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इनोवेशन ही बच्चों को आगे रखने के लिए साबित होगा 'टर्निंग प्वाइंट', पेरेंट्स ऐसे करें पहल

एजुकेशन सिस्टम में क्रिएटिविटी की बजाय रटने/रटाने पर कहीं ज्यादा जोर है जिसको जल्दी से जल्दी बदले जाने की जरूरत है। वर्तमान सरकार भी इस दिशा में आगे काम कर रही है।

By Nitin AroraEdited By: Published: Mon, 08 Jul 2019 05:42 PM (IST)Updated: Mon, 08 Jul 2019 05:42 PM (IST)
इनोवेशन ही बच्चों को आगे रखने के लिए साबित होगा 'टर्निंग प्वाइंट', पेरेंट्स ऐसे करें पहल

नई दिल्ली, जेएनएन। शिक्षा की गुणवत्ता को अंकों और डिग्री में आंकने की बजाय इनोवेशन की कसौटी पर आंकने का वक्त आ गया है। किसी स्टूडेंट को टॉपर होने का तमगा अंकों के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी क्रिएटिविटी के आधार पर मिलना चाहिए। आज जब एजुकेशन सिस्टम में बदलाव को लेकर चर्चा जोरों पर है, तब इस बारे में विचार करना और भी जरूरी हो जाता है। 62 फीसदी से ज्यादा युवा आबादी वाले देश में युवाओं को नौकरी देने वाला बनाने में सक्षम बनाना कितना जरूरी है, यह बता रहे हैं एनआइईटी, ग्रेटर नोएडा के एग्जीक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट रमन बत्रा...

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इस जुलाई में चार साल का होने जा रहे मेरे बेटे ने एक दिन मुझ से कहा कि पापा मैं वेस्ट पेपर से री-साइकिल पेपर बना सकता हूं। मैं यह सुनकर हैरान रह गया कि इतना छोटा बच्चा इनोवेशन और पर्यावरण संरक्षण की बात भला कैसे सोच रहा है। मैंने इस बारे में जब अपनी पत्नी से बात की, तो पता चला कि उसने यह सब ‘फ्लिंटो-बॉक्स’ के जरिए की जाने वाली एक्टिविटी से सीखा है, जहां खेल-खेल में बच्चों की मोटरिंग स्किल को बढ़ावा दिया जाता है। ब्रेन के साथ हाथ की स्किल के संयोजन के साथ उनकी क्रिएटिविटी बढ़ाई जाती है। इससे वे खुद से करके सीखते हैं।

जगाएं क्यूरिसिटी: अभी हमारे एजुकेशन सिस्टम में क्रिएटिविटी की बजाय रटने/रटाने पर कहीं ज्यादा जोर है, जिसको जल्दी से जल्दी बदले जाने की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि वर्तमान सरकार प्राथमिकता के आधार पर इस दिशा में काम कर रही है और इस पर लोगों के सुझाव भी लिए जा रहे हैं। आज भी हमारे यहां मां-बाप बच्चे को 20 पोयम रटा कराकर बड़े खुश होते हैं। 2 से 6 साल की उम्र बच्चे के लिए सबसे क्रिएटिव होती है। इस उम्र में बच्चा जब दीवार पर अपनी क्रिएटिविटी दिखाता है, तो उसे डांट-मार पड़ती है कि दीवार गंदा कर दिया। पानी में हाथ डाल देता है, तो डांट पड़ती है।

हां, ए,बी,सी... लिख देने पर चॉकलेट या उसका पसंदीदा इनाम मिलता है। उसे कभी ब्लॉक्स से खेलने नहीं दिया जाता। उसने कभी रेत के घर नहीं बनाए। उसके लिए चाबी से चलने वाले खिलौने ला दिए जाते हैं, जिसमें उसके करने के लिए कुछ नहीं होता। नार्वे, डेनमार्क जैसे देशों में बच्चों के सात साल का होने तक उन पर कोई पढ़ाई नहीं थोपी जाती। उन्हें सिर्फ खेलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, ताकि दिमागी और शारीरिक रूप से उनका अच्छी तरह विकास हो सके। हमारे यहां अगर किसी पैरेंट्स से पूछा जाए कि वह अपने बच्चे को क्या बनाने चाहते हैं, तो वह छूटते ही बोलेंगे आइएएस। वे अपने बच्चे को भूलकर भी साइंटिस्ट बनाने के बारे में नहीं बोलेंगे।

दें आज के उदाहरण: दरअसल, हमारे यहां के एजुकेशन सिस्टम में क्रिएटिविटी को बढ़ावा देने वाली बातें नहीं हैं। हम आज की रियल सक्सेस स्टोरी को नहीं पढ़ाते। हमें इतिहास और बाबर, अकबर के बारे में तो बताया-पढ़ाया जाता है, लेकिन आर्यभट्ट, सीवी रमन, भाभा, एपीजे कलाम आदि के बारे में उतना नहीं बताया जाता। अमेरिका में बच्चों को स्टीव जॉब्स, बिल गेट्स, मार्क जुकरबर्ग, टेस्ला आदि जैसे आज के उदाहरणों के बारे में बताया जाता है कि कैसे इन्होंने संघर्ष किया और आगे बढ़े। हमारे यहां भी रतन टाटा, पेटीएम, ओला, उबर जैसों की सफलता की सच्ची कहानी को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाने की जरूरत है।

क्या हमारे यहां ऐसी सक्सेस स्टोरीज की कमी है? बिल्कुल नहीं। आज टीवी पर डांस और म्यूजिक के शो देखकर देश के जाने कितने मां-बाप प्रेरित हो रहे हैं और अपने बच्चों को इस दिशा में आगे बढ़ा रहे हैं। इस बारे में हम सब जानते हैं। आइपीएल की शुरुआत होने पर देश में सैकड़ों नए खिलाड़ियों को सामने आने और पहचान बनाने का मौका मिला। हॉकी और फुटबॉल पर आई फिल्मों से इन खेलों में रुचि बढ़ी।

समझें इंडस्ट्री को: चार-साढ़े चार साल पहले सरकार ने स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसी महत्वपूर्ण पहल की। इनके तहत काफी काम भी किया गया। हालांकि परिणाम उतना उत्साहजनक नहीं रहा। दरअसल, आज इंडस्ट्री को जिस स्किल की जरूरत है, उसके बारे में कैंपस में पहले साल से ही प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया जाना चाहिए, न कि इसके लिए चौथे साल की प्रतीक्षा की जाए।

जैसे आज ऑटोमेशन, मशीन लर्निंग, ब्लॉक चेन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की चर्चा तेज हो गई है, इसे समझते हुए स्टूडेंट्स को अभी से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, ताकि चार साल बाद जब वे निकलें, तब इंडस्ट्री उन्हें हाथों हाथ ले। उन्हें नौकरी के लिए भटकना न पड़े। इसके लिए स्टूडेंट्स को सवाल पूछने वाला बनने के लिए प्रेरित करें। उनमें जानने की इच्छा जगाएं। ‘लर्निंग बाई डूइंग’ यानी वे खुद से करते हुए जानने की कोशिश करें। ऐसा करने पर ही वे मेक इन इंडिया का हिस्सा और सिर्फ नौकरी करने वाला बनने की बजाय नौकरी देने वाला बनने की ओर तेजी से बढ़ सकेंगे।

स्वायत्ता भी है जरूरी: युवाओं को नौकरी देने वाला बनाने के लिए उनमें एंटरप्रेन्योर स्किल बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए टीचर, स्टूडेंट और इंडस्ट्री के मेल से आगे बढ़ना होगा। एक चारदीवारी में बांधने की बजाय शिक्षण संस्थानों को स्वायत्ता देनी होगी, ताकि इंडस्ट्री की जरूरतों को समझते हुए वे अपना पाठ्यक्रम तय कर सकें। इससे वे आइआइटी के समकक्ष खड़े होने की काबिलियत जुटा सकेंगे।

लैब/मशीनें हर वक्त हों उपलब्ध: आज एक विमान जो गोवा जाता है, वही फिर मुंबई, दिल्ली, जयपुर और चंडीगढ़ जाता है। विमान वही रहता है, बस पायलट बदलते जाते हैं। यह व्यवस्था लैब और मशीनों के लिए भी की जा सकती है। हम परिसर में जो मशीनें लगाते हैं, उसे शिफ्ट में चौबीसों घंटे खोला जा सकता है, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे लैब और मशीनों पर काम करते हुए सीख सकें।

शोध पर भी हो काम
हमारे यहां के टीचर्स का फोकस अभी सिर्फ पढ़ाने पर ही होता है, जबकि हार्वर्ड या दुनिया की अन्य बड़ी यूनिवर्सिटीज के टीचर आठ घंटे की बजाय रात-दिन काम करते हैं। उनके नाम सैकड़ों रिसर्च पेटेंट हैं। वे अरबपति हैं। दरअसल, वे सिर्फ पढ़ाने की बजाय हमेशा नये-नये इनोवेशन पर ध्यान देते हैं।

यही कारण है कि उनमें से कई को हर साल नोबेल या उसके समकक्ष अन्य कोई न कोई पुरस्कार मिलता रहता है। हमारे यहां शोध पर अभी उतना काम नहीं हो रहा। इसे बढ़ावा देने की जरूरत है। इसके लिए संस्थानों को भी मिलकर काम करने की जरूरत है। जिसके यहां जो अच्छा हो, वह हर बच्चे के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए। यह बच्चे को तय करने दें कि उसे क्या पढ़ना है और क्या नहीं।


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