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मध्य और उत्तर भारत में अंगदान में पहले स्थान पर है इंदौर

जिस व्यक्ति का अंगदान हो रहा है, उसके दो रिश्तेदारों का इंदौर सोसायटी फॉर ऑर्गन डोनेशन 3 लाख रुपए का बीमा करवाती है।

By Krishan KumarEdited By: Published: Fri, 13 Jul 2018 06:00 AM (IST)Updated: Fri, 13 Jul 2018 10:58 AM (IST)
मध्य और उत्तर भारत में अंगदान में पहले स्थान पर है इंदौर

कुछ साल पहले तक अंगदान के बारे में बात करना भी मुश्किल था। परिजन यह समझ ही नहीं पाते थे कि ब्रेन डेथ घोषित हो चुके उनके मरीज के अंग किसी जिंदा व्यक्ति को नया जीवन दे सकते हैं। ऐसी ही स्थिति में इंदौर सोसायटी फॉर ऑर्गन डोनेशन की स्थापना का विचार आया। यह तत्कालीन कमिश्नर संजय दुबे के संकल्प का ही परिणाम है कि 31 महीने में 34 बार अंगदान प्राप्त हो चुका है। उत्तर और मध्य भारत में अंगदान के मामले में हम पहले स्थान पर हैं।

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वर्तमान में अंगदान इंदौर, भोपाल और जबलपुर जैसे बड़े शहरों में ही हो पा रहा है। स्टेट ऑर्गन ट्रांसप्लांट ऑर्गेनाइजेशन (सोटो) की स्थापना के बाद छोटे शहर भी इसमें अपना योगदान दे सकेंगे।

इंदौर सोसायटी फॉर ऑर्गन डोनेशन की परिकल्पना करीब चार साल पुरानी है। तत्कालीन कमिश्नर दुबे जब भी मेडिकल कॉलेज की बैठक में शामिल होते थे, कहते थे कि इंदौर में अंगदान को लेकर जागरुकता की कमी है। हम सब मिलकर प्रयास करें तो इसे बढ़ाया जा सकता है।

ऐसी ही एक बैठक में इंदौर सोसायटी फॉर ऑर्गन डोनेशन की स्थापना का संकल्प पास कर दिया गया। इसके बाद शुरुआत हुई सोसायटी के नियम बनाने की। करीब चार साल पहले सोसायटी ने अपनी एक वेबसाइट लॉन्च की। वेबसाइट बनने के तुरंत बाद सोसायटी के सदस्यों ने उन अस्पतालों को रजिस्टर करना शुरू किया, जहां ऑर्गन ट्रांसप्लांट की सुविधा उपलब्ध थी। शुरुआत में अस्पताल इसमें शामिल होने में हिचक रहे थे लेकिन जैसे-जैसे काम आगे बढ़ता गया, कारवां बढ़ता गया।

वर्तमान में स्थिति यह है कि अस्पताल खुद आगे आकर इसमें रजिस्टर होना चाह रहे हैं। सोसायटी के कामकाज में एक बड़ी दिक्कत यह थी कि अंगदान के संबंध में कोई भी निर्णय लेना हो, हमें डायरेक्टर ऑफ मेडिकल एजुकेशन (डीएमई) की अनुमति की आवश्यकता पड़ती थी। इस वजह से कई बार असहज स्थिति भी बनती थी।

हमने अपनी परेशानी शासन स्तर पर बताई जिसके बाद सभी शासकीय मेडिकल कॉलेजों के डीन को अंगदान के संबंध में निर्णय लेने के लिए अधिकृत कर दिया गया। अंगदान प्राप्त करने की राह में एक बड़ा रोड़ा यह था कि उस वक्त तक मरीज की ब्रेन डेथ की पुष्टि करने के लिए कोई अधिकृत ही नहीं था। मेडिकल कॉलेजों के डीन को निर्णय लेने के अधिकार मिलने के बाद चार सदस्यीय समिति बनाई गई।

इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि पारदर्शिता बनी रहे। एक बड़ी दिक्कत जो सामने आई वह यह कि ब्रेन डेथ के मामलों में दुर्घटना के केस बहुत ज्यादा थे। इन केस में पोस्टमार्टम संबंधित थाना क्षेत्र से जुड़े शासकीय अस्पताल जैसे एमवायएच या जिला अस्पताल में ही हो सकता था।

कुछ ही दिनों में यह समस्या भी हल हो गई। नोटिफिकेशन जारी कर अंगदान के मामले में तय किया गया कि जिस अस्पताल में अंगदान हो रहा है, सरकारी डॉक्टर वहीं जाकर शव का पोस्टमार्टम करेंगे। इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि अंगदान की वजह से मेडिको लीगल केस पर कोई प्रभाव न पड़े।

इसके बाद सोसायटी ने अपनी नेटवर्किंग शुरू की। किडनी तो जरूरतमंद मरीजों को इंदौर में ट्रांसप्लांट की जा सकती थी, लेकिन लिवर और हार्ट ट्रांसप्लांट की कोई व्यवस्था नहीं थी। सोसायटी ने नेटवर्किंग के जरिए रीजनल ऑर्गन ट्रांसप्लांट ऑर्गेनाइजेशन (रोटो) और नेशनल ऑर्गन ट्रांसप्लांट ऑर्गेनाइजेशन (नोटो) को सूचना देना शुरू किया।

इसका फायदा यह हुआ कि अब देशभर के अस्पताल हमारे संपर्क में हैं। हम बताते थे कि हमारे यहां किडनी तो ट्रांसप्लांट हो रही है, लेकिन लिवर और हार्ट भी उपलब्ध हैं। अगर किसी मरीज को चाहिए तो संपर्क किया जा सकता है।

सोसायटी ने मरीज की जानकारी के लिए भी फॉर्मेट तैयार किया। इसमें उस मरीज के बारे में भी जानकारी रहती है, जिसे अंग प्रत्यारोपित होना है। नेटवर्किंग का बड़ा फायदा यह भी हुआ कि जब इंदौर से दिल और लिवर बाहर जाने लगे तो यहां के निजी अस्पताल भी ट्रांसप्लांट के क्षेत्र में आगे आने लगे। उन्हें लगने लगा कि अंग बाहर जा सकते हैं तो हम इंदौर में इन्हें ट्रांसप्लांट क्यों नहीं कर सकते।

आम आदमी को यह फायदा हुआ कि इससे शहर में मेडिकल सुविधा बढ़ने लगी। यहीं के अस्पतालों में अंग प्रत्यारोपण शुरू हो गया। ग्रीन कॉरिडोर बनाने का कंसेप्ट भी बिलकुल नया था। पहले अंग हवाई जहाज से बाहर भेजे जाते थे तो एक्स-रे मशीन से उन्हें स्कैन किया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता। अब अस्पताल से ही इस संबंध में पत्र जारी कर दिया जाता है।

सोसायटी ने यह सुविधा भी शुरू की है कि मरीज के परिजन को पोस्टमार्टम रिपोर्ट मौके पर ही उपलब्ध हो सके। इसके अलावा जिस व्यक्ति का अंगदान हो रहा है, उसके दो करीबी रिश्तेदारों का 3 लाख रुपए का बीमा किया जाता है। अंगदान में सबसे बड़ी दिक्कत थी काउंसलिंग की। सोसायटी ने बड़े अस्पतालों में ट्रांसप्लांट को-ऑर्डिनेटरों की नियुक्ति की। इन्हें पांच दिन की स्पेशल ट्रेनिंग भी दी गई।

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यह सब लोगों के सामूहिक प्रयास का ही प्रतिफल है कि 31 महीने में हमारे यहां 34 बार अंगदान हो चुका है। जल्द ही सोटो काम करना शुरू कर देगा। उम्मीद है इसके बाद छोटे शहर भी अंगदान के क्षेत्र में आगे आने लगेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि अंगदान को लेकर जल्दी ही हमारा शहर देश में पहले नंबर पर होगा।

- प्रोफेसर डॉ. संजय दीक्षित, सचिव, इंदौर ऑर्गन डोनेशन सोसायटी


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