दुर्गोत्सव : भोले बाबा की नगरी में दुर्गोत्‍सव का धमाल, काशी बन जाती है मिनी बंगाल

काशी में बंगभाषियों की संख्या अच्छी-खासी है इन्हें ही इस उत्सव की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है हालांकि अब काशी की हर गली-मोहल्ले में दुर्गोत्सव के रंग बिखरते हैं।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Publish:Wed, 02 Oct 2019 07:37 PM (IST) Updated:Thu, 03 Oct 2019 07:27 AM (IST)
दुर्गोत्सव : भोले बाबा की नगरी में दुर्गोत्‍सव का धमाल, काशी बन जाती है मिनी बंगाल
दुर्गोत्सव : भोले बाबा की नगरी में दुर्गोत्‍सव का धमाल, काशी बन जाती है मिनी बंगाल

वाराणसी [सौरभ चक्रवर्ती] । नवरात्रि का नाम आते ही मन में कोलकाता की दुर्गा पूजा की आभा मन में उमडऩे-घुमडऩे लगती है। वैसे भी कोलकाता में पूरे नवरात्र और उसमें से अंतिम चार दिन की दुर्गा पूजा का साक्षी बनने के लिए देश-विदेश से सैलानी व धर्मावलंबी जुटते हैं। अब वैसी ही आभा दिखने लगी है देवाधिदेव महादेव की नगरी काशी की दुर्गा पूजा भी। काशी में बंगभाषियों की संख्या अच्छी-खासी है, इन्हें ही इस उत्सव की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है, हालांकि अब काशी की हर गली-मोहल्ले में दुर्गोत्सव के रंग बिखरते हैं। इसके लिए कई संस्थाएं बन गई हैं तो मोहल्लेवार आयोजन भी होते हैं। बड़ी संख्या में आयोजनों के चलते काशी की दुर्गा पूजा भी कोलकाता की याद दिलाती है।

काशी में टोले-मोहल्लों में तनते पूजा पंडालों के विशालकाय ढांचे। कनातों की ओट में आकार लेती देवी दुर्गा की भव्य प्रतिमाएं। पूजा स्मारिकाओं के विज्ञापनों के लिए क्लब के युवाओं की अथक भाग दौड़ और उत्सव की तैयारियों के लिए आधी रात से भोर तक चलने वाली मैराथन बैठकें। समूचा शहर दुर्गापूजा के उत्सवी माहौल में डूब जाता है। अक्सर ही यह भ्रम हो जाता है कि हम काशी में हैं या दुर्गोत्सव के लिए मशहूर शहर कोलकाता में। बीते पांच-छह दशकों के बीच नगर के सबसे बड़े और भव्य उत्सव के रूप स्थापित हो चुके दुर्गोत्सव के आयोजन पर नजर डालें तो शिव की नगरी काशी में आस्था के साथ ही भव्य आयोजनों का क्रम जारी है।

बंगाल के जमींदारों ने रखी नींव

दुर्गोत्सव की यात्रा का इतिहास ढाई सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। वह यह दौर था जब तीर्थ नगरी के आकर्षण में बंधे बंगीय समाज का काशी में बसने का सिलसिला शुरू हुआ। गंगा तट से सटी संकरी गलियों में बंगाली टोला ने घनी बस्ती की शक्ल में उत्तर से दक्षिण तक पांव पसारना शुरू किया। बंगीय समाज ने रसगुल्ले और संदेश की मिठास के अलावा कई नए रीति-रिवाजों के साथ दुर्गोत्सव की छटा से भी इस शहर का परिचय कराया। वैयक्तिक उत्सवों के बंधनों से इतर सामूहिक आमोद-प्रमोद के इस चार दिनी पर्व को आत्मसात करने में इस उत्सव प्रिय नगरी को तनिक भी देर न लगी।

वैसे दुर्गा पूजा का मूल गढ़ कोलकाता को कहा जाता था। गोविंद राम मित्र ने लार्ड क्लाइव एवं कलकत्ते के जमींदारों के सहयोग से वहां दुर्गा पूजा उत्सव को पूरी भव्यता के साथ दोबारा शुरू कराया जो किन्हीं कारणों से पहले बंद हो चुका था। इस अवसर पर उस जमाने में ईस्ट इंडिया कंपनी के साहब बहादुर को बाकायदा निमंत्रण दिया जाता था। यह उत्सव पांच दिनों तक चलता था। इन्हीं गोविंद राम मित्र के प्रपौत्र आनंद मित्र जब काशी आए तब इन्होंने एक भव्य हवेली बंगाली ड्योढ़ी के नाम से चौखंभा मोहल्ले में बनवाई। करीब ढाई सौ साल पहले 1773 ई. में बंगाली ड्योढ़ी से ही बनारस में सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरूआत हुई। भव्य रूप दिया उनके पुत्र राजा राजेंद्र मित्र ने। यहां स्थापित होने वाली देवी प्रतिमा का सिंहासन कारीगरों द्वारा १८वीं सदी में बनाया गया था। यह पूरी तरह चांदी का सिंहासन है। उस समय इसमें स्थापित होने वाली मूर्ति पर सोने का पत्तर चढ़ाया जाता था। आज भी हर दुर्गोत्सव के पहले इस प्रतिमा को सुनहरे और रूपहले रंगों का टच दिया जाता है। रजत सिंहासन पर लक्ष्मी, दुर्गा, शिव, राम, गणेश की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। बंगाली ड्योढ़ी में मां की विदाई पालकी में होती है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है, जो आज भी कायम है। काफी वर्षों तक सबसे पहले बंगाली ड्योढ़ी की प्रतिमा विसर्जित होती थी और उसके बाद ही शहर की दूसरी प्रतिमाएं।

काशी में सार्वजनिक दुर्गोत्सव

काशी में सार्वजनिक दुर्गोत्सव वर्ष 1922में वाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी (वीडीएस) ने की थी। वीडीएस की पहली दुर्गापूजा काशी नरेश के नदेसर स्थित महाराजा पैलेस परिसर में हुई थी। काशी की इस पहली सार्वजनिक दुर्गा पूजा में काशी का राजपरिवार भी शामिल हुआ था। कुछ वर्ष बाद इस पूजा को पांडेयहवेली स्थित सीएम एंग्लो बंगाली प्राइमरी पाठशाला प्रांगण में स्थानांतरित कर दिया गया। तब से प्रतिवर्ष इसी स्थान पर दुर्गा पूजा होती आ रही है। स्थापना के बाद 50 वर्षों से भी अधिक समय तक पूर्वांचल के नामी-गिरामी बंगीय परिवार के सदस्य इस पूजा से जुड़े रहे।

1767 में स्थापित दुर्गा प्रतिमा आज तक नहीं उठी

मदनपूरा इलाके में 1767 में स्थापित दुर्गा प्रतिमा आज तक विसर्जित नहीं की जा सकी। बंगाल के हुगली जिले से काशी पहुंचे जमींदार परिवार के काली प्रसन्न मुखर्जी बाबू ने गुरुणेश्वर महादेव मंदिर के निकट दुर्गा पूजा का आरंभ किया। विसर्जन की बेला में लोगों ने जब मूर्ति उठाने का प्रयास किया तो मूर्ति को जरा भी हिलाया नहीं जा सका। दरअसल काली बाबू को नवमी की रात मां दुर्गा ने स्वप्न में आकर कहा कि मुझे विसर्जित मत करो, मैं यहीं रहूंगी। तब से प्रतिमा उसी स्थान पर है। हर वर्ष यहां आस्थावानों की भीड़ उमड़ती है।

भारत सेवाश्रम व रामकृष्ण मिशन में देवी आराधना

काशी में भारत सेवाश्रम व रामकृष्ण मिशन की ओर से मां दुर्गा की आराधना विधि-विधान से की जाती है। भारत सेवाश्रम संघ की ओर से निकाली जाने वाली शोभायात्रा बहुत ही आकर्षक होती है। भारत सेवाश्रम संघ के संस्थापक स्वामी प्रणवानंद ने 1939 में दुर्गा प्रतिमा पूजन परंपरा की नींव रखी।

समय के साथ ही दुर्गोत्सव का चलता रहा रेला

समय के साथ ही काशी में कई और प्रमुख पूजा संस्थाओं की ओर से आयोजन शुरू किया गया। इसके तहत काशी दुर्गोत्सव समिति, शारदोत्सव संघ, जिम स्पोर्टिंग क्लब, ईगल क्लब, गोल्डेन क्लब, साउथ क्लब, शिवम क्लब, यूथ क्लब, वाराणसी यूथ, अकाल बोधन जैसी पूजा संस्थाएं लगातार दुर्गोत्सव का आयोजन करती आ रही हैं। शहर का विस्तार होता गया और पूजा आयोजन का स्वरूप भी व्यापक होता गया। इसी क्रम में हथुआ मार्केट, सनातन धर्म इंटर कालेज, विजेता स्पोर्टिंग क्लब जगतगंज, मां बागेश्वरी देवी क्लब जैतपुरा, टाउनहाल, बाबा मच्छोदरा नाथ पूजा समिति के साथ ही शिवपुर, पांडेयपुर, डीरेका, सुंदरपुर, लंका, सारनाथ जैसे प्रमुख इलाकों में भव्य पूजा पंडालों की सजावट भक्तों को खूब आकर्षित करती हैं।

बदलता जा रहा पूजा का स्वरूप

काशी दुर्गोत्सव का स्वरूप हर वर्ष नए अंदाज में देखने को मिल रहा है। विधि विधान से पूजन के साथ ही थीम पूजा पर भी काफी जोर दिया जा रहा है। इसके तहत पूजा पंडालों की डिजाइन, स्वरूप व मां के नए अंदाज पर आयोजन समितियां जोर देती हैं। इस बार आयोजन में चंद्रयान-२, बालाकोट एयरस्ट्राइक, कश्मीर मुद्दा, प्रमुख मंदिरों की आकृति में पूजा पंडाल देखने को मिलेगा। प्रतिमाओं में भी शानदार प्रयोग हो रहा है। इसमें आकर्षक साज-सज्जा, अस्त्र-शस्त्र के साथ कहीं मोम की प्रतिमा, तो कहीं अनाज की प्रतिमा का दर्शन भक्तगण करते हैं।

नवरात्र भर हर जगह मेला और रेला

नवरात्र के मौके पर सभी प्रमुख पूजा पंडालों के आसपास बड़े स्तर पर मेले का आयोजन भी दिखाई देता है। बीएचयू परिसर के मधुबन, राजा चेतसिंह किला परिसर, सोनारपूरा से जगतगंज, भेलुपुर से सिगरा तक, चौक से राजघाट, पांडेयपुर से शिवपुर, पड़ाव से चंधासी तक के सड़कों पर ही मेले की भीड़ उमड़ पड़ती है।

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