मसूरी गोलीकांड को याद कर आज भी सिहर उठते हैं लोग

शांत वादियों में हुआ एक ऐसा गोलीकांड जिसे याद कर आज भी लोगों की रूह कांप जाती है। हम बात कर रहे हैं मसूरी गोलीकांड की। जहां निर्दोषों का खून पानी की तरह बहाया गया।

By Edited By: Publish:Sat, 01 Sep 2018 03:01 AM (IST) Updated:Sat, 01 Sep 2018 02:16 PM (IST)
मसूरी गोलीकांड को याद कर आज भी सिहर उठते हैं लोग
मसूरी गोलीकांड को याद कर आज भी सिहर उठते हैं लोग

मसूरी, [जेएनएन]: उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान दो सितंबर 1994 को मसूरी के झूलाघर में हुए गोलीकांड को याद कर आज भी मसूरीवासियों के तन में सिरहन दौड़ जाती है। मसूरी की शांत वादियों के इतिहास में दो सितंबर एक ऐसे काले दिन के रूप में दर्ज है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह वही दिन है, जब तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार की पुलिस ने बिना चेतावनी के अकारण ही राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी थी। इस गोलीकांड में मसूरी के छह आंदोलनकारी तो शहीद हुए ही, एक पुलिस अधिकारी की भी गोली लगने से मौत हो गई थी। 

एक सितंबर 1994 को खटीमा में भी पुलिस ने राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाई थी। इसके बाद पुलिस व पीएसी ने एक सितंबर की रात ही राज्य आंदोलन की संयुक्त संघर्ष समिति के झूलाघर स्थित कार्यालय पर कब्जा कर वहां क्रमिक धरने पर बैठे पांच आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया था। इसके विरोध में दो सितंबर को नगर के अन्य आदोलनकारियों ने झूलाघर पहुंचकर शांतिपूर्ण धरना शुरू कर दिया।

 

यह देख रात से ही वहां तैनात सशस्त्र पुलिस कर्मियों ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। इसमें छह आंदोलनकारी बेलमती चौहान, हंसा धनाई, युवा बलबीर सिंह नेगी, रायसिंह बंगारी, धनपत सिंह और मदन मोहन ममगाईं शहीद हो गए। साथ ही बड़ी संख्या में आंदोलनकारी गंभीर रूप से घायल हुए। पुलिस ने शहरभर में आंदोलनकारियों की धरपकड़ शुरू की तो पूरे शहर अफरातफरी फैल गई। 

पुलिस ने आंदोलनकारियों को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें दो ट्रकों में ठूंसकर देहरादून स्थित पुलिस लाइन भेज दिया। यहां उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई और फिर सेंट्रल जेल बरेली भेज दिया गया। कई आंदोलनकारियों पर वर्षो तक सीबीआइ अदालत में मुकदमे चलते रहे। 

धरे-के-धरे रह गए आंदोलनकारियों के सपने 

पहाड़ के सर्वागीण विकास, खाली हो चुके गांवों के फिर से आबाद होने और पलायन रुकने की आस में बच्चों, जवान, बुजुर्ग व महिलाओं ने राज्य आंदोलन में स्वेच्छा से बढ़-चढ़कर भागीदारी की। लेकिन, अफसोस कि राज्य बनने के 18 साल बाद भी आंदोलनकारियों के सपनों को पंख नहीं लग पाए। पलायन रुकने की बजाय बढ़ता चला गया, गांव के गांव वीरान हो गए, भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया और महंगाई आसमान छू रही है। यही नहीं, पहाड़ की शांत फिजाओं में अपराध खूब फूल-फल रहा है। महिला उत्पीड़न की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। ऐसे राज्य की जनता खुद को ठगा-सा महसूस कर रही है।

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