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सस्ती के साथ रोजगारपरक भी हो शिक्षा, होगा सुधार

शिक्षा सस्ती और सबके पहुंच में हो इस बात को लेकर देश में बड़ी बहस चल रही है।

By Pooja SinghEdited By: Published: Mon, 27 Jan 2020 05:38 PM (IST)Updated: Mon, 27 Jan 2020 05:38 PM (IST)
सस्ती के साथ रोजगारपरक भी हो शिक्षा, होगा सुधार
सस्ती के साथ रोजगारपरक भी हो शिक्षा, होगा सुधार

नई दिल्ली [अभिषेक]। शिक्षा सस्ती और सबके पहुंच में हो इस बात को लेकर देश में बड़ी बहस चल रही है। बीते दिनों इस कड़ी में एक और महत्वपूर्ण बात यह जुड़ गई कि देश की सभी तहसीलों में सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध हो। एक संबंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस एनवी रमना की बेंच ने केंद्र सरकार को यह निर्देश दिया है कि वह देश की हर तहसील में केंद्रीय विद्यालय खोलने पर विचार करे।

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शिक्षा के महत्व को लेकर कभी भी और कहीं भी कोई मतभेद नहीं रहा है। आज के दौर में व्यक्ति की जीविका काफी हद तक उसकी शिक्षा के स्तर पर निर्भर है। मगर शिक्षा व्यक्ति के सिर्फ आर्थिक पक्ष को तय करती हो ऐसा नहीं है, वह उसके सामाजिक स्थान और राजनीतिक विचार को भी तय करती है। यानी अगर इसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो शिक्षा का आर्थिक के साथ एक सामाजिक और राजनीतिक महत्व भी है। अगर इस याचिका को देखें तो इसमें यह मांग है कि कक्षा एक से आठवीं तक संविधान का उद्देश्य और बुनियादी संरचना एक अनिवार्य विषय हो और प्रत्येक तहसील में केंद्रीय विद्यालय का होना इसलिए जरूरी है, ताकि इससे अनेकता में एकता को मूर्तरूप दिया जा सकता है।

शिक्षा देश के आर्थिक विकास के साथ समाज और राजनीति दोनों को प्रभावित करती है और इसलिए यह हालिया बहस भी काफी ज्यादा राजनीतिक होती रही और शायद यही कारण रहा कि पिछले दिनों की बहसों में बजट में शिक्षा पर होने वाले व्यय विशेष तौर पर विभिन्न दलों की सरकारों द्वारा किए गए व्यय का तुलनात्मक अध्ययन और फिर उसका दुनिया के विभिन्न देशों के द्वारा किए जाने वाले व्यय से तुलना, इसे बढ़ा कर विकसित देशों के बराबर करने की बातें, और फिर समाज के विभिन्न वर्गो में शिक्षा का स्तर और फिर उनके ऐतिहासिक रूप से हासिए पर होने की बातें ही ज्यादा हुईं और कई प्रश्न जैसे की शिक्षा की रोजगारपरकता, प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में बजट का संतुलन और इन स्तरों का देश के आर्थिक सामाजिक विकास में योगदान जैसे कई मामले पीछे रह गए।

निजी तौर पर कोई भी व्यक्ति शिक्षा को रोजगार और व्यक्तिगत आर्थिक तरक्की से जोड़ता है। अगर आप किसी दुकान पर पैसों के लिए या अपने माता-पिता के काम में हाथ बंटा रहे बच्चे-बच्चियों या उनके घरवालों से पूछेंगे कि वो ऐसा क्यों करते हैं तो जवाब बहुत सीधा आता है कि स्कूल में जाकर कुछ सीखकर ये आगे अच्छी कमाई करेगा ऐसी उम्मीद उनको नहीं है। मिडडे मील योजना के बाद सरकारी विद्यालयों में बच्चे आने लगे हैं, पर वो कितनी पढ़ाई कर रहे हैं इस पर कई रिपोर्ट आ चुकी हैं जो ये बताती हैं कि पंजीकरण दर और शिक्षा के स्तर में सुधार के बीच एक बड़ा अंतर है। कोई विद्यालय आए इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा सस्ती हो मगर वो पढ़े इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा रोजगारपरक हो। अगर भविष्य की कमाई के लिए पढ़ाई से ज्यादा जरूरी और उपयोगी काम का सीखना है तो स्वाभाविक है कि कोई भी काम सीखने पर ज्यादा ध्यान देगा और यह बात आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चों पर ज्यादा लागू होती है।

सरकार की दृष्टि से शिक्षा कुछ अलग दिखती है। राज्य के लिए शिक्षा एक नीतिगत सामाजिक हस्तक्षेप है जो आर्थिक के साथ कई सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करती है। शिक्षा यह तय करती है कि समाज का स्वास्थ्य अच्छा होगा, समाज में लैंगिक असमानताएं कम होंगी, क्षेत्रीय विषमताएं दूर होंगी, लोगों के रहन-सहन का स्तर बदलेगा। यह मानव को नागरिक बनाने की प्रक्रिया है जिसमें वो राज्य और समाज के प्रति अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझता है और अन्य कई उद्देश्यों की पूर्ति भी शिक्षा के माध्यम से करता है। सरकार के लिए शिक्षा की रोजगारपरकता से ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा बेरोजगारी का होता है।

निजी तौर पर व्यक्ति यह चाहता है कि वह जल्द से जल्द शिक्षा पूरी कर रोजगार हासिल कर ले। अगर देश में बेरोजगारी नहीं है और उद्योगों के लिए कामगार नहीं मिल रहे हैं तो सरकार भी यही चाहती है, पर जब बेरोजगारी बढ़ रही हो तो सरकार यह चाहती है कि जब तक रोजगार न हो व्यक्ति शिक्षा में रहे ताकि वह बेरोजगार की गिनती में न आए। कौन सा देश अपने बजट का कितना प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है यह तुलना बेमानी है, क्योंकि हर देश की परिस्थितियां अलग अलग हैं।

लेकिन प्रश्न सिर्फ इस बात का नहीं है कि शिक्षा व्यय कितना हो और वह कितनी सस्ती हो, प्रश्न इस बात का भी है कि जो राशि निश्चित हो रही है वह किस स्तर की शिक्षा पर व्यय होगी। वर्तमान बहस में भी समाज में हासिए पर खड़े वर्गो का नाम तो लिया जा रहा है, लेकिन प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण और सर्वसुलभ बनाकर उनको सरकारी मदद प्राप्त उच्च शिक्षा के संस्थानों में दाखिल होने लायक कैसे बनाया जाए या फिर उनको सस्ती रोजगारपरक शिक्षा कैसे उपलब्ध हो, इसके बजाय उच्च शिक्षा के सस्ते होने पर केंद्रित हो गई है जो ठीक बात नहीं है।

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोध अध्येता हैं।


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