विपक्ष जितना सख्त सरकार उतनी ही सशक्त

लोकतंत्र स्वस्थ रहे इसके लिए दुरुस्त सरकार के साथ चुस्त विपक्ष का होना जरूरी है। विपक्ष की आवाज जितनी सख्त होगी सरकार के फैसले उतने ही सशक्त। लेकिन विपक्ष की सख्त आवाज का प्रभाव तभी होता है जब उसमें गंभीरता भी हो।

By Sumit KumarEdited By: Publish:Wed, 23 Dec 2020 02:37 PM (IST) Updated:Wed, 23 Dec 2020 02:37 PM (IST)
विपक्ष जितना सख्त सरकार उतनी ही सशक्त
लोकतंत्र स्वस्थ रहे, इसके लिए दुरुस्त सरकार के साथ चुस्त विपक्ष का होना जरूरी है।

विजय मिश्रा, देहरादून। लोकतंत्र स्वस्थ रहे, इसके लिए दुरुस्त सरकार के साथ चुस्त विपक्ष का होना जरूरी है। विपक्ष की आवाज जितनी सख्त होगी, सरकार के फैसले उतने ही सशक्त। लेकिन, विपक्ष की सख्त आवाज का प्रभाव तभी होता है, जब उसमें गंभीरता भी हो। उत्तराखंड में लंबे अरसे से विपक्ष में यह गंभीरता नदारद नजर आ रही है। बात बीते सोमवार की है। विधानसभा के शीतकालीन सत्र का पहला दिन था। प्रदेश का सबसे बड़ा विपक्षी दल कांग्रेस अपने अनुषांगिक संगठनों के साथ निकल पड़ा बेरोजगारी के मुद्दे को लेकर। मुद्दा दुरुस्त था, मगर लक्ष्य वही पुराना। तो युवाओं के भविष्य की चिंता में उनके जीवन की परवाह ही नहीं रही। कोविड-19 से बचाव के लिए जारी गाइडलाइन ही भूल गए। अब एक और मुकदमा हो गया है। नेताजी को समझना होगा कि विधानसभा सत्र जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाने का अवसर होता है। इसे महज राजनीति चमकाने तक सीमित मत रखिये।

गुरुजी मान भी जाओ

वैश्विक महामारी कोरोना ने जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। अकेले शिक्षा व्यवस्था ही इस विभीषिका से उपजी स्याह तस्वीर को रेखांकित करने के लिए काफी है। उत्तराखंड में मार्च में कोरोना की दस्तक के साथ बंद हुए स्कूलों के द्वार खुल तो गए हैं, मगर छात्रों के विद्यालय पहुंचने की राह अब तक सुगम नहीं हो पाई है। सरकारी स्कूलों में पाठ्यक्रम का बड़ा हिस्सा पढ़ाया जाना बाकी है। उसपर परीक्षाएं नजदीक आ गई हैं, सो अलग। बच्चों संग अभिभावक भी चिंतित हैं। चिंता लाजिमी भी है। इसीलिए प्रदेश के शिक्षामंत्री ने शिक्षकों से छात्रहित में शीतावकाश छोडऩे की अपील की है। इस अपील का शिक्षकों पर कितना असर होगा, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन, एक बात साफ है कि गुरु-शिष्य परंपरा हमारी संस्कृति के मूल में है। कहा भी गया है, 'गुरूर ब्रह्मा गुरूर विष्णु, गुरूर देवो महेश्वरा, गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नम:।'

पानी न बने परेशानी

सालभर मैदानी इलाकों की पानी की जरूरत पूरी करने वाले पहाड़ में ही हजारों की आबादी पानी की किल्लत से जूझ रही है। वजह पानी की कमी नहीं है। उस तक पहुंच आसान नहीं है। हालात देखिये। प्रदेश को अस्तित्व में आए 20 वर्ष बीत चुके हैं, मगर अब भी चमोली के 60 से ज्यादा गांव पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। नई टिहरी में छह गांव और 199 तोक पानी की लाइन से महरूम हैं। रुद्रप्रयाग में तो 30 फीसद से ज्यादा आबादी सालभर पानी के लिए परेशान रहती है। कमोबेश, सभी 11 पहाड़ी जिलों का हाल ऐसा ही है। सर्दी शुरू होने के साथ यहां पानी की किल्लत आपदा का रूप ले लेती है। खैर, वर्तमान सरकार जल जीवन मिशन के तहत प्रदेश के हर हिस्से में पानी की लाइन पहुंचाने को प्रयत्नशील है। बस, दुआ कीजिए कि यह प्रयास नदी के पानी की तरह गतिशील रहे। 

यह भी पढ़ें : सही जानकारी और प्रबंधन से बढ़ सकता है गेहूं उत्पादन

ताकि बाग-बाग हो बागेश्वर

7950 ग्राम पंचायतों वाले उत्तराखंड में 1700 गांव जनशून्य हो चुके हैं। वजह है पलायन। प्रदेश की सबसे बड़ी व्यथा। सबसे बड़ी चिंता। यह चिंता तब और बढ़ जाती है, जब पलायन ऐसे क्षेत्र में हो, जहां आजीविका के पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं। बात हो रही है धार्मिक पर्यटन के लिए विख्यात बागेश्वर की। ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट बताती है कि बीते दस वर्ष में जिले से तकरीबन 30 हजार लोग पलायन कर गए। इनमें से 23388 अस्थायी तौर पर तो 5912 स्थायी तौर पर रोजगार की तलाश में जिले से विदा हुए। बागेश्वर में धार्मिक पर्यटन के साथ पशुपालन और दुग्ध उत्पादन की भी व्यापक संभावनाएं हैं। वास्तव में पलायन रोकना है तो सरकार को इन दिशाओं में भी सक्रिय होना होगा। ठीक उसी प्रकार जैसे नीति घाटी में इनर लाइन समाप्त होते ही टिंबरसैंण महादेव की यात्रा शुरू करने को सक्रियता दिखाई जा रही है।

यह भी पढ़ें :देहरादून की अलका ने बुलंद हौसले से दी मुफ़लिसी को मात, जानिए कैसे पीसीएस जे में हासिल की सफलता

chat bot
आपका साथी