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सुविधा और काम करने का सुरक्षित माहौल मिले तो सपनों की नगरी मुंबई को छोड़कर कौन कहीं और जाना चाहेगा!

जर्जर हो चुके करीब आधा दर्जन स्टूडियो में धारावाहिकों की शूटिंग होती है या फिर रियलिटी शो के स्थायी सेट लगाए गए हैं जिनके किराये से मुंबई फिल्म सिटी का खर्च निकलता है। फिल्म सिटी के नवीनीकरण की सुधि ली तो 2014 में बनी फड़नवीस सरकार ने।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 05 Dec 2020 02:30 PM (IST)Updated: Sat, 05 Dec 2020 02:30 PM (IST)
सुविधा और काम करने का सुरक्षित माहौल मिले तो सपनों की नगरी मुंबई को छोड़कर कौन कहीं और जाना चाहेगा!
सिनेमा के सौ साल का इतिहास संजोए फिल्म संग्रहालय का निर्माण कर सकती है।

ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। महाराष्ट्र की शिवसेनानीत सरकार में शामिल दलों के नेताओं के बयान देखकर ऐसा लग रहा है, जैसे मुंबई के 521 एकड़ में बनी दादा साहब फाल्के चित्र नगरी यानी फिल्म सिटी को कोई यहां से उठाकर कहीं और स्थापित करने की योजना बना रहा है। हालांकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने मुंबई दौरे के दौरान यह कहकर इसका ताíकक जवाब दे चुके हैं कि यह प्रतिस्पर्धा का युग है, जो राज्य सुविधाएं देगा, माहौल देगा, वह निवेशकों को आकर्षति करने में सफल रहेगा। लेकिन शिवसेना एवं शिवसेनानीत सरकार के अन्य दलों से यह सवाल तो बनता ही है कि अपने लंबे कार्यकाल में आपने मुंबई की फिल्म सिटी के लिए क्या किया?

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मुंबई महानगर के गोरेगांव उपनगर में संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान के सघन वनक्षेत्र से सटी है मुंबई की फिल्म सिटी। इसे 1977 में फिल्मकार वी शांताराम के निर्देशन में तैयार किया गया। आजादी के बाद के तीन दशकों में दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार और राजेश खन्ना की न जाने कितनी सुपरहिट फिल्में आ चुकी थीं। वह भी हिंदी भाषा में। जाहिर है इन फिल्मों की शूटिंग तब मुंबई शहर में स्थित फिल्मिस्तान, राजकमल, महबूब एवं कमाल अमरोही जैसे स्टूडियो में ही हुई होगी। इतनी लोकप्रिय फिल्में देखने के बाद महाराष्ट्र जैसे उन्नत राज्य को मुंबई में फिल्म सिटी बनाने की सुधि आई। यह दिग्गज फिल्म निर्माता वी शांताराम की दृष्टि का ही कमाल था कि गोरेगांव के हरेभरे वनक्षेत्र में फिल्म सिटी बनाने के लिए पहाड़ों, झरनों, नदी और दो-दो झीलों के किनारे की प्राकृतिक जगह चुनी गई, जहां मंदिर, जेल, कोर्ट, गांव, सुंदर पार्क, हेलीपैड, पिकनिक स्पॉट इत्यादि बनाकर उसे फिल्म सिटी का रूप दिया गया।

बाद में यहां अलग-अलग आकार के करीब 16 स्टूडियो भी बनाए गए, जहां अंदर ही सेट तैयार कर शूटिंग की जा सके। 1977 के बाद के कुछ वर्षो में तैयार इस फिल्म सिटी की इसके बाद महाराष्ट्र की किसी सरकार को याद नहीं आई। न तो कांग्रेस की सरकारों को, न चार बार मुख्यमंत्री रहे शरद पवार को, न ही 1995 में भाजपा के साथ बनी शिवसेनानीत सरकार को। इन सरकारों को यह याद भी नहीं आया कि बॉलीवुड लाखों लोगों को रोजगार भी देता है, जबकि 1977 के बाद के 40 वर्षो में फिल्म निर्माण तकनीक कहां से कहां पहुंच चुकी है। न जाने कितने वर्ष बीत चुके हैं फिल्म सिटी को अपने विशाल परिसर में एक साथ तीन-चार बड़ी फिल्मों के सेट लगे देखे हुए।

फिल्म सिटी के नवीनीकरण की सुधि ली, तो 2014 में बनी फड़नवीस सरकार ने। अब तक राज्य सरकार के संस्कृति मंत्रलय की भीड़ में खोए रहे फिल्म सिटी के लिए फड़नवीस ने न सिर्फ राज्यमंत्री के दर्जे के साथ एक उपाध्यक्ष का पद सृजित किया, बल्कि महाराष्ट्र फिल्म स्टेज एंड कल्चरल डेवलपमेंट कार्पोरेशन (एमएफएससीडीसी) की ओर से एक मास्टर प्लान भी तैयार किया। फड़नवीस द्वारा ही फिल्म सिटी के उपाध्यक्ष बनाए गए अमरजीत मिश्र बताते हैं कि यह मास्टर प्लान 2,550 करोड़ रुपयों का था। इस मास्टर प्लान में फिल्म सिटी में फिल्म निर्माण का विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचा खड़ा करने की योजना बनाई गई थी। एमएफएससीडीसी को दो बार इसके टेंडर निकालने पड़े। पहली बार तो किसी कंपनी ने रुचि ही नहीं दिखाई, दूसरी बार रिलायंस सहित कुछ कंपनियों ने रुचि दिखाई। कंपनियों के रुचि न दिखाने के पीछे एक बड़ा कारण रहा फिल्म सिटी में हो चुका अतिक्रमण और उनमें बसे झोपड़पट्टी माफियाओं की दादागीरी।

वास्तव में 521 एकड़ के फिल्म सिटी परिसर में बहुत सी अवैध झोपड़पट्टियों का निर्माण हो चुका है। इन्हें बसाने और इनमें रहनेवाले कुछ दबंग लोग ही फिल्म सिटी परिसर में होनेवाले छोटे-मोटे कामों का ठेका लेते हैं। मसलन कोई फिल्म डायरेक्टर सेट तैयार करवाना चाहता है, तो वह सीधे सेट डिजाइनर को काम नहीं दे सकता। उसे इन दबंगों के जरिए ही काम करवाना पड़ेगा। यही नहीं, फिल्म सिटी में सक्रिय शिवसेना एवं मनसे जैसे दलों की यूनियनें भी निर्माता-निर्देशकों के लिए एक बड़ी मुसीबत हैं। इस रचनात्मक कार्यक्षेत्र में भी निर्माताओं पर अपनी यूनियन के लोगों को काम देने का दबाव बनाया जाता है। काम के लालच में कामगार इन यूनियनों के सदस्य बनते हैं और भारी फीस चुकाते हैं। लेकिन इस सबका नुकसान फिल्म निर्माता को उठाना पड़ता है। इस नुकसान से बचने के लिए निर्माताओं ने अन्य स्थानों पर सेट बनवाकर शूटिंग करने या अन्य राज्यों का रुख करने का विकल्प खोजा है, जहां उन्हें सुरक्षा और अनुदान दोनों मिलते हैं।

बुधवार को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जब मुंबई में निवेशकों को बेहतर माहौल देने और प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की बात कही, तो फिल्म सिटी के माफियाओं और यूनियनों की याद आ गई। कोई ऐसी जगह काम क्यों करना चाहेगा, जहां अपना सही काम करने के लिए भी उसे अधिक कीमत चुकानी पड़े। यूनियनों की धमकी के साये में जीना पड़े। शिवसेनानीत महाराष्ट्र विकास आघाड़ी सरकार चाहे तो मुंबई की फिल्म सिटी को ही सुधार कर निर्माता-निर्देशकों के लिए नए आकर्षण पैदा कर सकती है। वहां सिनेमा के सौ साल का इतिहास संजोए फिल्म संग्रहालय का निर्माण कर सकती है। सुविधा और काम करने का सुरक्षित माहौल मिले तो सपनों की नगरी मुंबई को छोड़कर कौन कहीं और जाना चाहेगा!

[ब्यूरो प्रमुख, मुंबई]


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