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लातूर-उस्मानाबाद भूकंप के 25 वर्ष, आपदाओं ने उजाड़ा तो महिलाओं ने उबारा

न में हौसला और बाजुओं में दम हो, तो किसी भी मुसीबत से पार पाया जा सकता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण लातूर-उस्मानाबाद में दिखता है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 29 Sep 2018 08:57 AM (IST)Updated: Sat, 29 Sep 2018 08:57 AM (IST)
लातूर-उस्मानाबाद भूकंप के 25 वर्ष, आपदाओं ने उजाड़ा तो महिलाओं ने उबारा
लातूर-उस्मानाबाद भूकंप के 25 वर्ष, आपदाओं ने उजाड़ा तो महिलाओं ने उबारा

मुंबई,ओमप्रकाश तिवारी।  मन में हौसला और बाजुओं में दम हो, तो किसी भी मुसीबत से पार पाया जा सकता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण लातूर-उस्मानाबाद में दिखता है। जहां 25 साल पहले आए भूकंप के बाद महिलाओं ने कमान संभाली, और न सिर्फ क्षेत्र की तस्वीर बदल कर रख दी, बल्कि अन्य आपदा प्रभावित क्षेत्रों के लिए एक सफल मॉडल भी पेश कर दिया है।

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30 सितंबर, 1993 की तड़के 3.45 बजे महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र थर्रा उठा था। एक दिन पहले ही अनंत चतुर्दशी थी। लोग गणपति विसर्जन करके थके-हारे सोए तो उठने की नौबत ही नहीं आई। लातूर और उस्मानाबाद जिलों के 52 गांवों में 10,000 लोग मारे गए थे। हजारों घायल हुए थे।

सबकुछ तबाह हो गया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार को आपदा प्रबंधन के लिए तीन सप्ताह तक लातूर-उस्मानाबाद में ही कैंप करना पड़ा था। उनके इसी अनुभव के कारण कच्छ में भूकंप आने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने बचाव और राहत कार्यों में वहां भी उनकी मदद ली थी। बात लातूर-उस्मानाबाद और कच्छ के भूकंप की हो, या देश के दक्षिणी हिस्सों में आई सुनामी की, अथवा हाल ही में आई केरल की बाढ़ की, तात्कालिक राहत और बचाव कार्यों के बाद समाज को फिर से खड़ा करना एक बड़ी चुनौती होती है।

ये चुनौती लातूर-उस्मानाबाद में भी थी। राहत के लिए बहुत सी सरकारी-गैरसरकारी संस्थाएं सामने भी आईं। लेकिन राहत वितरण में विसंगतियों का दौर खत्म नहीं हुआ। क्योंकि मदद करनेवाले अपना नजरिया लेकर आते थे, और मदद पानेवालों का नजरिया दूसरा होता था।

यहीं से क्षेत्र की महिलाओं ने कमान अपने हाथ में लेनी शुरू कर दी। नई बस्तियां बसाने के लिए जगह के चयन से लेकर नए घर बनाने के लिए आनेवाले सरकारी पैसे और घरों के आकार-प्रकार तय करने तक का काम महिलाओं ने संभाल लिया। महिलाओं के सामने आ जाने से निर्माण कार्यों में धन का दुरुपयोग काफी हद तक रुका और घर भी उनकी जरूरत के हिसाब से बन सके। अब बारी थी नया जीवन शुरू करने की। इसमें मददगार बनी स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) जैसी स्वयंसेवी संस्थाएं। जिसने इन महिलाओं के छोटे-छोटे समूह बनाकर उन्हें महाराष्ट्र राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन (एमएसआरएलएम) की तमाम योजनाओं के लाभ लेने का तरीका बताया और प्रशिक्षण भी दिया।

यह प्रक्रिया शुरू होने के बाद से अब तक 41,000 महिलाओं को विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण दिए जा चुके हैं। इन प्रशिक्षणों में कुटीर उद्योगों के लेकर जैविक खेती तक शामिल है। इन प्रशिक्षणों का ही सुफल है कि पिछले कुछ वर्षों में ही खेती की कमान संभाल चुकी महिलाएं जैविक खेती के जरिए 516 करोड़ का लाभ कमा चुकी हैं। एसएसपी की प्रमुख प्रेमा गोपालन बताती हैं कि कभी सिर्फ गन्ने और रासायनिक खाद के पीछे भागनेवाले पुरुषों के हाथ से जब धीरे-धीरे खेती का काम महिलाओं ने लेना शुरू किया, तो जैविक खाद बनाने से लेकर जैविक अन्न और सब्जियां उगाने तक का सिलसिला शुरू हो गया।

कई भूली-बिसरी पारंपरिक फसलें भी अब उगाई जाने लगी हैं। जिसके कारण जैविक चक्र भी सुधरने लगा है। कुटीर उद्योग में लगी महिलाओं ने तो अपना मार्केटिंग नेटवर्क भी खड़ा कर लिया है। जो उनके बनाए सामान को मुंबई और पुणे तक का बाजार उपलब्ध कराता है।

इस नए प्रयोग ने पिछले कुछ वर्षों भीषण अकाल से जूझते रहे मराठवाड़ा क्षेत्र के इन दो जिलों को इस मुसीबत में भी खड़े रहने का संबल दिया। अकाल से निपटने के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं का लाभ भी स्वयंसेवी समूहों के मार्गदर्शन में इन महिलाओं ने उठाया। गांव के पास गहरे किए जा रहे तालाबों की मिट्टी लाकर अपने खेतों में डाली तो उपज और बढ़ गई।

रासायनिक खादों पर आनेवाला खर्च कम हुआ तो परिवार में समृद्धि भी आने लगी। तुलजापुर की वैशाली घुगे तो केचुए की खाद बनाकर ही साल में कई लाख रुपए कमा लेती हैं। भीषण अकाल के दौर में भी उनके घर पर 11 पशु थे। कुटीर उद्योगों के जरिए होनेवाली आमदनी आमदनी इससे अलग है। यही नहीं, अपने गांव-घर में स्वावलंबन का यह प्रयोग कर चुकी महिलाएं स्वयंसेवी संस्था एसएसपी के साथ बाद में भूकंप पीड़ित कच्छ, बाढ़ पीड़ित बिहार और सुनामी पीड़ित तमिलनाडु की महिलाओं की भी मदद करने जा चुकी हैं। और अब केरल जाने की तैयारी है। 


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