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खंड-खंड 'धर्मनिरपेक्ष दलों' का पाखंड, हर किसी ने किया खारिज

बिहार में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) व राष्ट्रीय जनता दल (राजद), तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता के पाखंड व जनाधार को नए जनादेश ने खंड-खंड कर दिया है। वस्तुत: इन दलों की पूरी राजनीतिक सोच ही बिखर गई है। खुद को अल्पसंख्यक वर्ग का ठेकेदार बताने वा

By Edited By: Published: Mon, 19 May 2014 06:42 AM (IST)Updated: Mon, 19 May 2014 10:24 AM (IST)
खंड-खंड 'धर्मनिरपेक्ष दलों' का पाखंड, हर किसी ने किया खारिज
खंड-खंड 'धर्मनिरपेक्ष दलों' का पाखंड, हर किसी ने किया खारिज

[त्वरित टिप्पणी/प्रशांत मिश्र]।

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बिहार में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) व राष्ट्रीय जनता दल (राजद), तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता के पाखंड व जनाधार को नए जनादेश ने खंड-खंड कर दिया है। वस्तुत: इन दलों की पूरी राजनीतिक सोच ही बिखर गई है। खुद को अल्पसंख्यक वर्ग का ठेकेदार बताने वाले इन दलों को हर किसी ने खारिज किया। विकास को नजरअंदाज कर सिर्फ जाति की रट लगाने वाले दलों से पिछड़ों व दलितों का भी मोह भंग हो गया।

हालात यह हो गए हैं कि अस्तित्व बचाने के लिए बिहार में दो राजनीतिक दुश्मन जदयू व राजद अब दोस्ती की राह तलाश रहे हैं। परदे के पीछे दोनों आपस में मिलकर भविष्य में भाजपा को रोकने के लिए गोटियां बिछाने लगे हैं, लेकिन पूरे घटनाक्रम में दोनों पार्टियों के अंदर चिंगारी ही उन्हें जलाने लगी है। जदयू में मुख्यमंत्री व राष्ट्रीय अध्यक्ष आमने-सामने हैं। दोफाड़ की स्थिति पैदा हो गई है, तो राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के घर में फूट है। लोकसभा की हार के बाद विधायक भी साथ छोड़ने लगे हैं। दूसरी तरफ, उत्तर प्रदेश में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को उनके घर से ही चुनौती मिल रही है। कम-से-कम तीन दर्जन विधायक प्रदेश नेतृत्व पर खुलेआम सवाल उठा रहे हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती अपना दलित जनाधार बचाने के लिए सपा, भाजपा व कांग्रेस को कोस रही हैं। दरअसल, उन्हें भविष्य की भी चिंता सता रही है। उन्हें लग रहा है कि सर्वजन हिताय -सर्वजन सुखाय के उनके सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को कहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हड़प न ले। फिलहाल, सभी नेताओं को यह साबित करना है कि घर के अंदर उनका जनाधार कितना बचा है।

सपा, बसपा, जदयू या फिर राजद की पिछड़ी व दलित राजनीति की नींव हिल गई है। पिछड़ी पृष्ठभूमि से आए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिस तरह उत्तर प्रदेश व बिहार की जनता उमड़ी उसके बाद इन दलों का डरना वाजिब है। यह भी स्पष्ट हो गया है कि अल्पसंख्यक भी उन पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकते हैं। सपा के बड़बोले मंत्री आजम खां की नफरत की राजनीति को मुस्लिमों ने भी नकार दिया, तो नेताजी भी लाख कोशिशों के बावजूद यह भरोसा नहीं दिला पाए कि अल्पसंख्यक उनके लिए सिर्फ वोटबैंक नहीं हैं। यही कारण था कि प्रचंड बहुमत में जाति संप्रदाय की सीमा टूट गई व उन दलों की जड़ें हिल गई या उखड़ गई, जो धर्मनिरपेक्षता या जाति की बात कर विकास को भुला रहे थे।

गौरतलब है कि पटना में बम के धमाकों के बीच एक रैली में नरेंद्र मोदी ने कहा था, 'हिंदुओं और मुस्लिमों को तय करना होगा कि वह आपस में लड़ना चाहते हैं या गरीबी से.।' जनादेश ने अपना संदेश दे दिया।

बिहार में जो राजनीतिक हलचल शुरू हुई उसका कारण भी जनादेश ही है। बिहार में अपनी जमीन खिसकने व जदयू के विधायकों में खुले असंतोष के स्वर फूटने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस्तीफे का पत्ता खेलकर साख बचाने की कोशिश की। दरअसल, बिहार में जदयू के अंदर नेतृत्व की जो कमी है, उसमें उन्हें इसका अहसास रहा होगा कि फिर से उन्हें ही नेता चुना जाएगा, लेकिन जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने मौका देखकर अपना पासा खेल दिया। लालू प्रसाद यूं तो इसका इसका खंडन कर रहे हैं, लेकिन शरद के नजदीकी व राज्यसभा सांसद केसी त्यागी ने कह दिया कि शरद यादव व लालू यादव लगातर संपर्क में हैं। दरअसल यह किसी से छिपा नहीं है कि शरद और नीतीश के संबंध बहुत मधुर नहीं रहे हैं। कई अवसर पर दोनों नेताओं के बीच खुला मतभेद दिखा है। हाल में शरद मधेपुरा से लोकसभा चुनाव हारे तो इसका जिम्मा भी शरद के लोग नीतीश पर ही फोड़ रहे हैं। संभव है कि शरद वर्तमान घटनाक्रम के बीच बिहार में नेतृत्व परिवर्तन का अवसर देख रहे हों। ऐसा हुआ तो स्पष्ट है कि लालू समर्थन देने से पीछे नहीं हटेंगे। बिहार में मुख्यमंत्री पद को लेकर फैसला सोमवार तक टल गया है। शायद राजद की बैठक के बाद कोई फैसला हो, जबकि उत्तर प्रदेश में भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इस्तीफे को लेकर आवाज उठने लगी है। जिस तरह सपा मुखिया मुलायम सिंह सिर्फ अपने परिवार के सदस्यों की ही सीट जिता पाए उसमें जनाधार को लेकर आवाज उठे तो आश्चर्य भी नहीं। बसपा के लिए संकट यह है कि वह लोकसभा से पूरी तरह साफ हो गई। उन्हें अब यह समझ लेना चाहिए कि जनता विकास की राजनीति चाहती है पाखंड नहीं।

पढ़ें: उनकी धर्मनिरपेक्षता का गंगा में विर्सजन


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