आजादी की दास्तांः नफरत की आंधी में भी कम नहीं हुए सद्भाव के झोंके, जान पर खेलकर बचाई दूसरों की जान
आजादी के वक्त पंजाब के हालात देश के अन्य हिस्सों से काफी अलग थे। पूरे देश में जश्न मनाया जा रहा था लेकिन पंजाब में मार काट मची हुई थी। दंगों में कई को जान गंवानी पड़ी। लेकिन नफरत की इस आंधी में हिंदू-मुसलमानों ने एक-दूसरे की जान बचाई।
नितिन उपमन्यु, जालंधर। आज सआदत हसन मंटो के लिखे एक किस्से से शुरुआत करते हैं। किस्सा एक ऐसे व्यक्ति का है, जो लाहौर के एक चौक पर लगे सर गंगाराम के पुतले पर अपना गुस्सा जाहिर करना चाहता था। यह व्यक्ति पुतले को जूतों की माला पहनाना चाहता था, लेकिन इससे पहले ही वह पुलिस की गोली से घायल हो गया। बाद में उसे सर गंगाराम अस्पातल में ही इलाज के लिए भर्ती किया गया। मंटो ने अपनी इस छोटी सी कहानी में सांप्रदायिक नफरत पर जो कटाक्ष किया है, वह आंखें खोलने वाला है।
अब बात आजादी की नई सुबह की। पंजाब के हालात देश के अन्य हिस्सों से काफी अलग थे। पूरे देश में जश्न मनाया जा रहा था, लेकिन पंजाब में मार काट मची हुई थी। दोनों तरफ (भारत व पाकिस्तान) से आने-जाने वाले लाखों लोगों को बंटवारे के बाद हुए दंगों में जान गंवानी पड़ी, लेकिन दोनों ही ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी, जो नफरत की इस आंधी में सद्भाव के झोंकों से मरहम लगाने में जुटे हुए थे। दरअसल, ये वो लोग थे, जिन्होंने आजादी की असली कीमत को समझा और प्रयास किया कि नफरत के इस माहौल को जल्द खत्म कर तरक्की की राह पकड़ी जाए।
शोधकर्ता नरेश जौहर बताते हैं, 'मार काट वाले माहौल में अच्छे लोग भी बहुत थे। अमृतसर के हाथी गेट में दंगाइयों की भीड़ ने दो हिंदू लड़कियों को अगवा कर लिया। मुस्लिम लीग के जनरल सेक्रेटरी मीर सैयद वहां पहुंच गए और तब तक नहीं हटे, जब तक इन लड़कियों को छोड़ नहीं दिया गया।' इसी तरह जब भीड़ स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेता सैफुद्दीन किचलू के घर को जलाने के लिए आमादा थी, तब तेजा सिंह नाम के एक सिख नेता 40 लोगों के साथ उनकी कोठी के बाहर पहरे पर बैठ गए। एक माह तक वह पहरा देते रहे और किचलू व उनके परिवार को यहां से सुरक्षित निकाल कर दिल्ली भेजा। हालांकि, बाद में वह कोठी को जलने से नहीं बचा सके। नरेश जौहर के अनुसार मुस्लिम बहुल मालेरकोटला में हिंसा की कोई घटना नहीं हुई, क्योंकि स्थानीय लोगों ने आगे आकर हिंसा को फैलने से रोका।
इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़ बताते हैं, '26 मार्च, 1947 तक यह तय हो गया था कि विभाजन होकर रहेगा। हिंसा के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू पंजाब के दौरे पर आए। तब तक यहां 11 हजार से ज्यादा घर जलाए जा चुके थे। नेहरू ने ऐसे हालात देखकर यहां तक कह दिया था कि यदि मैं यहां रह रहा होता तो छोड़ कर चला जाता या आत्महत्या कर लेता, लेकिन यहां के लोगों में देशप्रेम को जज्बा कमाल है।'
कोछड़ के अनुसार सैफुद्दीन किचलू, डा. सत्यपाल, डा. आसिफ मोहम्मद बशीर और सेठ बालकृष्ण जैसे नेता गली-गली जाकर लोगों को समझा रहे थे, लेकिन लाहौर से लाशों से भरी ट्रेन अमृतसर पहुंचने के बाद हालात और बिगड़ गए। फिर अमृतसर से होकर लाहौर जाने वाली टे्रन भी लाशों से भरकर रवाना हुई। यह भयावह दौर था।'
लाहौर में तब सीआइडी इंस्पेक्टर रहे भरपूर सिंह मोहकल ने यह सब अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने सुरेंद्र कोछड़ के साथ जिक्र किया था कि किस तरह सिखों ने अपनी पगड़ियां खोल कर निर्वस्त्र की गईं महिला की इज्जत बचाई थी। लोग दूसरे मजहब के लोगों को अपने घरों में छिपा कर उनकी जान बचा रहे थे। ऐसा दोनों ओर हो रहा था।
पंजाब विधानसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर दरबारी लाल पाकिस्तान के गुजरात स्थित गांव गोलेकी से भारत पहुंचे थे। वे आपबीती बताते हुए कहते हैं, 'मैं वहां एक मदरसे में पढ़ता था। एक दिन घर लौटते हुए मैंने दूर से हमलावर पठानों को आते देखा। वो घोड़ों-खच्चरों पर सवार होकर लूटपाट करते हुए हमारे गांव की ओर बढ़ रहे थे। मैं भाग कर घर पहुंचा और मां को बताया। गांव के मुस्लिमों में हमें अपने घर में छिपा लिया। पठानों ने ग्रामीणों को बहुत पीटा, लेकिन किसी ने उनको हमारे बारे में नहीं बताया। गांव के लोगों की बदौलत हम जिंदा भारत पहुंच सके। उस काले दौर में मारने वाले बहुत कम थे, तो बचाने वाले कहीं ज्यादा।'
इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़ कहते हैं, 'मैं अकसर पाकिस्तान जाता रहता हूं। यहां से गए मुस्लिम परिवारों से भी मिलता हूं। वो रोते हुए बताते हैं कि कैसे हिंदुओं ने उन्हें अपने घरों में छिपाकर उनकी जान बचाई थी।'