इस्लामपुर के मो. रफीक से इंसानियत सीखें मजहब के आधार पर नफरत फैलाने वाले

हिंदू-मुसलमान का नारा लगाकर समाज में नफरत फैलाने वालों के मुंह पर इस्लामपुर के मो. रफीक करारा तमाचा हैं। कैसे? यह जानने के लिए पढ़िए पूरी खबर।

By Rajesh PatelEdited By: Publish:Thu, 29 Nov 2018 01:57 PM (IST) Updated:Thu, 29 Nov 2018 01:57 PM (IST)
इस्लामपुर के मो. रफीक से इंसानियत सीखें मजहब के आधार पर नफरत फैलाने वाले
इस्लामपुर के मो. रफीक से इंसानियत सीखें मजहब के आधार पर नफरत फैलाने वाले
 सिलीगुड़ी [राजेश पटेल/रंजीत यादव]। हिंदू-मुसलमान का नारा लगाने वाले इस्लामपुर के निवासी मो. रफीक से इंसानियत सीख सकते हैं। इन्होंने न जाति देखी, न धर्म को देखा। नंग-धड़ंग अवस्था में घूमने वाले एक विक्षिप्त को अपने घर में रखकर उसकी दवा में करीब डेढ़ लाख रुपये खर्च करके अच्छा इंसान बनाकर उसके परिजन को सौंप दिया। बता दें कि रफीक मूल रूप से अरबी का शब्द है। इसका हिंदी अर्थ हितैषी होता है। इन्होंने अपने वालिद और अम्मी द्वारा रखे इस नाम को सार्थक कर दिया। 
कहानी बिल्कुल फिल्मी है। बिहार के कटिहार जिले के कदुआ थाना क्षेत्र के बोड़ैयापट्टी का निवासी मिठुन विश्वास करीब आठ साल पहले लापता हो गया। पहले से ही उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। इधर-उधर घूमने के बाद करीब साढ़े तीन साल पहले वह पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिले के इस्लामपुर बाजार मे घूमने लगा। सिर पर लंबी जटा, दाढ़ी-मूंछ बढ़े हुए, शरीर पर एक सूत भी नहीं। शरीर पूरा गंदा। कोई भी देखता तो उसे झिड़क कर भगा देता था। कुछ खाने के लिए मांगने पर पिटाई भी करता था। 
संतोषी माता मंदिर के पास स्टील की ग्रिल, रेलिंग आदि की दुकान चलाने वाले मो. रफीक भी उसे रोज ही देखते थे। करीब आठ माह पहले रफीक कहीं से रात के 12 बजे गुजर रहे थे। बरसात का मौसम था। उस समय भी मूसलाधार बारिश हो रही थी। पिनपुल चौक के पास मिठुन नंग-धड़ंग अवस्था में भींगकर कांप रहा था। रफीक से नहीं रहा गया। करीब जाकर कहा कि क्यों भींग रहे हो, कहीं छाया में खड़े हो जाओ। इस पर मिठुन ने कहा कि भैया बड़ी तेज भूख लगी है। आप मुझे खाना खिलाओगे।
इस पर रफीक ने कहा कि मेरे साथ घर तक चलो तो खाना खिला सकता हूं। वह साथ जाने के लिए तैयार हो गया। रफीक ने सोचा कि बिल्कुल नंगा है, इसे लेकर घर कैसे जाएं। फिर पास में पड़ी एक प्लास्टिक दी, जिससे उसने अपने शरीर के कुछ अंगों को ढंक लिया। घर ले जाकर तालाब में पहले स्नान करने को कहा। सफाई के लिए साबुन दिया। जब स्नान कर लिया तो अपने कपड़े दिए। इतना प्यार पाकर वह कुछ सामान्य हुआ। फिर उसे खाना खिलाया।
अब वह रोज ही रफीक की दुकान के पास आकर बैठने लगा। रफीक उसे दोनों वक्त खाना खिलाने लगे। फिर किसी ने बताया कि बहरामपुर में इसका इलाज हो सकता है। उसे लेकर बहरामपुर गए। दवा ने असर दिखाना शुरू किया। वह धीरे-धीरे सामान्य अवस्था में आने लगा। पूरी तरह से ठीक हो गया तो उसने अपना नाम व पता आदि की जानकारी दी। इस दौरान उसके इलाज पर रफीक के करीब डेढ़ लाख रुपये भी खर्च हुए। एक पागल को पालने के कारण आसपास के लोग भी उनको कहने लगे कि तुम भी पागल ही हो गए हो क्या। न जान है, न पहचान। इसके इलाज पर इतनी राशि खर्च कर रहे हो। घर से भी यही बात सुनने को मिलती थी, लेकिन रफीक ने किसी की न सुनी, उसका इलाज कराते रहे। 
जब ठीक हो गया, तभी उसके परिजन को सूचित किया। आखिरकार खुशखबरी वाला वह दिन भी आ ही गया। गुरुवार को मिठुन को लेने उसकी मां बीना देवी इस्लामपुर आ ही गईं। करीब आठ साल बाद अपनी आंखों के तारे को देखकर वह भावविह्वल हो उठीं। उनकी आंखें झरना बन चुकी थीं। मिठुन व उसकी मां बीना को छोड़ने रफीक अलुआबाड़ी रेलवे स्टेशन तक गए और टिकट भी कटाकर दिया। 
बीना देवी ने कहा कि रफीक ने इंसानियत का जो परिचय दिया है, वह उन्हें भगवान से कम नहीं मानतीं। उनके बेटे को पागल से अच्छा इंसान बना दिया। मिठुन के पिता का नाम देबू विश्वास है।  
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