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Chhattisgarh News: 195 साल पहले दंतेश्वरी शक्तिपीठ में हुई थी नरबलि

दंतेश्वरी शक्तिपीठ में आखिरी बार 15 मनुष्यों 10 भैंसे और 600 बकरों की बलि 23 सितंबर 1825 को दी गई थी।

By Sanjeev TiwariEdited By: Published: Wed, 20 May 2020 12:00 AM (IST)Updated: Wed, 20 May 2020 12:00 AM (IST)
Chhattisgarh News: 195 साल पहले दंतेश्वरी शक्तिपीठ में हुई थी नरबलि
Chhattisgarh News: 195 साल पहले दंतेश्वरी शक्तिपीठ में हुई थी नरबलि

हेमंत कश्यप, जगदलपुर।  प्राचीन बस्तर तंत्र साधना का केंद्र भी था। यहां दंतेश्वरी शक्तिपीठ सहित अंदरूनी गांवों के ख्यातिनाम गुड़ियों में कुंवारी कन्या से लेकर वयस्क पुरुषों की बलि दी जाती थी। दंतेश्वरी शक्तिपीठ में आखिरी बार 15 मनुष्यों, 10 भैंसे और 600 बकरों की बलि 23 सितंबर 1825 को दी गई थी। ब्रिटिश सुपरिंटेंडेंट कैप्टन गेव्हिन आर क्राफर्ड की पहल पर शक्तिपीठ में यह प्रथा बंद हो पाई। नरबलि के लिए तत्कालीन चालुक्य नरेश महिपाल देव को नागपुर के भोंसला शासकों ने दंडित किया था। दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी शक्तिपीठ पौराणिक मान्यता के चलते विश्वविख्यात है।

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केंद्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण भारत सरकार के अनुसार डंकनी-शंखनी नदियों के संगम के मध्य देवी सती का दांत गिरने की वजह से यह स्थल दंतेश्वरी शक्तिपीठ के नाम से चर्चित है। इस मंदिर में 195 साल पहले तक नरबलि होती रही है। इसके कई प्रमाण सामने आए हैं। 1800 ईस्वी में बस्तर रियासत भोंसले शासन के नियंत्रण में आ गई थी। उन दिनों दंतेश्वरी शक्तिपीठ में तीन वर्ष के अंतराल में नरबलि समारोह आयोजित किया जाता था, इसलिए अंग्रेज अफसरों की नजर दंतेवाड़ा मंदिर पर थी। उन्होंने गुप्तचर भेज कर नरबलि समारोह की पूरी रिपोर्ट मंगवाई थी।

उक्त नरबलि के संदर्भ में लाला जगदलपुर अपनी किताब 'बस्तर इतिहास एवं संस्कृति' में लिखते हैं कि 23 सितंबर 1825 को राजा महिपाल देव जगदलपुर से रथारूढ़ होकर दंतेवाड़ा पहुंचे थे। उनके साथ फूलों से सज्जित चार रथ थे और लगभग 200 सशस्त्र व्यक्तियों का काफिला था। रात 12 बजे गुप्तचर तथा कुछ व्यक्तियों ने दंतेश्वरी मंदिर में छिपकर नरबलि का रहस्यमय एवं रोमांचक दृश्य देखा। घटनास्थल पर चालुक्य नरेश महिपाल देव उपस्थित थे। नगाड़े बज रहे थे। शंखनाद हो रहा था। मंदिर के सामने हवन कुंड था। हवन कुंड के सामने कतार में 15 मनुष्य खड़े कर दिए गए थे। जल्लाद आया और अपने तेज हथियार से एक-एक कर 15 नरमुंड हवन कुंड में उतार दिए।

कई वधिकों ने मिलकर 10 भैंसे और 600 बकरों की बलि दी। देवी को अर्पित मनुष्यों में छह गोसाई जाति के तथा नौ अन्य अलग-अलग जातियों के थे। जो भिखारी उन दिनों दुर्भाग्य से बस्तर पहुंच जाते थे, उन्हें पकड़कर बलि देने के लिए कारागार में बंद कर दिया जाता था। नरबलि हेतु बाहरी मनुष्य न मिलने की स्थिति में स्थानीय व्यक्तियों में किसी का भी चयन कर लिया जाता था।

 दो साल चली जांच में नहीं मिला साक्ष्य

राजा भैरम देव के शासनकाल में भी दंतेश्वरी मंदिर में नरबलि होने की चर्चा रही, जिसके चलते 1885 से 1886 तक जांच चलती रही। राजा भैरमदेव को पूछताछ के लिए रायपुर बुलाया गया किंतु नरबलि का कोई प्रमाण नहीं मिल पाया। भिखारियों को पकड़कर बलि देने की प्रथा के चलते बस्तर के लोगों में यह धारणा बन गई थी कि भीख मांगने वाले की बलि दी जाती है। इस दहशत के चलते बस्तर के आदिवासी भीख नहीं मांगते।

हल्बी में मिलते हैं दो शब्द

हल्बी में नरबलि के लिए संबोधित दो सांकेतिक शब्द मिलते हैं- हेले और फिटकुर। हेले का अर्थ होता था नरबलि और फिटकुर शब्द का अर्थ होता था देवी को आदमी का रक्तदान। नरबलि हेतु जिस गड्ढे में व्यक्ति को छिपाया जाता था, उसे मेलेक या मेलिया खोदरा कहते थे। बस्तर में नरबलि हेतु खांडा चलाने वाले कुछ जाति विशेष के लोग थे जिन्हें तत्कालीन राजाओं ने चित्रकोट से 11 किमी दूर राजपुर गांव भेंट किया था।


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