इंदौरः बहुत मुश्किल था 6 करोड़ अनुदान में 100 करोड़ का बजट बनाना
हम बात कर रहे हैं देवी अहिल्या विवि के पूर्व कुलपति, एमवाय अस्पताल और चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के पूर्व अधीक्षक और मेडिकल कॉलेज में टीचर रहते हुए चुटकी बजाते छात्रों की समस्या हल कर देने वाले डॉ. भरत छपरवाल की।
उनकी पहचान एक डॉक्टर के रूप में भी है और विवि का खुद का इंजीनियरिंग कॉलेज लाने वाले के रूप में भी। सालों तक उन्होंने मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर बनकर डॉक्टरी सिखाई तो विवि में कुलपति बनने के बाद टीचरों के लिए भी काम किया। सूरत में प्लेग फैलने पर एमवाय अस्पताल बंद करना पड़ा तो मरीजों की तीमारदारी की व्यवस्था करवाई। महज 6 करोड़ रुपए अनुदान हासिल करने वाले विवि के 100 करोड़ रुपए से ज्यादा के बजट में सामंजस्य भी बैठाया।
हम बात कर रहे हैं देवी अहिल्या विवि के पूर्व कुलपति, एमवाय अस्पताल और चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के पूर्व अधीक्षक और मेडिकल कॉलेज में टीचर रहते हुए चुटकी बजाते छात्रों की समस्या हल कर देने वाले डॉ. भरत छपरवाल की। राजस्थान में जन्मे डॉ. छपरवाल की प्रारंभिक स्कूली शिक्षा नाथद्वारा में हुई। बाद में उन्होंने उदयपुर शासकीय कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। 1957 में एमजीएम मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लिया और फिर वे शहर के ही होकर रह गए।
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1962 में एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने यहीं से एमडी किया और शिशु रोग विशेषज्ञ के रूप में शहर में पहचान बनाई। लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित भर्ती परीक्षा के माध्यम से उनका शिक्षक के रूप में जीवन शुरू हुआ। बतौर मेडिकल टीचर उनकी पहली पोस्टिंग रायपुर में हुई। बाद में वे इंदौर ट्रांसफर हो गए और फिर रिटायरमेंट तक यहीं रहे। इसी दौरान 1995-96 में उन्होंने एमवाय अस्पताल में अधीक्षक के रूप में भी काम किया। एमवाय अस्पताल प्रदेश का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल था। पूरे प्रदेश से मरीज यहां आते थे। गुजरात में प्लेग फैलने की वजह से एमवाय अस्पताल को अचानक 35 दिनों के लिए बंद करना पड़ा। डॉ. छपरवाल के मुताबिक इस दौरान मरीज और उनके परिजन को सुविधाएं उपलब्ध करवाना बड़ी चुनौती थी। स्टाफ और कर्मचारियों को विश्वास में लेकर ही वे ये सब कर सके। एमवायएच के अलावा उन्होंने चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय के अधीक्षक के बतौर भी काम किया।
सन् 1996 डॉ. छपरवाल के लिए बड़ा बदलाव लेकर आया। वे देवी अहिल्या विवि के कुलपति नियुक्त हुए और सतत 8 साल तक इस पद पर बने रहे। 1996 के पहले तक देअविवि की पहचान महीनों में परिणाम घोषित करने वाले और एक ढुलमुल विवि के रूप में थी। डॉ. छपरवाल ने व्यवस्थाओं में बड़े परिवर्तन कर पारदर्शिता लाने के लिए कठोर कदम उठाए। उन्हीं के कार्यकाल में विवि ने सेल्फ फाइनेंस कोर्स शुरू किए। इसका असर यह हुआ कि धीरे-धीरे विवि की छवि में सुधार आने लगा। देअविवि का अनुसरण करते हुए देश के कई विश्वविद्यालयों ने स्व-वित्त पाठ्यक्रम का कार्यक्रम शुरू कर दिया।
बकौल डॉ. छपरवाल विश्वविद्यालय को उस समय 6 करोड़ रुपए अनुदान के रूप में मिलते थे लेकिन उसका बजट 100 करोड़ से ज्यादा था। ऐसे में इसे समायोजित करना बड़ी चुनौती थी। सेल्फ फाइनेंस कोर्स के पहले चरण में एमबीए की पढ़ाई शुरू की गई। डॉ. छपरवाल के कार्यकाल में ही विवि ने अपना खुद का इंजीनियरिंग कॉलेज लाने की कवायद शुरू की और सफलता हासिल की। विवि की छवि सुधारने के प्रयास धीरे-धीरे अपना असर दिखाने लगे। देअविवि देशभर में परीक्षा और परिणामों की पारदर्शिता के लिए पहचाना जाने लगे। सन् 2000 में यह प्रदेश का पहला विवि बना जिसने राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (नेक) का निरीक्षण करवाया।
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