कैंसर को मात देकर जीती जिंदगी की जंग, अब ऐसे संवार रहीं पहाड़ की नारी का भविष्य; जानें- उनके संघर्ष की दास्तां

कैंसर को मात देकर जिदंगी की जंग जीतने वाली नीलम महिलाओं को स्वरोजगार के जरिये आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित कर रही हैं। जून 2019 में सतपुली को अपना ठौर बनाया। नीलम की मानें तो वर्तमान में करीब डेढ़ सौ महिलाएं मशरूम उत्पादन कर स्थानीय बाजारों में बेच रही।

By Edited By: Publish:Mon, 19 Oct 2020 03:00 AM (IST) Updated:Mon, 19 Oct 2020 10:43 PM (IST)
कैंसर को मात देकर जीती जिंदगी की जंग, अब ऐसे संवार रहीं पहाड़ की नारी का भविष्य; जानें- उनके संघर्ष की दास्तां
पहाड़ की नारी का भविष्य संवार रही नीलम।

कोटद्वार, अजय खंतवाल। कैंसर को मात देकर जिदंगी की जंग जीतने वाली नीलम महिलाओं को स्वरोजगार के जरिये आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित कर रही हैं। जून 2019 में सतपुली को अपना ठौर बनाया। साथ ही एकेश्वर, कल्जीखाल, बीरोंखाल, जयहरीखाल और दुगड्डा प्रखंडों में महिलाओं को मशरूम उत्पादन और अचार, जैम और जूस बनाने के साथ ही भीमल के रेशों से उत्पाद बनाने का निश्शुल्क प्रशिक्षण देने का कार्य शुरू किया। 

नीलम की मानें तो वर्तमान में करीब डेढ़ सौ महिलाएं मशरूम उत्पादन कर स्थानीय बाजारों में बेच रही हैं। कई स्थानों पर पचास से दो सौ किग्रा तक मशरूम का उत्पादन हो रहा है। पंद्रह महिलाएं भीमल के रेशों से उत्पाद तैयार कर रही हैं, जबकि पांच महिलाएं गोबर से दीये, गमले और भगवान गणेश की प्रतिमा तैयार कर रही हैं। भीमल के रेशों और गोबर से तैयार उत्पादों को वह स्वयं महिलाओं से खरीद उसे ग्राहकों तक पहुंचाती हैं। बताया कि वर्तमान में गोबर से तैयार उत्पादों की बड़ी डिमांड है।

 

मुश्किलों का किया सामना 

बीरोंखाल ब्लॉक के अंतर्गत ग्राम डुमेला तल्ला निवासी नीलम का दिल्ली में विवाह हुआ, लेकिन विवाह के कुछ वर्षों बाद ही उनके पति का देहांत हो गया। पति के देहांत के उपरांत घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी तो नीलम ने स्वजनों की मदद से फैब्रिकेशन का काम शुरू किया, लेकिन हालात ऐसे बने कि उन्हें यह कार्य बंद करना पड़ा। इसके बाद विभिन्न संस्थाओं के साथ बतौर कार्यकर्ता काम करने के साथ ही नीलम ने अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए अपनी इकलौती बेटी का लालन-पालन भी किया। 

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समाज सेवा को समर्पित किया जीवन वर्ष

2014 मे बेटी के शादी के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन समाजसेवा में व्यतीत करने का निर्णय लिया, लेकिन पित्त की थैली में कैंसर होने के कारण उनकी हालत बिगड़ने लगी। 2015 के अप्रैल माह में ऑपरेशन के दौरान उनकी स्थिति बिगड़ गई। चिकित्सकों ने जवाब दे दिया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। मन में संकल्प लिया कि उन्हें अभी समाज के लिए बहुत कुछ करना है। इसी संकल्प के साथ उन्होंने बीमारी से लड़ाई लड़ी और नवंबर माह में उन्होंने मौत को मात दे जिंदगी की जंग जीत ली। 2016 में उन्होंने उत्तराखंड का रूख किया और आज सतपुली से अपने अभियान को आग बढ़ा रही हैं।

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