेल ऑफ बुद्ध -ए जर्नी टू द ईस्ट भारत और पूर्वी एशियाई देशों के बीच आध्यात्मिक व सांस्कृतिक संबंधों की जड़ें तलाशने और इन देशों में मौजूद अनेकता के बीच एकता के सूत्र स्थापित करने का प्रयास करती है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 19 Oct 2020 11:53 AM (IST)Updated: Mon, 19 Oct 2020 11:53 AM (IST)
भारत और पूर्वी एशियाई देशों में अनेकता में एकता का दर्शन स्थापित करने का प्रयास
अनेकता में एकता का दर्शन स्थापित करने का प्रयास।

ब्रजबिहारी। भारत ने कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। किसी देश पर कब्जा कर उसे गुलाम नहीं बनाया। इसके उलट भारत पर ही लगातार विदेशी आक्रांताओं ने हमले किए और उसकी सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की, लेकिन इसके बावजूद यह देश आज भी अपनी प्राचीन विरासत के दम पर पूरी दुनिया के सामने सीना तानकर खड़ा है।

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भारत अपने इसी दर्शन के कारण विश्व धर्मगुरु कहलाता है। भारत की इस ताकत के असर के बारे में जानना है तो आपको चीन, जापान, ताइवान, मंगोलिया, दक्षिण कोरिया, थाइलैंड, लाओस और वियतनाम जैसे देशों की ओर देखना चाहिए, जहां भगवान बुद्ध और उनका दर्शन हर तरफ नजर आएगा। प्राचीन भारत और इन पूर्वी एशियाई देशों के बीच जुड़ाव को भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी दीपांकर एरन ने ‘ऑन द ट्रेल ऑफ बुद्ध-ए जर्नी टू द ईस्ट’ नामक पुस्तक की विषयवस्तु बनाया है।

दरअसल, यह पुस्तक प्राचीन भारत की खोज की एक कोशिश है, जो चीन, मंगोलिया, कोरिया और जापान की परंपराओं, कला और वास्तुकला में खूबसूरती से संरक्षित है। इस पुस्तक एक प्रकार से बुलेट ट्रेन में संस्कृति की यात्र है। इस पुस्तक के लिए लेखक ने कितनी मेहनत की है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लगभग 300 पन्नों की इस कृति को पूरा करने में उन्हें नौ साल का समय लग गया।

चीन के शिनजियांग प्रांत से शुरू कर लेखक ने दो हजार मील लंबे सिल्क रोड के किनारे बसे प्राचीन शहरों को पुस्तक में स्थान दिया है। इसके बाद वे चीन और मंगोलिया को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग पर निकल पड़ते हैं और वहां से सिचुआन और फिर कैलास पर्वत और मानसरोवर झील पहुंचते हैं। इसके बाद उनकी यात्र दक्षिण-पूर्वी तटीय चीन से होते हुए हांगकांग से शंघाई तक जाती है। प्राचीन भारत के पदचिह्नें की खोज में वे दक्षिण कोरिया और जापान भी गए। कुल मिलाकर 37 स्थानों के 98 गंतव्यों तक की उनकी यात्र काफी रोमांचकारी रही।

दीपांकर एरन के मुताबिक, बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए भारत के हजारों भिक्षुओं ने एशिया के कई देशों की यात्र की। बौद्ध धर्म ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। भारत के इन बौद्ध भिक्षुओं की शिक्षा-दीक्षा का असर पूर्वी एशियाई देशों में साफ देखा जा सकता है। भारत की ही तरह चीन में भी मंदिर पहाड़ों की चोटी पर अवस्थित हैं। वहां की गुफाओं के भित्ति चित्र, उनके मंदिरों की वास्तुकला और बड़े-बड़े पहाड़ों को काटकर बनाई गई भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं भारत के असर की गवाही देती हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस पुस्तक का पाठक हैरान होगा कि हजारों साल पहले जब संवाद और यात्र के साधन नहीं थे, तब भी एशियाई देश आपस में कितने गहरे जुड़े हुए थे।

तमिलनाडु में कांचीपुरम के एक शाही परिवार में जन्मे बोधिधर्म दक्षिण भारत के मार्शल आर्ट कलरिपयट्टू को चीन लेकर गए थे। इस पुस्तक के लेखक के अनुसार, बोधिधर्म की मृत्यु के बाद उनकी इच्छानुसार जब लोहे का एक बॉक्स खोला गया तो उसके अंदर से कलरिपयट्टू पर लिखी दो पुस्तकें मिली थीं। चीन में मार्शल आर्ट के विभिन्न रूपों की जड़ें इन पुस्तकों में खोजी जा सकती हैं।

भारतीय राजस्व सेवा में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित दीपांकर एरन न सिर्फ अच्छे लेखक हैं, बल्कि उत्साही फोटोग्राफर और उत्कृष्ट सैलानी भी हैं। उनके इन गुणों की झलक इस पुस्तक में नजर आती है। यह पुस्तक यात्र वृत्तांत और इतिहास लेखन का सम्मिश्रण है। इतिहास के विद्यार्थियों के अलावा भ्रमण के शौकीनों के लिए भी यह पुस्तक काफी उपयोगी साबित होगी।

यह पुस्तक भारत और पूर्वी एशियाई देशों के बीच आध्यात्मिक व सांस्कृतिक संबंधों की जड़ें तलाशने और इन देशों में मौजूद अनेकता के बीच एकता के सूत्र स्थापित करने का प्रयास करती है।

पुस्तक : ऑन द ट्रेल ऑफ बुद्ध -ए जर्नी टू द ईस्ट

लेखक : दीपांकर एरन

प्रकाशक : नियोगी बुक्स

मूल्य : 1995 रुपये


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