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भाजपा पर भारी दबाव-प्रभाव की राजनीति

चुनाव के मुहाने पर खड़ी पार्टी के निर्णयों का विरोध कर मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाले भाजपा के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी का रूठना कोई अनहोनी घटना नहीं थी। दरअसल इसकी पटकथा तभी लिखी जा चुकी थी जब उनका नाम पहली सूची में नहीं आया और उन्हें संकेत मिले कि उनके दरबारी हरिन पाठक और भावनगर के सांसद राज

By Edited By: Published: Thu, 20 Mar 2014 10:10 PM (IST)Updated: Thu, 20 Mar 2014 10:10 PM (IST)

[प्रशांत मिश्र] चुनाव के मुहाने पर खड़ी पार्टी के निर्णयों का विरोध कर मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाले भाजपा के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी का रूठना कोई अनहोनी घटना नहीं थी। दरअसल इसकी पटकथा तभी लिखी जा चुकी थी जब उनका नाम पहली सूची में नहीं आया और उन्हें संकेत मिले कि उनके दरबारी हरिन पाठक और भावनगर के सांसद राजेंद्र सिंह राणा का टिकट गुजरात से कट सकता है। आडवाणी और उनके करीबियों को लगा कि ऐन वक्त पर दबाव की राजनीति ही उनके दरबारियों को बचा सकती है। इसके तुंरत बाद भाजपा के मध्य प्रदेश प्रभारी अनंत कुमार ने भोपाल के सांसद कैलाश जोशी से संपर्क साधा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भरोसे में लिया और भोपाल सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव आडवाणी के सामने पेश कर दिया गया। दिल में अब शायद राज्यपाल बनने की इच्छा पाल रहे कैलाश जोशी के लिए भी इससे अच्छा अवसर नहीं था। इसके बाद सिर्फ सही वक्त का इंतजार हो रहा था।

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बुधवार को संसदीय बोर्ड की बैठक शुरू हुई तो पर्दा हटने लगा था। अनंत कुमार संसदीय बोर्ड के सचिव भी हैं, लेकिन बुधवार को जब बैठक से वह नदारद दिखे तो कुछ सदस्यों को आश्चर्य भी हुआ। उन्होंने बोर्ड की बैठक से अनुपस्थित रहने का जो तर्क दिया था वह शायद किसी के गले से नहीं उतरा। हालांकि 20 मार्च को उनके यहां वार्षिक श्राद्ध था। लेकिन, विमान को साइकल की तरह उपयोग करने वाले अनंत कुमार यदि चाहते तो बोर्ड की बैठक के बाद भी बेंगलूर जा सकते थे। आडवाणी भी बैठक से दूर रहे।

गांधीनगर से आडवाणी न सिर्फ पांच बार चुनाव जीत चुके हैं बल्कि कुछ ही दिन पहले फिर वहीं से मैदान में उतरने की इच्छा का सार्वजनिक खुलासा भी कर चुके थे। पिछले कुछ महीनों में वह घूम-घूम कर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनावी उत्साह का बखान भी करते रहे हैं। इसके जरिये यह संकेत देने की कोशिश थी कि अब दिल में कोई दरार नहीं, लेकिन शायद ऐसा नहीं था। जो कुछ बचा-खुचा था वह उनके दरबारियों के मोह ने पूरा कर दिया।

दरअसल, पार्टी की जीत से ऊपर अपनी जीत साबित करने की रणनीति हावी थी। शिवराज फिलहाल इस खींचतान से दूर रहकर सिर्फ लोकसभा प्रदर्शन पर ध्यान देना चाहते हों, लेकिन उन्हें भी शायद यह याद होगा कि एक वक्त पर आडवाणी उन्हें मोदी से अच्छा प्रशासक होने का तमगा देने की कोशिश कर रहे थे। गांधीनगर तो आडवाणी की पहली पसंद है ही लेकिन रूठने से पहले उन्हें इसका भी अहसास था कि स्थानीय स्तर पर कुछ विरोध भी है।

बीते 24 घंटे में पार्टी मुख्यालय, आडवाणी के घर और संघ कार्यालय में मंत्रणाओं का दौर जारी रहा। बृहस्पतिवार सुबह भाजपा के पीएम पद के दावेदार मोदी भी अपने स्वभाव के विपरीत बड़ा दिल दिखाते हुए आडवाणी के घर गए और उन्हें मनाने की कोशिश की। कूटनीति के माहिर राजनाथ सिंह ने भी दो बार आडवाणी से चर्चा की। और संघ की मंशा भांपकर यह बयान जारी कर दिया कि आडवाणी खुद ही अपनी सीट चुन लें तो उनके लिए वापसी का रास्ता तैयार हो गया था। लेकिन, पार्टी के बड़े नेतागण शायद यह भूल गए कि हार-जीत के इस खेल में पार्टी हार गई।

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