अयोध्या विवादित ढांचा मामलाः आडवाणी-जोशी की मामले में आज सुनवाई
सीबीआई नये सिरे से याचिका नहीं दाखिल कर सकती। इस मामले में कोर्ट गुरुवार को सुनवाई करेगा।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने की साजिश से आरोप मुक्त हो चुके भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ने लखनऊ की अदालत में एक साथ मुकदमा चलाने का विरोध किया है। नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित दलील दाखिल कर कहा है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही फैसला दे चुका है और वह फैसला सीबीआइ पर भी बाध्यकारी है। सीबीआई नये सिरे से याचिका नहीं दाखिल कर सकती। इस मामले में कोर्ट गुरुवार को सुनवाई करेगा।
ये मामला अयोध्या ढांचा विध्वंस में साजिश का मुकदमा चलाने का है। सीबीआइ ने एसएलपी दाखिल कर इन नेताओं सहित 11 लोगों को आरोपमुक्त करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के 20 मई 2010 के आदेश को चुनौती दी है। सीबीआइ ने आडवाणी, जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह सहित उन सभी आरोपित नेताओं, जिनके खिलाफ रायबरेली की अदालत में मुकदमा चल रहा है, पर लखनऊ की विशेष अदालत में कारसेवकों के साथ संयुक्त ट्रायल चलाने की मांग की है। पिछली सुनवाई पर कोर्ट ने सभी पक्षों को लिखित जवाब दाखिल करने की छूट दी थी।
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आडवाणी और जोशी की ओर से बुधवार को दाखिल किये गये लिखित जवाब में कहा गया है आडवाणी ,जोशी व 6 अन्य नेताओं पर रायबरेली की अदालत में मुकदमा चल रहा है और असलम भूरे के मामले में दिए गए सुप्रीमकोर्ट के फैसले को देखते हुए लखनऊ की अदालत में कारसेवकों और अन्य के साथ संयुक्त ट्रायल चलाने का सवाल ही नहीं उठता। भूरे का फैसला बाध्यकारी है और उस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार व क्यूरेटिव याचिका भी खारिज हो चुकी है। कहा है कि सुप्रीमकोर्ट अनुच्छेद 142 में मिली संवैधानिक शक्तियों में भी अंतिम और बाध्यकारी फैसले के असर को खत्म नहीं कर सकता।
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नेताओं का कहना है कि राज्य सरकार ही हाईकोर्ट से परामर्श करके लखनऊ की विशेष अदालत में एफआइआर संख्या 198 (नेताओं का मुकदमा) का मुकदमा चलाने का अधिकार दे सकती है। ये कानून की तय प्रक्रिया है जिसमें अदालत किसी अभियुक्त की आजादी को बाधित कर सकती है। सुप्रीमकोर्ट इस तय प्रक्रिया को नजरअंदाज नहीं कर सकता, जिससे कि अभियुक्तों के मौलिक अधिकार बाधित होते हों।
कहा गया है कि हाईकोर्ट ने 20 मई 2010 के आदेश में सिर्फ 12 फरवरी 2001 के आदेश को सही ठहराया है। जिसमें हाईकोर्ट ने नेताओं का मुकदमा रायबरेली से लखनऊ स्थानांतरित करने की अधिसूचना को गलत ठहरा दिया था और नेताओं पर आरोप निरस्त कर दिये थे। उस आदेश में हाईकोर्ट ने ये भी कहा था कि अगर सीबीआइ के पास साजिश रचने के सबूत हैं तो वो रायबरेली की अदालत में जहां मामला लंबित है पूरक आरोपपत्र दाखिल कर सकती है। नेताओं का कहना है कि सीबीआइ ने हाईकोर्ट के 12 फरवरी 2001 के आदेश को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती नहीं दी थी।
तीसरे पक्षकार मोहम्मद असलम भूरे ने 2001 के उस आदेश को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी थी। जिसे तीन जजों की पीठ ने 29 नवंबर 2002 को खारिज कर दिया था। तब कोर्ट ने कहा था कि एफआईआर संख्या 198 में (नेताओं का मामला) ट्रायल चलाने के लिए रायबरेली में विशेष अदालत अभी भी है। ये मुकदमा रायबरेली की विशेष अदालत में चलेगा। इसके बाद कोर्ट ने भूरे की पुनर्विचार और क्यूरेटिव याचिकाएं भी खारिज कर दी थीं। ऐसे में ये मामला अब अंतिम हो चुका है। भूरे की याचिका में सीबीआइ भी पक्षकार थी इसलिए सीबीआइ अब अलग से एसएलपी नहीं दाखिल कर सकती।
कहा गया है कि सीबीआइ ने हाईकोर्ट के आदेश पर लखनऊ की विशेष अदालत द्वारा अभियुक्तों को आरोपमुक्त करने के 4 मई 2001 के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में रिवीजन पिटीशन दाखिल की थी जो कि हाईकोर्ट ने 20 मई 2010 को खारिज कर दी थी और आरोपमुक्त करने के फैसले को सही ठहराया था। सीबीआइ ने उसके खिलाफ 167 दिन की देरी से ये एसएसपी दाखिल की है और देरी का कोई संतोषजनक कारण नहीं दिया है। कहा है कि सीबीआइ ने 16 जून 2001 को राज्य सरकार से इस मामले में नयी अधिसूचना जारी करने का आग्रह किया था लेकिन राज्य ने अनुरोध ठुकरा दिया था।