युवा उद्यमी तलाशने लगे समाधान और फिर सामने आने लगे एक से बढ़कर एक इनोवेशन
तकनीकी संस्थानों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स से लेकर नए युवा उद्यमियों ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया। वे भी अपने तरीके से समाधान तलाशने लगे और फिर सामने आए एक से बढ़कर एक नतीजे।
नई दिल्ली [अंशु सिंह]। देश-दुनिया में कई पीढ़ियों ने पहली बार देखी है ऐसी महामारी। कोई भी इसके लिए तैयार नहीं था। फिर भी देशवासियों ने हिम्मत नहीं हारी। अपने-अपने स्तर पर जुट गए इसे हराने में। इसमें देश के युवा कहां पीछे रहने वाले थे।
तकनीकी संस्थानों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स से लेकर नए युवा उद्यमियों ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया। वे भी अपने-अपने तरीके से तलाशने लगे समाधान और फिर सामने आने लगे एक से बढ़कर एक इनोवेशन। इस खबर के माध्यम से हम आपको कुछ ऐसे ही युवा इनोवेटर्स के बारे में बता रहे हैं जो नि:स्वार्थ भाव से देश की सेवा के लिए आगे आए हैं।
कौन कहता है कि हीरो सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर दिखाई देते हैं। आज हमारे आसपास कई नए रोल मॉडल्स उभर कर सामने आए हैं। जैसे इस महामारी के बीच एक दिन जब आइआइटी मद्रास के प्रोफेसर्स ने स्टूडेंट्स के समूह के सामने चैलेंज रखा कि वे कुछ ऐसा बनाकर दिखाएं, जिससे कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की मदद की जा सके, तो मैकेनिकल इंजीनियरिंग ब्रांच के सेकंड ईयर के स्टूडेंट सात्विक बाटे एकदम से आगे आए।
उन्हें कुछ समय से महसूस हो रहा था कि स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले फेसशील्ड की कीमत थोड़ी ज्यादा है। इसके बाद उन्होंने कम कीमत पर फेसशील्ड तैयार करने का फैसला किया। बिना समय गंवाए सात्विक ने साथी स्टूडेंट्स एवं मेंटर्स से बातचीत की और 24 घंटे के भीतर एक प्रोटोटाइप विकसित कर दिखाया। सात्विक बताते हैं, ‘वैसे तो हमारे प्रोफेसर्स ने कुछ सार्थक करने के लिए प्रेरित किया लेकिन लॉकडाउन के कारण लॉजिस्टिक्स को लेकर थोड़ी मुश्किलें आईं।
फिर भी कहते हैं न कि जब नीयत अच्छी हो, तो राह मिलने में देर नहीं लगती। हम साधारण स्टेशनरी आइटम से कम कीमत का फेसशील्ड तैयार करने में सफल रहे। हम बाजार से काफी कम दर पर यानी 750 रुपये में 30 दिन का पैक (एक फेसशील्ड की कीमत 30 रुपये) तैयार करने में सफल रहे।‘
तैयार किया री-यूजेबल फेस शील्ड : सात्विक ने आगे बताया कि मैन्युफैक्चरिंग का खर्च कम रखने के लिए उन्होंने 300 जीएसएम, स्किन सेफ वर्जिन पीईटी शीट्स (हीट रेसिस्टेंट प्लास्टिक) से वाइजर तैयार किया, जबकि इंजेक्शन मोल्डिंग तकनीक से हेडगियर तैयार किए गए। इसमें उन वस्तुओं का इस्तेमाल किया गया, जो 160 डिग्री सेल्यियस तापमान को सहन कर सकते हैं।
इसके निर्माण में चेन्नई स्थित ऑटोमेटिव स्टार्ट अप ‘ सीवाई4‘ ने हमारी मदद की। इसके अलावा, आइआइटी मद्रास के प्री-इंक्यूबेटर सेल ‘निर्माण‘ का भी सपोर्ट मिला। इस समय ये लोग 5000 हेडगियर और 50 हजार वाइजर की आपूर्ति कर रहे हैं। आने वाले समय में देश के अन्य हिस्सों में भी सप्लाई करने की योजना है। ‘एक्सिस डिफेंस लैब‘ के संस्थापक सात्विक कहते हैं, ‘फेसशील्ड बनाते समय हमने सेफ्टी को सबसे अधिक प्राथमिकता दी है।
इस फेस शील्ड की खास बात यह रही कि इसे री-यूज भी किया जा सकता है, जिसके लिए सिर्फ वाइजर को रोजाना बदलना होगा। इसके अलावा, हमारी कोशिश है कि बिक्री से होने वाले लाभ से जरूरतमंदों को नि:शुल्क फेसशील्ड उपलब्ध कराएं। आने वाले समय में हम कुछ अन्य स्टार्टअप के साथ भी तालमेल कर सकते हैं।’
बनाया स्मार्ट ‘ऐली‘ डस्टबिन :
ओडिशा के प्रवीण कुमार दास लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में इलेक्ट्रॉनिक एवं कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग के थर्ड ईयर के स्टूडेंट हैं। इनोवेशन में भी अच्छी रुचि रखते हैं। ऐसे में जब कॉलेज के प्रोफेसर्स द्वारा स्टूडेंट्स के सामने कोविड-19 से लड़ाई में भागीदार बनने का प्रस्ताव आया, तो वे बिना देर किए उस अभियान में शामिल हो गए। प्रवीण बताते हैं, ‘इन दिनों शारीरिक दूरी बनाकर रखने पर काफी जोर दिया जा रहा है। लेकिन तमाम एहतियात बरतने के बावजूद संक्रमित मरीजों के बीच काम कर रहे चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों के संक्रमण का खतरा बना रहता है।
मरीजों से संपर्क में आने के अलावा वेस्ट डिस्पोजेबल के दौरान भी जोखिम होता है। ऐसे में हमने एक ऐसा स्मार्ट व इंटेलिजेंट डस्टबिन ‘ऐली‘ डेवलप किया है, जो वर्बल कमांड से संचालित किया जा सकता है यानी उसके संपर्क में आए बिना कचरे को डिस्पोज किया जा सकता है।’ प्रवीण ने बताया कि उन्होंने डस्टबिन का एल्गोरिद्म ऐसा तैयार किया है, जिससे एक बार कमांड फीड कर दिए जाने के बाद वह खुद-ब-खुद अपना रास्ता तय कर लेता है।
इसके अलावा, इसमें कुछ इंटरैक्टिव फीचर्स भी हैं, जिससे वह मरीजों या आम लोगों के सवालों का जवाब दे सकता है। फिलहाल, कैंपस में ही इसकी पायलटिंग हुई है। कुछ कंपनियों से बातचीत चल रही है, ताकि इसका प्रोडक्शन किया जा सके। इससे पहले, प्रवीण ने मेंटर्स के सहयोग से कवच नामक एक डिवाइस तैयार किया था, जो पेंडेंट की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। जैसे ही कोई एक मीटर की दूरी को लांघता है, तो वह वाइब्रेट करने के साथ ही एलार्म बजाने लगता है और आप सतर्क हो जाते हैं। इसके अलावा, यह हर 30 मिनट में हाथ धोने के लिए भी एलर्ट करता है।
हार्डवेयर स्टार्टअप ने बनाया इंट्यूबेशन बॉक्स :
आइआइटी दिल्ली के एल्युमिनाई अभिजीत राठौर ने चार साल इसरो में काम किया है। वहीं उन्हें दिनेश कनगराज मिले और दोनों ने आइआइटी मद्रास के इंक्यूबेशन सेंटर के सहयोग से ‘फैबहेड ऑटोमेशन’ नाम से अपना एक हार्डवेयर स्टार्टअप शुरू किया। इसके जरिए ये लोग कार्बन कंपोजिट, एयरोस्पेस कंपोनेंट्स, डिफेंस में इस्तेमाल होने वाले इक्विमेंट्स आदि का निर्माण करते हैं। लेकिन जब कोविड-19 ने दस्तक दी, तो इन्होंने कुछ अलग करने के बारे में सोचा।
बताते हैं अभिजीत, ‘हमने पीपीई की कमी और डॉक्टरों समेत स्वास्थ्यकर्मियों के संक्रमण की तमाम खबरें देखीं। लगा कि कुछ करना चाहिए। इसके बाद हमने फैब्रिकेटेड इंट्यूबेशन बॉक्स तैयार किए, जो वेंटिलेटर पर रखे गए संक्रमित रोगियों के चेहरे को चारों ओर से ढक सकता है। इससे डॉक्टर्स और मेडिकल स्टाफ को संक्रमण से बचाया जा सकता है।’
दोस्तों, संभवत: आप जानते होंगे कि कोविड-19 के गंभीर मरीजों को वेंटिलेटर पर रखा जाता है, जिसमें उनके विंड पाइप में ऑक्सीजन ट्यूब इंसर्ट किया जाता है। इस प्रक्रिया को इंट्यूबेशन कहते हैं। इसमें मरीज के एयर पाइप से तरल पदार्थ बाहर निकलता है, जो वहां काम करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों में संक्रमण के खतरे को बढ़ा सकता है।
हम सभी देख रहे हैं कि कैसे आज पूरी दुनिया अपने-अपने तरीके और टेक्नोलॉजी की मदद से इस महामारी से जंग लड़ रही है, फिर भी फ्रंटलाइन में ड्यूटी करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों का जोखिम कम नहीं हुआ है। अभिजीत बताते हैं, ‘हमने विदेश के कुछ विशेषज्ञों से बात की और पास में उपलब्ध कच्ची सामग्री से पांच इंट्यूबेशन बॉक्स तैयार किए। इसे आसानी से सैनिटाइज कर री-यूज किया जा सकता है। फिलहाल, चेन्नई के कुछ अस्पतालों में इसका इस्तेमाल हो रहा है। हम तमिलनाडु और केरल के अन्य अस्पतालों से भी संपर्क में हैं। जैसा ऑर्डर मिलेगा, उसके हिसाब से आपूर्ति करेंगे।’
3-डी प्रिंटर से तैयार किया फेसशील्ड :
इसके अलावा, अभिजीत और उनकी 21 लोगों की टीम ने 3-डी प्रिंटर की मदद से फेसशील्ड्स भी तैयार किए हैं, जिनका वजन 50 ग्राम से भी कम है। फ्लेक्सिबल प्लास्टिक फ्रेम से बने इस पीपीई किट को लंबे समय तक पहना जा सकता है। इस समय, चेन्नई के कुछ अस्पतालों में इनका इस्तेमाल हो रहा है।
खुद को साबित कर दिखाने का मौका :
दोस्तों, ऐसा नहीं है कि इन युवा इनोवेटर्स के सामने कोई चुनौती या परेशानी नहीं आई। लॉकडाउन के कारण सामानों की खरीद मुश्किल भरी रही। फंड्स भी पर्याप्त नहीं थे। फिर भी इन्होंने हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की बजाय पहल की। अभिजीत कहते हैं, ‘ हम भी घर पर टीवी, नेटफ्लिक्स आदि देखने में समय बिता सकते थे। लेकिन यह हमारे सिद्धांतों के खिलाफ था।
हमने देश और समाज के लिए जो कुछ हो सकता था, वह करने का फैसला किया। पूरी टीम ने मोटिवेशन के साथ काम किया। हां, लॉकडाउन से हमारे स्टार्टअप पर असर पड़ा है। लेकिन इस मुश्किल घड़ी में कुछ सार्थक करना एक अलग संतुष्टि देता है।‘ कुछ ऐसी ही सोच रखते हैं आइआइटी गुवाहाटी में बायोसाइंस एवं बायो इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर के स्टूडेंट एवं स्टूडेंट वेंचर ‘माइटोकॉन्ड्रियल‘ के सदस्य उमंग माथुर। कहते हैं, ‘इस तरह की महामारी सदियों में एक बार आती है और हमें बहुत कुछ सिखा कर जाती है।
हम खुशकिस्मत हैं कि एक खास कंफर्ट जोन में हैं। सुरक्षित हैं। लेकिन बहुत से लोगों के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए उनकी यथासंभव मदद करना हमारा फर्ज है। हम इंजीनियर्स के सामने एक मौका आया है खुद को साबित कर दिखाने का। ये बताने का कि हम दूसरों देशों पर निर्भर रहने की बजाय भारत में ही इनोवेशन और निर्माण दोनों कर सकते हैं।’
सेल्फ मोटिवेशन से किया इनोवेशन :
उमंग की कहानी भी कम प्रेरणादायी नहीं है। वे और उनके साथी बायोमेडिकल प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे, तभी कोविड-19 का प्रसार शुरू हो गया। तब उन्होंने देश-विदेश में चल रहे प्रयोगों व इनोवेशन के बारे में अध्ययन किया और तय किया कि वे कम कीमत वाले इंट्यूबेशन बॉक्स (एयरोसोल ऑब्स्ट्रक्शन बॉक्स) बनाएंगे, जिनका निर्माण आसानी से हो सके। उमंग बताते हैं, ‘हमें ताइवान के डॉक्टर से प्रेरणा मिली थी। लेकिन उनके डिजाइन के आधार पर मैन्युफैक्चरिंग फिलहाल संभव नहीं थी, तो मैंने कॉलेज के अलग-अलग विभागों से संपर्क किया। उसके बाद सॉफ्टवेयर पर एक डिजाइन फाइनल हुआ।
चूंकि कॉलेज बंद था, तो हमने डीआरडीओ लैब से मदद ली। उन्होंने पूरा प्रोटोटाइप डेवलप कर दिया, जिसके बाद उसे दिल्ली के एम्स, ट्रॉमा सेंटर टेस्टिंग के लिए भेजा गया।‘ वे बताते हैं कि जब डॉक्टरों से पॉजिटिव फीडबैक मिला, तो उन्होंने क्राउड फंडिंग से 91 हजार रुपये इकट्ठा किए और दिल्ली से सामान की सोर्सिंग की। फिर गुरुग्राम स्थित एक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी को इसके प्रोडक्शन की जिम्मेदारी सौंपी।
उम्मीद है कि जल्द ही वहां इसका निर्माण शुरू हो जाएगा और उसे मुफ्त में अस्पतालों में वितरित किया जा सकेगा। वैसे, इसकी संभावित कीमत दो हजार रुपये के करीब होगी। मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग के डॉ. एस कनगराज व डॉ.साजन कपिल इस वेंचर की मेंटरिंग कर रहे हैं।
ड्रोन्स से कोविड-19 की लड़ाई :
चीन एवं दक्षिण कोरिया में संक्रमण से निपटने के लिए ड्रोन्स का काफी प्रयोग किया जा रहा है और वह सफल भी हो रहा है, क्योंकि पारंपरिक पद्धतियों की अपेक्षा ड्रोन्स से एक क्षेत्र को सीमित समय में 50 गुना अधिक स्पीड से कीटाणु मुक्त किया जा सकता है। इससे लोगों के मूवमेंट की निगरानी, क्वारंटाइन किए गए लोगों व बुजुर्गों तक दवाओं की इमरजेंसी डिलीवरी की जा सकती है।
ड्रोन्स से क्रॉस इंफेक्शन का खतरा नहीं रहता और संक्रमण पर भी काबू पाया जा सकता है। हमने कई प्रकार के ड्रोन्स डेवलप किए हैं, जिनमें पब्लिक मॉनिटरिंग ड्रोन्स और वॉर्निंग ड्रोन्स भी शामिल हैं। इसमें एक कैमरा और स्पीकर लगा होता है। इससे हाई रिस्क वाले क्षेत्रों की निगरानी की जा सकती है। फिलहाल, हम तेलंगाना सरकार के अलग-अलग विभागों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं।
हाल ही में करीमनगर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ने हमारे कस्टमाइज्ड ड्रोन्स से मुकरमपुर क्षेत्र में कीटाणुनाशकों का छिड़काव किया। इसके अलावा, जिला अस्पताल, बस स्टेशन, ऑटो स्टैंड एवं मार्केट में भी छिड़काव किया गया। -प्रेम कुमार विस्लावत, सीईओ, मारुत ड्रोन्स टेक लिमिटेड, तेलंगाना
मल्टी यूज वाला रोबोट :
हम सभी जानते हैं कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। जब एम्स, दिल्ली से रोबोट की मांग आई, तो हमने उन्हें ‘मिलाग्रो आइमैप-9‘ नामक रोबोट उपलब्ध कराया। यह फर्श को कीटाणुरहित कर सकता है। पहले इसमें सिर्फ पानी का प्रयोग हो सकता था।
लेकिन डॉक्टरों के फीडबैक पर अब इसमें सोडियम हाइपोक्लोराइड के घोल का इस्तेमाल किया जा सकता है। यह रोबोट एलआइडीएआर द्वारा गाइडेड और एडवांस एसएलएएम टेक्नोलॉजी से लैस है, जो इसे कहीं टकराने और गिरने से रोकती है। इसके अलावा, यह फ्लोर की मैपिंग सेकंड्स में कर सकता है।
वहीं, मिलग्रो ह्यूमनॉयड रोबोट संक्रमित मरीजों की निगरानी कर सकता है। रोबोट में लगे ऑडियो व वीडियो डिवाइस से डॉक्टर मरीज से बातचीत कर सकते हैं। यहां तक कि आइसोलेशन वार्ड में ऊब रहे मरीज इसके माध्यम से समय-समय पर अपने रिश्तेदारों से भी बात कर सकते हैं। इसकी बैटरी आठ घंटे तक चलती है। इसमें 60 से अधिक सेंसर्स, एक 3डी और एक एचडी कैमरा लगा है। -राजीव कारवाल, संस्थापक, मिलाग्रो बिजनेस ऐंड नॉलेज सॉल्युशन