व्यक्ति को जड़ता से ऊपर उठाते हैं भक्ति और प्रेम, भरत के चरित्र की व्याख्या करते बोले स्वामी मैथिलीशरण

धन्य हैं गुरु वशिष्ठ जिन्होंने भरत के चरित्र और भक्ति को देखकर धर्म की व्याख्या ही बदल दी। उन्होंने भरत और भगवान श्रीराम के मिलन को देखकर राम भक्ति के प्रेमामृत को घट-घट पिया। वे धर्म से उठकर धर्मसार को प्राप्त हो जाते हैं।

By Sumit KumarEdited By: Publish:Thu, 25 Nov 2021 03:48 PM (IST) Updated:Thu, 25 Nov 2021 05:46 PM (IST)
व्यक्ति को जड़ता से ऊपर उठाते हैं भक्ति और प्रेम, भरत के चरित्र की व्याख्या करते बोले स्वामी मैथिलीशरण
सात दिवसीय भरत चरित्र कथा के चौथे दिन युग तुलसी पंडित रामकिंकर उपाध्याय के शिष्य स्वामी मैथिलीशरण ने व्यक्त किए।

जागरण संवाददाता, देहरादून: धन्य हैं गुरु वशिष्ठ, जिन्होंने भरत के चरित्र और भक्ति को देखकर धर्म की व्याख्या ही बदल दी। उन्होंने भरत और भगवान श्रीराम के मिलन को देखकर राम भक्ति के प्रेमामृत को घट-घट पिया। वे धर्म से उठकर धर्मसार को प्राप्त हो जाते हैं। यह उद्गार सुभाष रोड स्थित चिन्मय मिशन आश्रम में चल रही सात दिवसीय भरत चरित्र कथा के चौथे दिन युग तुलसी पंडित रामकिंकर उपाध्याय के शिष्य स्वामी मैथिलीशरण ने व्यक्त किए।

श्री सनातन धर्म सभा गीता भवन की ओर से आयोजित कथा में श्री राम किंकर विचार मिशन के परमाध्यक्ष स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि नियम और विधान में परिवर्तन की संभावना ही उसका प्राण तत्व है, अन्यथा उसको मृत समझा जाना चाहिए, क्योंकि कुछ समय बाद समाज और व्यक्ति के स्तर पर परिस्थितियां बदल जाती हैं। भौगोलिक स्थिति बदलने पर यदि नियम और विधान न बदले जाएं तो वे जड़ हो जाएंगे। कहा कि भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम ही वह व्यवस्था है, जो व्यक्ति को जड़ता से ऊपर उठा सकती है। महाराज दशरथ के राज्य के नियम रामराज्य के लिए अभीष्ट नहीं हैं, क्योंकि वहां प्रत्यक्ष को महत्व दिया जाता है। जबकि, हमारी संस्कृति प्रत्यक्ष के साथ अप्रत्यक्ष को भी स्वीकारती है। जैसे प्रयागराज स्थित त्रिवेणी संगम में गंगा और यमुना तो प्रत्यक्ष हैं, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से सरस्वती के मौजूद न होने पर भी वह संपूज्य है।

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स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि फल में बीज और बीज से फल की स्वीकृति ही सनातन संस्कृति है। निर्गुण से सगुण और सगुण में निर्गुण, यही पूर्णता है। चिंतन में यदि व्यापकता का अभाव हो तो वह अपने सृजनात्मक उद्देश्य से विमुख हो जाता है। कहा कि भक्ति वह प्राण तत्व है, जो अनुष्ठान आदि को प्राणमय बनाकर साधक और उसकी साधना को ईश्वर की कृपा से जोड़ देता है। वही भक्ति भरत में है, जो गुरु वशिष्ठ ने पूरी तरह आत्मसात कर ली थी। भरत का यह निर्णय कि पहले मैं चित्रकूट जाकर भ्राता श्रीराम के दर्शन करके अपने हृदय की वेदना को मिटाऊंगा, उसी के बाद मैं माता-पिता, गुरु और मंत्रियों की बात समझने की स्थिति में आ पाऊंगा और तय कर सकूंगा कि मुझे करना क्या है। स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि भगवान का सामना किए बगैर संसार की सारी संपदा भी यदि व्यक्ति को मिल जाए तो वह भी खोने जैसा परिणाम ही देती है।

भरत चरित्र कथा का श्रवण आप यू-ट्यूब पर भी कर सकते हैं। इसके लिए यू-ट्यूब लिंक \https://youtu.bed5qEre6urgk को सब्सक्राइब कीजिए।

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