सड़कों पर आंदोलन में कार्मिक संगठन आगे, इससे जाम की स्थिति हो जाती विकट Dehradun News
ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट की अब तक की अंतिम रिपोर्ट पर गौर करें तो उत्तराखंड में सालभर में 21.96 हजार आंदोलन दर्ज किए गए हैं। इनमें कार्मिक आंदोलनों सबसे आगे हैं।
देहरादून, जेएनएन। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट की अब तक की अंतिम रिपोर्ट पर गौर करें तो उत्तराखंड में सालभर में 21.96 हजार आंदोलन दर्ज किए गए हैं। इनमें कार्मिक आंदोलनों की संख्या सर्वाधिक 5838 है। सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने की बात करें तो इनमें भी कार्मिक वर्ग सबसे आगे है। चूंकि दून राजधानी भी है तो आंदोलनों का केंद्र भी यहीं रहता है। इसके चलते पहले से अतिरिक्ति दबाव झेल रही दून की सड़कों पर जाम की स्थिति विकट हो जाती है। अब सवाल यह उठता है कि 21 हजार से अधिक आंदोलनों में ज्यादातर सड़कों पर उतरे बिना किए जा सकते हैं तो कार्मिक संगठनों को सड़कों पर उतरने की छूट क्यों दी जा रही है।
यह सवाल इसलिए भी लाजिमी हो जाता है, क्योंकि कार्मिकों की सभी मांगें, उस सरकार या कार्यालय से होती हैं, जहां वे सेवाएं दे रहे हैं। सरकार-शासन-प्रशासन व कार्मिकों के बीच किसी न किसी रूप में संवाद जारी रहता है। इसके बाद भी नियत प्रतिष्ठानों को छोड़कर सड़कों पर उतरकर आंदोलन करना बेहतर स्थिति को नहीं दर्शाता।
फिर सवाल यह उठता है कि सरकार व उसकी मशीनरी से अछूते तमाम संगठन जब अपनी या समाज की मांग के लिए ऐसा कर सकते हैं तो कार्मिकों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किए जाने की जरूरत है। यह जिम्मा पुलिस-प्रशासन से अधिक सरकार व शासन का है। यदि उनके स्तर से भी पहल की जाए तो कार्मिकों के आंदोलन न तो चरम स्थिति तक पहुंच पाएंगे, न ही उन्हें सड़कों पर उतरने को मजबूर होना पड़ेगा।
महज 15 फीसद पर अंकुश लगाना है
पुलिस के आकलन के अनुसार दून में जितने कार्मिक संगठनों के धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें से महज 15 फीसद ही सड़कों पर होकर गुजरते हैं। यह संख्या बेहद कम है, मगर इतनी है कि हर दूसरे दिन शहर को परेशानी में डाल दे। शहर की सड़कों की राह को आए दिन रोकने के लिए यह संख्या पर्याप्त, पुलिस-प्रशासन इन पर रोक लगाना चाहे तो अधिक मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगा। क्योंकि उन अधिकतर आंदोलनों का उदाहरण भी दिया जा सकता है, जो प्रतिष्ठान विशेष तक सीमित रहते हैं।
आंदोलन कम होंगे तो सड़कों पर भी कम दिखेंगे
उत्तराखंड के कार्मिक पूरे देश में सबसे अधिक असंतुष्ट हैं। यह असंतोष जब चरम पर पहुंच जाता है तो सड़कों पर भी इसकी नुमाइश धरना-प्रदर्शन के रूप में की जाती है। यूं तो कुल आंदोलनों में भी उत्तराखंड टॉप पर है, मगर सेक्टरवार आंदोलन की बात करें तो यहां के कर्मचारियों ने राजनीतिक व छात्र आंदोलनों को भी पछाड़ दिया। कर्मचारी कल्याण की दिशा में निरंतर प्रयास होने के बाद भी यह स्थिति गंभीर सवाल खड़े करती है और सोचने पर भी विवश करती है कि क्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे विशाल राज्यों से अधिक आंदोलन उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में हो रहे हैं। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि आंदोलन का सर्वाधिक दबाव दून पर पड़ता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्योंकि इस तरह की व्यवस्था नहीं बनाई जाती कि कार्मिक कम से कम आंदोलन करें और यदि यह संभव हुआ तो सड़कों पर दबाव स्वत: ही कम होने लगेगा।
दूनवासियों के बोल आशीष गर्ग (देहरादून निवासी) का कहना है कि सरकार, शासन और प्रशासन का पहला दायित्व है कि जनमानस की सुविधाओं को सबसे ऊपर रखा जाए। शोभायात्राओं में ठीक इसका उल्टा होता है। पूरा शहर जाम से बेहाल हो जाता है। लोग सामान उठा कर पैदल चलते हैं। एंबुलेंस मरीजों को लेकर अस्पताल तक समय पर नहीं पहुंच पाती हैं। ऊपर से पूरे शहर में प्लास्टिक की प्लेट और ग्लास का कूड़ा जहां-तहां बिखरा रहता है। धार्मिक आयोजन जरूर होने चाहिए, मगर पूरे शहर की सुविधाओं की कीमत पर नहीं।
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