Dharavi: दिल है धारावी..यह धड़कती रहेगी तो मुंबई भी चलती रहेगी
Dharavi कोरोना से प्रभावित रही धारावी फिर से रफ्तार पकड़ने की कोशिश करती दिखाई दे रही है। अप्रैल-मई में यहां कोविड मामलों में हुई अचानक बढ़ोतरी ने प्रशासन के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी थीं। अब यहां कोविड मरीजों की संख्या सिंगल डिजिट में चल रही है।
मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। Dharavi: कोविड-19 की महामारी में कभी मुंबई देश का, तो धारावी मुंबई का ‘हाट स्पाट’ बनी हुई थी। अब मुंबई भी सामान्य होने की राह पर है, और धारावी भी। धारावी में कोविड से लड़ने के लिए अपनाए गए ‘4-टी माडल’ (ट्रेसिंग, ट्रैकिंग, टेस्टिंग और ट्रीटिंग) की तो विश्व स्वास्थ्य संगठन भी प्रशंसा कर चुका है। अप्रैल-मई में यहां कोविड मामलों में हुई अचानक बढ़ोतरी ने मुंबई महानगरपालिका प्रशासन के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी थीं। लेकिन पिछले 19 दिनों से यहां कोविड मरीजों की संख्या सिंगल डिजिट में चल रही है। एक्टिव मरीज भी सिर्फ 10 हैं इस समय। इस प्रकार सामान्य हो रही धारावी एक बार फिर से रफ्तार पकड़ने की कोशिश करती दिखाई दे रही है। मुश्किलें बहुत हैं। लेकिन हौसला उससे भी ऊंचा है। पढ़िए रिपोर्टः
लॉकडाउन के दौरान ठप पड़ गया था धंधा
धारावी के कुंभारवाड़े की एक खोली की तीसरी मंजिल पर नाथाभाऊ चौहान का चाक जिंदगी के पहिए की तरह धीमी गति से लगातार घूमता जा रहा है। उनकी टीम के तीन और लोग उनके ही बगल में बैठे अपने-अपने चाक पर मिट्टी के तरह-तरह के बर्तन-भांडे गढ़ रहे हैं। इन बर्तनों को गढ़ने के बाद मुश्किल से 150 वर्गफुट की खोली की चौथी मंजिल पर सूखने के लिए रख दिया जाता है। सूखने के बाद सबसे नीचे भूतल पर बनी भट्ठी में पांच-छह घंटे पकाकर गत्ते के डिब्बों में करीने से पैक करके ग्राहकों के यहां रवाना कर दिया जाता है। ग्राहक, यानी छोटे-बड़े होटल, अच्छी मिठाइयों की दुकानें, कैटरिंग इत्यादि का काम करने वाले लोग। जहां हम-आप जाकर मिट्टी के कुल्हड़ों या प्यालियों में सोंधी-सोंधी फालूदा कुल्फी या गरम दूध का स्वाद लेते हैं। नाथाभाऊ बताते हैं कि कोरोना महामारी के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान जब होटल और दुकानें बंद थीं, तो धंधा बिल्कुल ठप पड़ गया था।
कुंभारवाड़े में नाथाभाऊ के चेहरे पर दिखाई दी चमक
लॉकडाउन खुलने के बाद काम धीरे-धीरे शुरू हो रहा है। दीवाली के दौरान ग्राहकी कुछ बढ़ी। लेकिन पूरी रफ्तार अभी भी नहीं पकड़ सकी है। इसी व्यवसाय से जुड़े राजू परमार कहते हैं कि मुंबई में लोकल ट्रेनों का न चलना व्यवसाय में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। ग्राहक आ ही नहीं पाते तो धंधा कैसे होगा ? धारावी के 12 एकड़ में बसे कुंभारवाड़े में 1000 से अधिक लोग मिट्टी के काम से ही जुड़े हैं। इनमें ज्यादातर लोग गुजरात के सौराष्ट्र से आते हैं। कुंभारवाड़े में नाथाभाऊ कहते हैं कि मिट्टी के बर्तनों और अन्य वस्तुओं में नई पीढ़ी की रुचि बढ़ी है। विदेशों में भी लोग इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। यदि इस क्षेत्र के लिए रणनीति बनाकर नई तकनीक के साथ आगे बढ़ा जाए तो पारंपरिक कुम्हार समाज को बड़े पैमाने पर रोजगार दिया जा सकता है। मिट्टी के बर्तनों के स्टोर खोलने की सलाह देते हुए नाथाभाई कहते हैं कि ग्राहक हमारे पास आएं, इसका इंतजार करने के बजाय हमें ग्राहकों तक पहुंचने का रास्ता खोजना पड़ेगा।
चमड़े और लगेज बैग का काम करने वालों के चेहरे की चमक फीकी
धारावी की अंदरूनी गलियों में चलने वाले चमड़े और लगेज बैग का काम करने वालों के चेहरे की चमक फीकी दिखाई दी। लगेज बैग बनाने के काम में लगे मो. चांद के कारखाने में कोविड से पहले 20 मशीनें और 40 श्रमिक काम करते थे। आज बड़ी मुश्किल से तीन मशीनें चल पा रही हैं। पहले कभी बैंक से ऋण लेने की जरूरत ही नहीं पड़ी। अब जरूरत महसूस हुई तो दो महीने से बैंक के चक्कर काट-काट कर थक गए, ऋण नहीं मिला। पिछले साल करीब चार करोड़ का टर्नओवर था। इस बार 30 लाख भी पहुंचने मुश्किल लग रहे हैं। धारावी चमड़े के सामान उत्पादन का बहुत बड़ा केंद्र है। बड़े-बड़े ब्रांड वाले भी यहीं से अपना माल तैयार करवाते हैं। यहां बना माल बड़े पैमाने पर निर्यात भी होता है। इस काम में लगे ज्यादातर लोग बिहार के हैं। 52 वर्षीय शाकिर अनवर दसवीं की पढ़ाई छोड़कर काम की तलाश में वर्षों पहले मधुबनी से मुंबई आ गए थे।
लोकल ट्रेन शुरू होगी तो धंधा रफ्तार पकड़ेगा
पहले महाराष्ट्र के ही एक व्यवसायी मछेंद्र खैरे के यहां कुछ दिन काम किया। फिर अपना काम शुरू कर दिया। आज उनका करोड़ों का व्यवसाय है। लेकिन कोरोना ने कमर तोड़ दी। लाखों का माल गोदाम में सड़ रहा है। चमड़े के सामानों में फफूंदी लग रही है। व्यवसायी माल नहीं ले जा रहे हैं। पहले गए माल का भी भुगतान नहीं हो पा रहा है। पहले कारखाने में 50 आदमी काम करते थे। अब एक भी आदमी काम नहीं कर रहा है। गांव से वापस आ गए कारीगर भी काम न होने के कारण सड़क पर खड़े होकर मोबाइल गैजेट्स बेचकर पेट पाल रहे हैं। इन्हें भी लगता है कि लोकल ट्रेन शुरू होगी, तो ही धंधा रफ्तार पकड़ेगा। धारावी में चमड़े का काम तो बहुत बड़ा और विख्यात भी है। लेकिन इनका कोई संगठन नहीं है, इसलिए इनकी संगठित आवाज सरकार के कानों तक नहीं पहुंच पाती। शायरी का भी शौक रखने वाले शाकिर अपने धंधे की तकलीफों को एक शेर के माध्यम से यूं बयान करते हैं कि “शबाब जाता रहा और पता भी न चला, उसी को ढूंढ रहा हूं कमर झुकाए हुए।” लॉकडाउन के दौरान धारावी की झुकी कमर तोड़ने में चोरों ने भी बड़ी भूमिका अदा की है।
ऐसे पहुंचाते हैं लोगों को मदद
लॉकडाउन के दौरान सामाजिक संस्था ‘लिव टू गिव’ के साथ मिलकर धारावी में लोगों को मदद पहुंचाने वाले अबरार भाई बताते हैं कि बहुत से उद्यमी लॉकडाउन के दौरान अपनी मशीनें और कच्चा माल अपनी दुकानों में बंद कर गांव चले गए थे। लौटने पर पूरी दुकान खाली मिली है। चोरियां बड़े पैमाने पर हुई हैं। लेकिन पुलिस में रिपोर्ट बहुत कम दर्ज हुई है। क्योंकि व्यापारी समुदाय स्थानीय दादाओं से पंगा नहीं लेना चाहता। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता रमाकांत गुप्ता कहते हैं कि राज्य सरकार को एक समिति बनाकर धारावी के लघु-मध्यम उद्यमियों से बात करवानी चाहिए। ताकि उनकी मुश्किलों का पता लगाकर उन्हें दूर किया जा सके।
खोलियों में करोड़ों का कारोबार
धारावी दरअसल लघु उद्योगों व रिहायश का मिलाजुला केंद्र है। करीब 12 लाख की आबादी में सात-आठ लाख श्रमिक हैं। इनमें ज्यादातर उत्तर प्रदेश व बिहार के लोग हैं। दक्षिण भारतीय भी हैं। अत्यंत पतली-पतली गलियों में चार-चार मंजिल की खोलियों में करोड़ों का कारोबार होता है। श्रमिक जिस कारखाने में काम करते हैं, उसी में रात को सो जाते हैं। काम भी शिफ्टों में चलता है। एक अनुमान के मुताबिक यहां एक वर्ग किलोमीटर में 2,27,136 लोग रहते हैं। कहीं-कहीं तो 100 वर्ग फुट के कमरे में 10-10 लोग रहते हैं। भोजन के लिए स्थानीय महिलाएं भिस्सी चलाती हैं। जहां श्रमिक दोनों वक्त जाकर भरपेट भोजन करते हैं और महीना पूरा होने पर भुगतान कर देते हैं। कहीं-कहीं खाने का डिब्बा मंगाने की भी व्यवस्था है। सुबह या दिन में फारिग होने के लिए जगह-जगह सार्वजनिक शौचालय बने हैं। जिनका उपयोग एक निश्चित राशि का भुगतान करके किया जा सकता है।
इसलिए पर्यटकों को लुभाती है धारावी
रमाकांत गुप्ता बताते हैं धारावी में सार्वजनिक शौचालयों का वार्षिक कारोबार ही करीब 50 करोड़ का होगा। इनके ठेके उठते हैं। धारावी का यह रहन-सहन न सिर्फ देश के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचता है, बल्कि विदेशी पर्यटकों को भी लुभाता है। यहां की जीवनशैली पर कई फिल्में बन चुकी हैं। विदेश से आने वाले सैलानियों को धारावी का टूर कराने वाले दिनेश भूरा बताते हैं कि फिल्म स्लमडाग मिलेनियर बनने के बाद से ज्यादा विदेशी पर्यटक धारावी घूमने आते हैं। सीजन के दिनों में जब बड़े-बड़े विदेशी क्रूज मुंबई के समुद्र तट से आकर लगते हैं, तो धारावी आने वाले विदेशी सैलानियों की संख्या अचानक बढ़ जाती है। दिनेश भूरा एक कुशल टूरिस्ट गाइड की तरह धारावी का बखान करते हुए कहते हैं कि साहब धारावी का आकार दिल की तरह है। ये धड़कती रहेगी, तो मुंबई की धड़कन भी कायम रहेगी।