MP Politics: आरक्षण के मामले पर अंतत: जीत गई शिवराज सरकार
उल्लेखनीय है कि प्रदेश में मार्च 2020 में पंचायतों का पांच साल का कार्यकाल पूरा हुआ था। नियमानुसार कार्यकाल समाप्ति से पूर्व नए चुनाव हो जाने चाहिए। विशेष परिस्थिति में इसे छह माह तक ही टाला जा सकता है।
संजय मिश्र। मध्य प्रदेश की पंचायतों एवं नगर निकायों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण देने के मुद्दे पर शुरू हुई राजनीति में भाजपा ने एक बार फिर कांग्रेस को पीछे धकेल दिया है। बुधवार को ओबीसी आरक्षण के साथ चुनाव कराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा जहां जश्न मना रही है, वहीं कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है। कमल नाथ सरकार द्वारा कराए गए परिसीमन को रद कर 2014 के परिसीमन के आधार पर पंचायत चुनाव कराने के लिए जारी अध्यादेश को निरस्त करने की मांग को लेकर कांग्रेस के कुछ समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने इन चुनावों में ओबीसी आरक्षण को लेकर सरकार के प्रारंभिक तर्क को स्वीकार नहीं किया था। उसने निर्वाचन आयोग को बिना ओबीसी आरक्षण के ही पंचायत चुनाव कराने का निर्देश दे दिया था। प्रदेश सरकार के लिए यह निर्देश किसी बडे़ झटके से कम नहीं था। इसीलिए बिना देर किए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार आवेदन दायर करने की घोषणा की थी। मध्य प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट को यह समझाने में सफल हो गई कि प्रदेश के पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग ने ओबीसी को 35 प्रतिशत आरक्षण देने को लेकर जो आधार दिए हैं वे पूरी तरह व्यावहारिक हैं।
उल्लेखनीय है कि राज्य की पंचायतों एवं नगर निकायों में अनुसूचित जाति-जनजाति के साथ ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रविधान पहले से है। जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 20 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। इसके बाद पिछड़ा वर्ग को 14 फीसद आरक्षण देने की व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था के तहत पंचायतों एवं निकायों में ओबीसी की आबादी के अनुसार उनका आरक्षण अधिकतम 25 प्रतिशत तक हो सकता था। इस बीच हाल ही में शिवराज सरकार ने ओबीसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में ओबीसी के लिए अधिकतम 35 फीसद आरक्षण दिए जाने का आधार प्रस्तुत किया था।
लगभग दो साल से भाजपा एवं कांग्रेस के बीच छिड़ी आरक्षण की जंग में यह लंबित चल रहा है। सरकार में रहते कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमल नाथ ने 2019 में पंचायतों के चुनाव की तैयारी शुरू की थी। नए सिरे से परिसीमन कराया, जिसमें लगभग 1200 नई पंचायतें बना दी गईं। इसी बीच उनकी सरकार आंतरिक विरोधों के कारण गिर गई। उनके बाद मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने नए परिसीमन को खामियों के आधार पर मध्य प्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज संशोधन अध्यादेश के माध्यम से निरस्त कर दिया। उसने 2014 के परिसीमन और चक्रानुक्रम के अनुसार ही चुनाव कराने की घोषणा कर दी। राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी गई। इसी बीच कांग्रेस से जुडे़ कुछ लोगों ने जबलपुर हाई कोर्ट में अध्यादेश के खिलाफ याचिका दायर कर दी। वहां से राहत न मिलने पर वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।
सुप्रीम कोर्ट के सवालों का सामना कर चुकी सरकार को यह पता था कि ओबीसी को पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में आरक्षण देने के लिए ट्रिपल टेस्ट कराना ही होगा। उसने यह काम ओबीसी आयोग को सौंपा, जिसने ओबीसी की जनसंख्या का आकलन करने के साथ उनके पिछड़ेपन का विस्तृत डाटा तैयार किया। इसका भी पता लगाया कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनका समानुपातिक प्रतिनिधित्व क्या है। उसने सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में दावा किया कि प्रदेश में ओबीसी के मतदाता 48 फीसद हैं। इसी आधार पर आयोग ने पंचायत एवं निकाय चुनाव में ओबीसी को 35 फीसद आरक्षण देने की न केवल सिफारिश की, बल्कि संविधान में संशोधन के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने के अनुशंसा भी की।
दरअसल, प्रदेश में 50 फीसद से अधिक आबादी पिछड़ा वर्ग की है। यहां की राजनीति में उनकी भूमिका अहम है। यही कारण है कि कमल नाथ सरकार ने उन्हें कांग्रेस के पाले में करने के लिए सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण को 14 प्रतिशत से बढ़ाकर प्रतिशत करने का फैसला किया। हालांकि हाई कोर्ट से इसके क्रियान्वयन पर रोक लगा दी गई। बाद में शिवराज सरकार ने भी 27 प्रतिशत आरक्षण के इस फार्मूले को न केवल कायम रखा, बल्कि हाई कोर्ट में जोरदार तरीके से पैरवी भी की। हाई कोर्ट के निर्देश के बाद जिन विभागों की भर्तियों में रोक नहीं थी, वहां 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया गया।
[स्थानीय संपादक, नवदुनिया, भोपाल]