पैगामी लीला चेतगंज की नक्कटैया मेला, बरतानिया हुकूमत के खिलाफ शुरू हुई परंपरा आज भी कायम

आजादी का पैगाम देने के लिए बरतानिया हुकूमत के खिलाफ पैगामी लीला चेतगंज की नक्कटैया मेले की शुरूआत हुई।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Wed, 16 Oct 2019 09:24 PM (IST) Updated:Thu, 17 Oct 2019 09:08 AM (IST)
पैगामी लीला चेतगंज की नक्कटैया मेला, बरतानिया हुकूमत के खिलाफ शुरू हुई परंपरा आज भी कायम
पैगामी लीला चेतगंज की नक्कटैया मेला, बरतानिया हुकूमत के खिलाफ शुरू हुई परंपरा आज भी कायम

वाराणसी [प्रमोद यादव] मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की लीलाओं को सहेजे रामचरित मानस की छोटी सी घटना जिसने सीता हरण तो  कराया ही अंतत: लंकाधिपति रावण के वध से बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश लोक में प्रसारित किया, उसकी भी प्रासंगिकता बनारसी मन शिरोधार्य करता है। कोई भी सोच नहीं सकता था कि एक छोटा सूत्रधारी प्रसंग उमंग-उल्लास और बनारसी अहसास समेटे लक्खा मेला बन सकता है। आजादी का पैगाम देने के लिए बरतानिया हुकूमत के खिलाफ अभिव्यक्ति के धारदार हथियार रूप में ढल सकती है तो परिवेश अनुसार मनोरंजन के साथ अत्याचार- अनाचार के खिलाफ विरोध का स्वर मुखर करती है। गुरुवार को चेतगंज की नक्कटैया मेला का आयोजन होगा।

नक्कटैया लीला में मूलत

रामचरित मानस पर आधारित रामलीला के श्रृंखला बद्ध मंचन के क्रम में लक्ष्मण अमर्यादित सूर्पणखा की नाक काट कर रावण की आसुरी शक्ति को चुनौती देते हैैं, जिसके प्रत्युत्तर में राम-लक्ष्मण के विरुद्ध सूर्पणखा व उसके भाई खर-दूषण द्वारा आसुरी सैन्य -शक्ति प्रदर्शन और राम से युद्ध की यात्रा का जुलूस ही नक्कटैया मेले का आकर्षण बनती रही है। सामान्यतया जहां कहीं भी रामलीला होती है, यह प्रसंग ऐसे ही उत्सव के रूप में मनाया और सजाया जाता है लेकिन चेतगंज में यह प्रसंग राष्ट्र भक्ति से जुड़ कर अलग हो जाता है। ख्याति के स्तर पर शहर-प्रांत ही नहीं देश की सीमाओं को लांघते हुए अंतरराष्ट्रीय हो जाता है। 

स्वतंत्रता संग्राम के तीन दशक बाद का दौर जब जुबान पर बरतानिया हुकूमत के हेवी लीवर वाले ताले लगे थे। अत्याचार चरम पर और शोषण की पराकाष्ठा थी। ऐसे समय में यायावरी वृत्ति वाले बाबा फतेराम ने 1887 में चेतगंज के केशवानंद श्रीवास्तव व मुंशी माधोलाल के सहयोग से चेतगंज में रामलीला का आरंभ कराया। धर्म-शास्त्र और उत्सव-आनंद में पगी आयोजन श्रृंखला के लिए सेठ-साहुकारों ने खुले हाथ से सहयोग किया। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी यानी करवाचौथ पर खास आयोजन नक्कटैया में लाग-डाट के कारण एक से एक आकर्षक लाग-विमान, झांकियों ने इसे दूर-दूर तक प्रचारित प्रसारित किया। इससे कालांतर में कुछ सहज विकृतियों का प्रवेश जरूर हुआ लेकिन जयशंकर प्रसाद व बेढब जी के निर्देशन में कुशल संरक्षकों ने धीरे-धीरे इसका रूख मोड़ा और व्यंग्य, प्रतिरोध, स्वाभिमान और राष्ट्र भक्ति के रंग घोल कर इसे संस्कारित किया। धार्मिक उत्सव ने श्रव्य दृश्य माध्यम के खुद को बरतानिया हुकूमत के खिलाफ अभिव्यक्ति का धारदार हथियार बनाया और आजादी का पैगाम दे दिया। तौर तरीका भी ऐसा अपना लिया कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटने पाए। इसका ख्याल रखते हुए अंग्रेजी अफसरों को बुलाते और उनसे ही उद्घाटन करातेे। रामलीला प्रसंगों के सहारे युवाओं के जत्थे आजादी के तराने गाते और छंदों -चौपाइयों में ही पूरी बात कह जाते।

भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में इसमें बौर लगे। आंदोलन की अगुवाई करने वाले शीर्ष नेता या तो कारागार में थे या फिर भूमिगत हो लड़ाई को पैनापन देने की कोशिश में जुटे थे। ऐसे में अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए लाखों की भीड़ वाला उत्सव, चेतगंज नक्कटैया को जरिया बनाया। ऐसे में पहले की अपेक्षा इसमें कुछ अधिक ही खुलापन नजर आया। इसके लिए डा. संपूर्णानंद, श्रीप्रकाश, खेदनलाल जायसवाल, विश्वनाथ जायसवाल आदि ने रणनीतिक बैठक में फूलप्रूफ प्लान बनाया। इसे पैगामी झांकियों से सजाया और उत्सव को राष्ट्र धर्म से जोड़ कर युवाओं को आजादी का मर्म बताया। परंपरागत लाग -स्वांग-विमानों (झांकियों) के साथ ही आजादी का पैगाम देने वाली झांकियों को शामिल किया गया। पूज्य पुरुषों की झांकी, राजनेताओं के कट आउट, स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं का चित्रण और स्वांग, रानी लक्ष्मी बाई की वीरता के लाग, अभिनय के माध्यम से निरंकुश अंग्रेजों का मजाक, द्वितीय विश्व युद्ध की घटनाओं का चित्रण, भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव की फांसी के दृश्य, चंद्रशेखर आजाद के बलिदान का प्रदर्शन, जलियावाला बाग की घटना के साथ ही तिरंगा, चरखा, जेल, पुलिस अत्याचार, आंदोलन के नेताओं के स्वरूप को दिखाने वाली झांकियों से सजा नक्कटैया का जुलूस जब सड़क पर निकला, तहलका मच गया। जोशीले नारों से इन झांकियों का स्वागत हुआ।

जुलूस ने कुछ वैसा ही असर दिखाया जो बाल गंगाधर तिलक के आह्वान पर महाराष्ट्र में सार्वजनिक बने गणेशोत्सव ने दिखाया था। नक्कटैया का यह प्रयास प्रशासन की नजर में आने से बचा न रह सका। रोक-टोक की कोशिशें जरूर हुईं लेकिन अपार जनसमर्थन के कारण यह प्रयास सफल नहीं हुआ। आयोजक प्रशासन को लगातार छकाते रहे और नई-नई झांकियों को जुलूस में शामिल करने का क्रम जारी रहा।

जैसा परिवेश, वैसी भूमिका

देश आजाद हुआ तो दूसरे तरह की समस्याएं सामने थीं। ऐसे समय में नक्कटैया ने भी अपनी थीम के तौर पर समाज सुधार आंदोलन को अंगीकार किया। दहेज, बाल विवाह, विधवा विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियां निशाने पर आईं। बाद के दौर में राजनीतिक विसंगतियां, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी वगैरह पर नक्कटैया ने अपने स्वांगों से तीखे प्रहार किए। गंगा की निर्मलता-अविरलता, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता के संदेश भी दिए।

पौराणिकता और मनोरंजन का ध्यान

इसमें प्रभु श्रीराम के विरुद्ध सूर्पणखा के सैन्य अभियान को प्रदर्शित करने के लिए लाग, स्वांग, चमत्कृत और डरावने दृश्यों के माध्यम से सामाजिक और राष्ट्रीय दुव्र्यवस्था के साथ ही कुरीतियां खुले मंच पर आती हैैं। मेलार्थियों केमनोरंजन के लिए राक्षसों की चमत्कृत करने वाली युक्तियां भी दशाई जाती हैैं। नाक कटी सूर्पणखा और उसके पीछे राक्षसी सेना के डरावने दृश्य तो देवी-देवताओं की झांकी, हरिश्चंद्र प्रसंग और पौराणिक प्रसंग भी सज जाते हैैं। दुर्गा-काली के मुखौटे, मुकुट व वस्त्रधारी सैकड़ों पात्र और उनके करतब तो बिजली की सजावट के साथ ही अन्य मनोरंजक लाग-विमान होते हैं।

जज्बा कायम

वर्तमान दौर में भी समसामयिक मुद्दे चेतगंज की नक्कटैया का आधार बनते हैैं। इस कड़ी में इसने कभी बोफोर्स दागा तो मंडल-कमंडल को थीम बनाया। चेतगंज रामलीला कमेटी के महेंद्र निगम बताते हैैं कि प्रयास है कि नक्कटैया के लाग-विमान समाज को संदेश देने का माध्यम बने रहें।

एक-एक पैसे का सहयोग

प्रारंभ में इस लीला की व्यवस्था चंदे पर आधारित थी लेकिन बाद में बाबा ने अनूठी तरकीब निकाली। यह थी मेला क्षेत्र के दुकानदारों द्वारा प्रतिदिन एक-एक पैसे के सहयोग का। इस तरह वर्ष भर में लीला आयोजन के लिए काफी धन एकत्रित होने लगा। बाद में बाबा के निस्पृह जीवन से अभिभूत नगर के सेठ-साहुकार भी इस लीला में उत्साह के साथ भाग लेने लगे। उनकी तरफ से लाग-विमानों की व्यवस्था होने लगी। फिलहाल लोगों के हाथ खींच लेने से ऐतिहासिक लीला आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है।

रातभर घुमान टहलान का मेला

मेला ठेला का दौर खत्म हो जाने की चाहे जितनी दलील दी जाए लेकिन चेतगंज की नक्कटैया का आकर्षण आज भी पांच किलोमीटर के दायरे में पसरा नजर आता है। बनारस की सर्वाधिक मशहूर इस नक्कटैया में लाखों की भीड़ और मानो बिजली की रंग-बिरंगी झालरों से सजे मोहल्ले में पूरा शहर आ समाता है। जगह जगह पर स्वागत तोरण तो दुकानें जगमग और आज के दौर में मिट्टी के बर्तनों से लेकर घर-गृहस्थी के सामानों का भी नियत स्थान नजर आता है। घरों की छतों-बाजारों पर महिलाओं एवं बच्चों की भीड़ देखते ही बनती है। एक छोर से शुरु किया तो लाग- विमान देखते, खानपान का लुत्फ उठाते किस ओर निकल गए सवेरा होने पर ही समझ में आता है। नक्कटैया का जुलूस पिशाच मोचन से आधी रात निकल कर दो किमी दूर चेतगंज लीलास्थल आता है।

मायके की याद, रिश्ता आबाद

व्यस्तता के इस दौर मेें कहीं आने जाने का समय हो, न हो। चेतगंज की नक्कटैया में रिश्ते एक बार फिर तरोताजा हो जाते हैैं। आसपास के इलाके में जिनके घर हों वहां चेतगंज की नक्कटैया के बहाने दोस्तों- मित्रों, रिश्तेदारों का पूरा कुनबा ही उमड़ आता है।

प्रकाश टाकीज का सिनेमा

लहुराबीर का प्रकाश टाकीज भले इतिहास हो गया हो लेकिन चेतगंज की नक्कटैया पर उसकी याद भी ताजा हो ही जाती है। लीला और लाग विमान के इंतजार में नौ से 12 का शो फुल हो जाता। भीड़ हुई तो इसके बाद भी लेट नाइट शो पर्दे पर चल जाता।  

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