यूनेस्को की धरोहर पौड़ी की रामलीला, मुस्लिम-ईसाई समुदाय के लोग भी लेते हैं भाग

यूनेस्को की धरोहर बन चुकी पौड़ी की रामलीला ऐसी रामलीला है, जिसने विभिन्न संप्रदायों के लोगों को आपस में जोड़ने का काम तो किया ही, समाज में जागरुकता लाने में भी भूमिका निभाई।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Sun, 14 Oct 2018 01:02 PM (IST) Updated:Sun, 14 Oct 2018 02:48 PM (IST)
यूनेस्को की धरोहर पौड़ी की रामलीला, मुस्लिम-ईसाई समुदाय के लोग भी लेते हैं भाग
यूनेस्को की धरोहर पौड़ी की रामलीला, मुस्लिम-ईसाई समुदाय के लोग भी लेते हैं भाग

देहरादून, [दि‍नेश कुकरेती]: उत्तराखंड की रामलीलाओं में गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी में होने वाली रामलीला का शीर्ष स्थान है। यूनेस्को की धरोहर बन चुकी यह ऐसी रामलीला है, जिसने विभिन्न संप्रदायों के लोगों को आपस में जोड़ने का काम तो किया ही, आजादी के बाद समाज में जागरुकता लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पारसी थियेटर शैली और राग-रागनियों पर आधारित इस रामलीला का वर्ष 1897 में पौड़ी में स्थानीय लोगों के प्रयास से कांडई गांव में पहली बार मंचन हुआ था।

इसे वृहद स्वरूप देने का प्रयास वर्ष 1908 से भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने किया। विद्वतजनों के जुड़ने के कारण पौड़ी की रामलीला को एक नया स्वरूप मिला और आने वाले सालों में जहां रामलीला के मंचन में निरंतरता आई, वहीं इसमें अनेक विशिष्टताओं का समावेश होता भी चला गया। वर्ष 1943 तक पौड़ी में रामलीला का मंचन सात दिवसीय होता था, लेकिन फिर इसे शारदीय नवरात्र में आयोजित कर दशहरा के दिन रावण वध की परंपरा शुरू हुई।

शुरुआती दौर में रामलीला में प्रकाश व्यवस्था के लिए स्थानीय भीमल वृक्ष की लकड़ी (छिल्लों) का प्रयोग होता था। लेकिन, वर्ष 1930 में छिल्लों का स्थान पेट्रोमैक्स ने ले लिया। यह वह दौर था, जब गायन पक्ष में माइक के अभाव के कारण ऊंचे स्वर वाले गायकों को तरजीह दी जाती थी। यह पारसी थियेटर शैली का ही एक अंग है। वर्ष 1945 में नौटंकी शैली का स्थान पूरी तरह रंगमंच की पारसी शैली ने ले लिया। वर्ष 1957 में पौड़ी का विद्युतीकरण हुआ और रामलीला मंचन का स्वरूप भी निखरने लगा। धीरे-धीरे गीत नाट्य के जरिए इसके संगीत को विशुद्ध शास्त्रीयता से जोड़ा गया। स्क्रिप्ट में बागेश्री, विहाग, देश, दरबारी, मालकोस, जैजवंती, जौनपुरी जैसे प्रसिद्ध रागों पर आधारित रचनाओं का समावेश किया गया।

वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान के अनुसार रामलीला मंचन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गीतों के पर्द हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अवधी, ब्रज के अलावा अन्य देशज शब्दों की चौपाइयों में तैयार किए गए हैं। कुछ मार्मिक प्रसंगों की चौपाइयां ठेठ गढ़वाली में भी हैं। शब्द इतने सहज व आसान हैं कि गीतों के पद श्रोताओं तक सीधी लय बना लेते हैं। तब मंचन की जरूरी शर्त यानी संवाद की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। लोकरुचि के अनुसार इसमें समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। रावण के पात्र के रूप में किसी खूंखार राक्षसी चरित्र की बजाय एक आकर्षक, अभिमानी व बलशाली विद्वान का चित्रण, राम-लक्ष्मण-सीता के रूप में किशोरवय पात्र, जिनकी आवाज में गीतों के पद मधुरता की ऊंचाइयां छूने लगते हैं और कुछ प्रसंगों का नौटंकी शैली में प्रहसन के रूप में मंचन जैसी विशेषताएं इस रामलीला को अनूठा बनाती हैं।

पूरे उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करने वाली पौड़ी की रामलीला में हिंदुओं के साथ मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते रहे हैं। इनमें मोहम्मद सिद्दीक, सलारजंग, इलाहीबख्श हुसैन, हसीनन हुसैन व इमामउल्ला खां के साथ ईसाई समुदाय के विक्टर का नाम भी आदर से लिया जाता है। आज भी यह परंपरा अनवरत चली आ रही है। रामलीला का यह मंच अनेक कलाकार, संगीतकार, गायक और कवियों की साधनास्थली भी रहा है।

मन को छू जाता है पार्श्‍व गायन 

पौड़ी की रामलीला की एक विशिष्टता इसका पार्श्‍व गायन भी है। पहले रामलीला मंचन में पात्र स्वयं गाकर अभिनय भी करते थे। पार्श्‍व गायन से रंगमंच पर कलाकार के सामने आने वाली कतिपय समस्याओं से उसे छुटकारा मिला और कलाकार अभिनय पर अधिक ध्यान देने लगे। शुरू में प्रायोगिक तौर पर किए जाने वाले पार्श्‍व गायन के साथ मंचन की गुणवत्ता में इजाफा होने पर आज कुछ पात्रों को छोड़ बाकी सभी के लिए पार्श्‍व गायन किया जाता है।

आरती में भावनृत्य का समावेश

दृश्य के अनुरूप सेट लगाने के अनेक चर्चित अभिनव प्रयोगों में हनुमान का संजीवनी बूटी लाते समय हिमालय आकाश मार्ग से उड़ते हुए दिखाया जाना काफी लोकप्रिय हुआ। आज रामलीला में जितना महत्वपूर्ण इसका संगीत पक्ष है, उतना ही इसका कला पक्ष भी। कलापक्ष में ही आरती के दृश्य के साथ भावनृत्य भी आज पौड़ी की रामलीला की खास विशेषता बन गई है।

जिंक ऑक्साइड की जगह पेन केक 

रामलीला मंचन में मेकअप हमेशा एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। कम प्रकाश व्यवस्था के कारण विद्युतीकरण होने के बाद भी मेकअप में जिंक ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता था। लेकिन, बाद के वर्षों में वीडियोग्राफी के प्रचलन में आने के बाद अब जिंक ऑक्साइड का स्थान पेन केक ने ले लिया है।

आस्था के साथ आजादी का उल्लास 

यह ऐसी रामलीला है, जिसमें स्वतंत्रता के गीत भी उल्लास के साथ गूंजते हैं। स्व.मथुरा प्रसाद डोभाल का आजादी के बाद लिखा गीत ‘स्वतंत्र भारत पुण्य भूमि में, रामराज्य आया’ इसके साथ ही रामलीला मंच पर धार्मिक आस्था की तस्वीरों के साथ नेताजी सुभाषचंद्र बोस की तस्वीर लगाना साबित करता है कि उस जमाने में रामलीला से जुड़े लोगों में आजादी के प्रति कितना जुनून रहा होगा।

निष्ठा एवं लगन की प्रतिमूर्ति

इस ऐतिहासिक रामलीला को वर्तमान मुकाम तक पहुंचाने में कई लोगों का योगदान रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी पूरी निष्ठा एवं लगन से काम करने वाले इन लोगों में नरेंद्र सिंह भंडारी, दयासागर धस्माना, भूपेंद्र सिंह नेगी, नागमल सिंह नेगी, बच्ची सिंह, मोहन सिंह, ज्ञान विक्टर, मन्ना बाबू, सिताब सिंह कुंवर, सत्य प्रसाद काला, भगवंत सिंह नेगी, मदन सिंह नेगी, अजय नेगी, पूर्णचंद थपलियाल, सुंदर सिंह नेगी, नारायण दत्त थपलियाल, सुरेशचंद्र थपलियाल, उमाकांत थपलियाल, चिरंजीलाल शाह, मदनमोहन शाह, पीतांबर बहुखंडी शंकर सिंह नेगी, महिताब सिंह रावत, तारीलाल शाह, मथुराप्रसाद डोभाल आदि प्रमुख हैं।

पौड़ी की रामलीला यूनेस्को की धरोहर

पौड़ी की इस ऐतिहासिक रामलीला को अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी परखा गया है। कुछ वर्ष पूर्व यूनेस्को की ओर से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से जुड़ी तमाम विधाओं के संरक्षण की योजना बनाई गई। इसके तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने देशभर में रामलीलाओं पर शोध किया। फरवरी 2008 में केंद्र ने पौड़ी की रामलीला का दस्तावेजीकरण किया और साबित हुआ कि यह ऐतिहासिक धरोहर है। खुद यूनेस्को ने उसे यह मान्यता

प्रदान की है। निश्चित रूप में एक सांस्कृतिक दस्तावेज के तौर पर इस रामलीला का देश की विरासत में शामिल होना किसी भी परिपाटी के लिए गौरव की बात है।

दृश्य के अनुरूप लगते हैं सैट

साठ के दशक से रामलीला के कलापक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। खासकर, मंचन के दौरान दृश्य के अनुरूप सेट लगाने पर। इस दौर में भगवंत सिंह नेगी का दृश्य संयोजन और मंच निर्माण में विशेष योगदान रहता था। शुरू में मंच लकड़ी का बनाया जाता था, लेकिन वर्ष 1993 में पौड़ी नगर पालिका ने उसी स्थान पर एक विशाल स्थायी मंच का निर्माण करा दिया। मंच के लिए रामलीला कमेटी को यह जमीन कांडई गांव के कोतवाल सिंह नेगी के परिवार ने दान में दी थी।

सबसे पहले शामिल हुए महिला पात्र

पूरे उत्तराखंड में पौड़ी की रामलीला को ही यह श्रेय जाता है कि उसने महिला पात्रों को रामलीला मंचन में सर्वप्रथम शामिल किया। वर्ष 2002 में पहली बार यह प्रयोग किया गया, जो लोगों को इस कदर भाया कि आज सभी महिला पात्रों को महिलाएं ही अभिनीत करती हैं।

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