Mahatma Gandhi Kashi Vidyapeeth Centenary Year : डा. भगवान दास ने विद्यापीठ को पहुंचाया प्रगति पथ पर
महात्मा गांधी की प्रेरणा राष्ट्र रत्न बाबू शिवप्रसाद गुप्त डा. भगवान दास की बौद्धिक प्रतिभा के योग से महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ की स्थापना दस फरवरी 1921 को हुई थी। डा. भगवान दास इसके प्रथम आचार्य यानी कुलपति बने।
वाराणसी, जेएनएन। Mahatma Gandhi Kashi Vidyapeeth Centenary Year महात्मा गांधी की प्रेरणा, राष्ट्र रत्न बाबू शिवप्रसाद गुप्त, डा. भगवान दास की बौद्धिक प्रतिभा के योग से महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ की स्थापना दस फरवरी 1921 को हुई थी। डा. भगवान दास इसके प्रथम आचार्य यानी कुलपति बने। दृढ़ निश्चय, अथक प्रयास, अनेक झंझावत व विरोधों का सामना करते हुए उन्होंने काशी विद्यापीठ को प्रगति पथ पर आगे बढ़ाया।
इसकी गौरव गाथा में डा. भगवान दास की अग्रणी भूमिका रही है। बौद्धिक प्रतिभा और प्रगतिवादी सोच की बदौलत उन्होंने आचार्य नरेंद्रदेव, श्रीप्रकाश, जेबी कृपलानी, बीरबल सिंह, यज्ञ नारायण उपाध्याय जैसे नामी-गिरामी आचार्यों को संस्था से जोड़ा। देशभर के विद्यार्थियों को भारत रत्न डा. भगवान दास की निष्ठा, समर्पण के भाव, शिक्षा व संस्कार से आकर्षित किया और वे विद्यापीठ की ओर खिंचे चले आए।
जन्म संग कर्मस्थली भी रही काशी
विद्वान व दार्शनिक डा. भगवान दास का जन्म 12 जनवरी वर्ष 1869 को काशी के प्रतिष्ठित माधवदास और किशोरी देवी के परिवार में हुआ था। उनके अध्ययन और लेखन की परिधि बड़ी व्यापक थी। 18 वर्ष में उन्होंने एमए कर लिया था। समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, वैदिक, पौराणिक साहित्य, दर्शन शास्त्र सहित अन्य विषयों पर गहरी पकड़ थी। वह मौलिक चिंतन के व्याख्याता थे। उनका कार्यक्षेत्र हमेशा काशी रहा।
डिप्टी कलेक्टर पद का किया त्याग
वह शुरू से ही सरकारी नौकरी के पक्ष में नहीं थे। पिता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने सरकारी नौकरी की। वर्ष 1880 से 1898 तक वह सूबे के विभिन्न जिलों में डिप्टी कलेक्टर रहे। वर्ष 1897 में पिता के स्वर्गवास के बाद उन्होंने डिप्टी कलेक्टर की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्र अध्ययन व सामाजिक कार्यों में लग गए।
सीएचएस की स्थापना में भी भूमिका
वर्ष 1898 में उन्होंने सेंट्रल हिंदू स्कूल (सीएचएस) की स्थापना में एनी बेंसेंट के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्ष 1899 से 1814 तक थियोसाफिकल सोसाइटी के संस्थापक सदस्य के साथ आनरेरी सेक्रेटरी (मानद सचिव) के रूप में कार्य किया। वे जीवनपर्यंत विद्यार्थी, अनुसंधानकर्ता एवं लेखक रहे।
असहयोग आंदोलन में लिया भाग
वे राजनीति से भी खुद को अलग नहीं कर सके। असहयोग आंदोलन में सक्रिय योगदान किया। कई वर्षों तक वे केंद्रीय विधानसभा के सदस्य रहे। ङ्क्षहदी के प्रति अनुराग के कारण कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहे। काशी विद्यापीठ, काशी नागरी प्रचारिणी सभा व ङ्क्षहदी साहित्य सम्मेलन से भी उनका बहुत गहरा संबंध था।
बनारस नगर पालिका के चेयरमैन भी
वर्ष 1919 में सहारनपुर में उत्तर प्रदेशीय सामाजिक सम्मेलन, 1920 में मुरादाबाद प्रांतीय सम्मेलन के सभापति भी बनाए गए थे डा. भगवान दास। वे 1923 से 24 तक बनारस नगर पालिका के भी चेयरमैन रहे।
वहीं 1926 से 36 तक मीरजापुर के चुनार में गंगा किनारे एकांतवास करते हुए ऋषियों की भांति भी जीवन व्यतीत किया।
वर्ष 1955 में मिला भारत रत्न
डा. भगवान दास के पांडित्य को देखते हुए वर्ष 1929 में बीएचयू (काशी ङ्क्षहदू विश्वविद्यालय) तथा 1937 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें डीलिट की उपाधि से सम्मानित किया था। डा. भगवान दास की अपूर्व समाजसेवा, निष्पक्ष व निर्भीक विचार, त्याग को देखते हुए प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने वर्ष 1955 में सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया।
सरस्वती के सच्चे उपासक
सरस्वती के वरद पुत्र डा. भगवान दास का संपूर्ण जीवन वाग्देवी की साधना में ही बीता। सदा अध्ययन, अध्यापन, चिंतन, मनन, लेखन में रत रहे। देवी सरस्वती की उपासना, देशसेवा, मानव हित और विश्व कल्याण की दिशा में सदैव प्रयत्नशील रहने वाले महान व्यक्तित्व का 89 वर्ष की आयु में 18 सितंबर 1958 को निधन हुआ।
उनके नाम पर केंद्रीय पुस्तकालय
डा. भगवान दास जीवनपर्यंत चिंतन, मनन, लेखन करते रहे। इसे देखते हुए काशी विद्यापीठ परिसर में उनके नाम पर केंद्रीय पुस्तकालय की स्थापना की गई है।