लंदन से एमबीए करने के बाद कॉरपोरेट में नौकरी छोड़ जंगल में जा बसा ये दंपती
ये एक ऐसे माता-पिता की कहानी है जो क्वालिटी लाइफ और बच्चों को प्रकृति के बीच बड़ा करने के लिए पेंच (मप्र) के जंगलों में बस गए हैं।
अभिलाषा सक्सेना इंदौर। समय से तेज भागते और हांफते शहर। आपाधापी भरी जिंदगी। दुष्प्रभाव से हर शहरी वाकिफ है। लेकिन दोनों हाथों में लड्डू नहीं मिलता। अंतत: प्राथमिकता तय करनी पड़ती है। सेहत या दौलत? आपाधापी या शांति? इंदौर के इस दंपती ने दूसरा विकल्प चुना। बीते बरस से वे बच्चों सहित जंगल के बीच आशियाना बना रह रहे हैं। उन्होंने सेहत और सुकून की खातिर शहर की उस सुविधा संपन्न जिंदगी को छोड़ने का रिस्क लिया, जो दूसरों को सोचने पर मजबूर करता है।
ये एक ऐसे माता-पिता की कहानी है जो क्वालिटी लाइफ और बच्चों को प्रकृति के बीच बड़ा करने के लिए पेंच (मप्र) के जंगलों में बस गए हैं। लाखों की नौकरी से लेकर आधुनिक सुख- सुविधाओं को दरकिनार किया। अब घने जंगलों के बीच रंग बिरंगी तितलियां पकड़ते, चिड़िया और जानवरों की तरह-तरह की आवाजें सुनते, मौसम के साथ बदलते जंगलों की रंगत को महसूस करते हुए चार साल का बेटा और चार महीने की बेटी बड़ी हो रही है।
इंदौर में पली-बढ़ी हर्षिता शाकल्य ने लंदन से एमबीए करने के बाद कार्पोरेट में नौकरी की और उसके बाद पति के साथ मिलकर इंदौर में ही अपनी बेकरी एंड ब्रांड कंसल्टिंग फर्म स्थापित की। दोनों का बिजनेस बहुत अच्छा चल रहा था। व्यस्तता इतनी थी कि वीकेंड्स में भी काम पर निकल जाते थे। इसी बीच हर्षिता के बेटे कैजल ने जन्म लिया। उस समय भी वो काम की व्यस्तता के चलते बच्चे को समय न दे पाने को लेकर दुखी रहती थीं। मन ही मन सोच लिया था कि अब अफरा-तफरी वाली जिंदगी नहीं जीना है। बच्चों को समय देना है और उन्हे प्रकृति के करीब रखना है। इसी बीच किसी ने बताया कि पेंच राष्ट्रीय पार्क के पास गांव में बने एक रिसोर्ट में पढ़े लिखे सहायक की जरूरत है। बिजनेस बंद कर बेटे को लेकर चल दिए जंगलों की ओर।
हर्षिता कहती हैं, हमने तो शहर में अपनी जिंदगी को मानो गुलाम बना ही दिया था, बच्चों को भी यही गुलामी दे रहे थे। मैं अपने बच्चों पेड़ की टहनियों पर झूलते, जंगल में नंगे पैर घूमते, तितलियों को पकड़ते और सेहत-सुकून संग बढ़ते देखना चाहती थी। एक समय ऐसा था कि काम के चलते जीवन का आनंद लेने का मौका ही नहीं मिलता था। उस जिंदगी से ऊब होने लगी थी। आज हम और हमारे बच्चे इस घने जंगल में किंगसाइज लाइफ यानी भरपूर जिंदगी जी रहे हैं।
अस्पताल की जरूरत नहीं...
हर्षिता कहती हैं जब हम शहर की जिंदगी जी रहे थे तो धूल, धुंआ और प्रदूषण की वजह से एलर्जी और उससे सर्दी, जुकाम की समस्या अक्सर रहती थी। यहां पर प्रदूषण बिलकुल नहीं है। शुद्ध हवा में घूमते हैं। मौसमी फल, सब्जियां, जैविक अन्न खाते हैं तो किसी तरह की बीमारी नहीं होती। बच्चे भी यहां बिलकुल स्वस्थ रहते हैं। कुछ दिन के लिए शहर जाते हैं तो वहां बीमार होने लगते हैं।
इस तरह दे रहे शिक्षा...
बच्चे को स्कूल भेजने की जगह हर्षिता उसे होम स्कूलिंग दे रही हैं। सिर्फ पढ़ाई ही नहीं वो संगीत, योग, कुकिंग, फार्मिंग और दूसरी एक्टिीविटीज भी सीखता है। बिना स्कूल जाए बेटा कैजन हिंदी और अंग्रेजी भाषा अच्छे से बोल लेता है। इसके अलावा गांव के लोगों के साथ रहकर उसने उनकी भाषा भी सीख ली है।
जीने की राह ये भी...
जंगल में बने नजदीकी रिसोर्ट में नौकरी के अलावा हर्षिता यहां की महिलाओं संग अचार, जैम और कई सामान बनाती हैं। इनकी ब्रांडिंग और मार्केटिंग कर खुद को और महिलाओं को आर्थिक मदद मुहैया करा रही हैं। स्थानीय कारीगरों के बांस और मिट्टी के बर्तनों को भी बाहर भेजने में मदद करती हैं।
कमाई कम तो खर्च भी सीमित...
हर्षिता और आदित्य कहते हैं, यहां आने से कमाई 10 गुना तक घट गई लेकिन हमें इसका कोई दुख नहीं है क्योंकि उस कमाई के लिए हम जो दे रहे थे उसकी भरपाई बाद में नहीं हो पाती। आज हम दोनों एक-दूसरे को और अपने बच्चों को अपना भरपूर समय दे पा रहे हैं। कमाई कम है तो खर्चे भी बहुत कम हैं इसलिए किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होती।