Ekhathiya Temple Pithoragarah : पिथौरागढ़ के उस मंदिर की कहानी जो एक रात में एक हाथ से चट्टान काटकर बनाई गई

Ekhathiya Temple Pithoragarah प‍िथौरागढ में स्‍थ‍ित एक हथिया देवालय का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों और अभिलेखों में भी मिलता है। इस मंदिर के नाम में ही इसके निर्माण की कहानी है। एक हथिया देवाल है जिसका मतलब है- एक हाथ से बना हुआ।

By Skand ShuklaEdited By: Publish:Thu, 22 Sep 2022 03:17 PM (IST) Updated:Thu, 22 Sep 2022 03:17 PM (IST)
Ekhathiya Temple Pithoragarah : पिथौरागढ़ के उस मंदिर की कहानी जो एक रात में एक हाथ से चट्टान काटकर बनाई गई
Ekhathiya Temple Pithoragarah: पिथौरागढ़ के उस मंदिर की कहानी जो एक रात में एक हाथ से चट्टान काटकर बनाई गई

जागरण संवाददाता, पिथौरागढ़ : Ekhathiya Temple Pithoragarah : देव भूमि उत्तराखंड में हर मंदिर की अपनी कहानी और धार्मिक मान्यता है। एक ऐसा ही अनोखा मंदिर है सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के थल में। थल से करीब छः किलोमीटर दूर स्थित बल्तिर में एक अभिशप्त देवालय है, नाम है एक हथिया देवालय। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यहां दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं, भोलेनाथ का दर्शन करने आते हैं, मंदिर की अनूठी स्थापत्य कला को निहारते हैं और वापस अपने घरों को लौट जाते हैं। यहां भगवान की पूजा नहीं की जाती।

कत्यसूरी शासन काल में मंदिर निर्माण का उल्लेख

एक हथिया देवालय का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों और अभिलेखों में भी मिलता है। इस मंदिर के नाम में ही इसके निर्माण की कहानी है। एक हथिया देवाल है जिसका मतलब है- एक हाथ से बना हुआ। कत्यूरी शासन के दौर के शासकों को स्थापत्य कला से बहुत लगाव था। यहां तक कि वे इस मामले में दूसरों से प्रतिस्पर्द्धा भी करते थे।

एक हाथ से रातों रात बना दिया मंदिर

लोगों का मानना है कि एक बार यहां किसी कुशल कारीगर ने मंदिर का निर्माण करना चाहा। वह काम में जुट गया। कारीगर की एक और खास बात थी। उसने एक हाथ से मंदिर का निर्माण शुरू किया और पूरी रात में मंदिर बना भी दिया।

चट्टान को काटकर बनाया गया मंदिर

मंदिर की स्थापत्य कला नागर और लैटिन शैली की है। चट्टान को तराश कर बनाया गया यह पूर्ण मंदिर है। चट्टान को काट कर ही शिवलिंग बनाया गया है। मंदिर का साधारण प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा की तरफ है। मंदिर के मंडप की ऊंचाई 1.85 मीटर और चौड़ाई 3.15 मीटर है। यहां आने वाले श्रद्धालु पूजा अर्चना निषेध होने के कारण केवल दर्शन कर ही लौट जाते हैं।

क्या है मंदिर निर्माण के पीछे की कहानी

किंवदंती है कि इस ग्राम में एक मूर्तिकार रहता था जो पत्थरों को काटकर मूर्तियाँ बनाया करता था। एक बार किसी दुर्घटना में उसका एक हाथ चला गया। अब वह एक हाथ के सहारे ही मूर्तियाँ बनाना चाहता था। लेकिन गांव के कुछ लोगों ने उसे यह उलाहना देना शुरू किया कि अब एक हाथ के सहारे वह क्या कर सकेगा? लगभग सारे गाँव से एक जैसी उलाहना सुन सुनकर मूर्तिकार खिन्न हो गया।

मूर्तिकार ने प्रण कर लिया कि वह अब उस गाँव में नहीं रहेगा और वहाँ से कहीं और चला जाएगा। यह प्रण करने के बाद वह एक रात अपनी छेनी, हथौड़ी सहित अन्य औजार लेकर वह गाँव के दक्षिणी छोर की ओर निकल पडा। गाँव का दक्षिणी छोर प्रायः ग्रामवासियों के लिये शौच आदि के उपयोग में आता था। वहाँ पर एक विशाल चट्टान थी।

अगले दिन प्रातःकाल जब गाँव वासी शौच के उस दिशा में गये तो पाया कि किसी ने रात भर में चट्टान को काटकर एक देवालय का रूप दे दिया है। कैतूहल से सबकी आँखे फटी रह गयीं। सारे गांववासी वहाँ पर एकत्रित हुये परन्तु वह कारीगर नहीं आया जिसका एक हाथ कटा था।

सभी गांववालों ने गाँव मे जाकर उसे ढूंढा और आपस में एक दूसरे उसके बारे में पूछा परन्त्तु उसके बारे में कुछ भी पता न चल सका , वह एक हाथ का कारीगर गांव छोडकर जा चुका था।

इसलिए नहीं होती है पूजा

जब स्थानीय पंडितों ने उस देवालय के अंदर उकेरी गयी भगवान शंकर के लिंग और मूर्ति को देखा तो यह पता चला कि रात में ही शीघ्रता से बनाये जाने के कारण शिवलिंग का अरघा विपरीत दिशा में बनाया गया है जिसकी पूजा फलदायक नहीं होगी बल्कि दोषपूर्ण मूर्ति का पूजन अनिष्टकारक भी हो सकता है।

बस इसी के चलते रातों रात स्थापित हुये उस मंदिर में विराजमान शिवलिंग की पूजा नहीं की जाती। पास ही बने जल सरोवर में (जिन्हे स्थानीय भाषा में नौला कहा जाता है) मुंडन आदि संस्कार के समय बच्चों को स्नान कराया जाता हैं।

एक अन्य कहानी

जबकि एक अन्य कथा में यह कहा जाता है की एक बार एक राजा ने एक कुशल कारीगर का एक हाथ मात्र इसलिए कटवा दिया की वो कोई दूसरी सुन्दर इमारत न बनवा सके। लेकिन राजा कारीगर के हौसले को नहीं तोड़ पाया।

उस कारीगर ने एक ही रात में एक हाथ से एक शिव मंदिर का निर्माण किया और हमेशा के लिए वो राज्य छोड़कर चला गया। जब जनता को यह बात मालूम हुई तो उसे बहुत दुख हुआ। लोगों ने यह फैसला किया कि उनके मन में भगवान भोलेनाथ के प्रति श्रद्धा तो पूर्ववत रहेगी लेकिन राजा के इस कृत्य का विरोध जताने के लिए वे मंदिर में पूजन आदि नहीं करेंगे।

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