देवी दुर्गा के सेना की सेनापति थीं वाराही देवी, शक्तिपीठ होने से इनके समक्ष निर्मल मन से मांगी गई मन्नत होती है पूरी

जिस तरह काशी के कोतवाल कालभैरव काशी को बाहरी बाधाओं से बचाने का दायित्व संभालते हैं वैसे ही काशी में मां वाराही देवी क्षेत्र पालिका के रूप में काशी की रक्षा करती हैं।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Fri, 06 Dec 2019 03:24 PM (IST) Updated:Fri, 06 Dec 2019 07:09 PM (IST)
देवी दुर्गा के सेना की सेनापति थीं वाराही देवी, शक्तिपीठ होने से इनके समक्ष निर्मल मन से मांगी गई मन्नत होती है पूरी
देवी दुर्गा के सेना की सेनापति थीं वाराही देवी, शक्तिपीठ होने से इनके समक्ष निर्मल मन से मांगी गई मन्नत होती है पूरी

वाराणसी [रवींद्र त्रिपाठी] । जिस तरह काशी के कोतवाल कालभैरव काशी को बाहरी बाधाओं से बचाने का दायित्व संभालते हैं वैसे ही काशी में मां वाराही देवी क्षेत्र पालिका के रूप में काशी की रक्षा करती हैं। इनका मंदिर वाराणसी के दशाश्वमेध क्षेत्र के मानमंदिर घाट के कुछ मीटर की दूरी पर गलियों के बीच में है। गलियों के बीच में मां वाराही देवी की स्वयंभू प्रतिमा है। मां के महात्म्य के बारे में बताया जाता है कि शक्तिपीठ होने से इनके समक्ष निर्मल मन से जो भी मांगा जाए वह मन्नत पूरी होती है। इन्हें गुप्त वाराही भी कहा जाता है।

मां वाराही असुरों से युद्ध के समय मां दुर्गा के सेना की सेनापति भी थीं। मान्यता यह भी है कि इनके दर्शन मात्र से सभी तरह के कष्ट से मुक्ति मिलती है और आयु तथा धन में वृद्धि होती है।

मां वाराही देवी का एक मंदिर उत्तराखंड के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित है। शक्तिपीठ मां वाराही का मंदिर जिसे देवीधुरा के नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक आस्था के साथ ही नैसर्गिक सौंदर्य के लिए भी यह स्थल महत्वपूर्ण है। इस स्थल पर जाने के लिए लोहाघाट से लगभग 60 किमी का सफर करना होगा।

काशीस्थ वराही देवी के मंदिर में अद्भुत परंपराएं हैं। यहां किसी भी दर्शनार्थी को गर्भगृह में जाने की अनुमति नहीं है। यह मंदिर एक मंजिल नीचे है। इनके दर्शन के लिए ऊपर छत में झरोखा बनाया गया है। उसी स्थान से भक्त दर्शन करते हैं। यह मंदिर प्रतिदिन सुबह पांच बजे खुलता है तथा सुबह 8.30 बजे पट बंद हो जाता है। पहले सुबह सात बजे तक ही खुलता था परंतु भीड़ और जनभावनाओं को देखते हुए मंदिर के व्यवस्थापकों ने समय बढ़ाया। मंदिर के व्यवस्थापक मनीष कुमार द्विवेदी के मुताबिक मंदिर के गर्भगृह में पुरुषों के साथ ही महिलाओं को भी जाने की अनुमति नहीं है। एक किवदंती के अनुसार एक परिवार को संतान नहीं हो रही थी। उस परिवार ने मन्नत मानी तो परिवार को संतान सुख प्राप्त हुआ। संतान प्राप्ति के बाद वह लोग भगवती को भूल गए।  कुछ समय के बाद उस परिवार दंपती की चुनरी मां वराही के मुख में देखी गई जो आज भी है। बाद में मां के आशीर्वाद से वह परिवार सुरक्षित मिला। यह मंदिर पहले ऊपर था। अपवित्र स्थिति में किसी के द्वारा देवी का दर्शन कर स्पर्श करने के कारण यह मूर्ति स्वत: नीचे वाले स्थान में स्थिर हो गई। यहां दर्शन करने मात्र से सर्वशत्रु शमन होता है तथा काशी क्षेत्र में निवास स्थायी होता है।

देवी की प्रार्थना - वाराहरूपिणीं देवीं दंष्ट्रोद्धृतवसुंधराम् । शुभदां सुप्रभां शुभ्रां वाराहीं तां नमाम्यहम् ॥

दुर्गा का तामस व सात्विक रूप हैं वाराही देवी

चौंसठ योगिनियों में 28 वां स्थान माता वाराही का है। यह देवी दुर्गा का तामस और सात्विक रुप हैं, जो भगवान विष्णु के वराहावतार की शक्ति रूपा हैं। इनका शीश जंगली सूकर का है। देवीपुराण के  देवीनिरुक्ताध्याय में कहा गया है- वराहरूपधारी च वराहोपम उच्यते । वाराहजननी चाथ वाराही वरवाहना ॥

 श्रीदुर्गा सप्तशती चंडी के अनुसार शुंभ निशुंभ दो महादैत्यों के साथ जब महाशक्ति भगवती मां दुर्गा का प्रचंड युद्ध हो रहा था तब मां भगवती परमेश्वरी कि सहायता के लिए सभी प्रमुख देवता (भगवान शिव, भगवान विष्णु, भगवान ब्रह्मा, देवराज इंद्र, कुमार कार्तिकेय) अपने कर्मों के आधार शक्ति स्वरूपा देवीयों को अपने शरीर से निकालकर देवी दुर्गा के पास प्रेरित किया था। उसी समय भगवान विष्णु अपने अंशावतार वाराह के शक्ति मां वाराही को प्रकट किया था। इनके कई नाम हैं।

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