लोकगायक हीरालाल यादव : 'झिर-झिर बुनिया..' को आवाज देने वाला छोड़ चला दुनिया
बरसात तो हर साल आएगी बदरा की बौछार और झिर झिर बुनिया को आवाज देने वाला अब इस दुनिया में नहीं रहे।
वाराणसी, जेएनएन। बरसात तो हर साल आएगी, बदरा की बौछार और झिर झिर बुनिया भी अपने अंदाज में झूमते हुए जमीं पर उतर जाएगी लेकिन न प्रकृति के इस दिव्य नजारे में अपने सुरों से श्रृंगार के रस भरने वाली वह खनकती आवाज न आएगी। हर आंख तलाशेगी उस फनकार को जिसने बिरहा ही नहीं लोकगायन की विधा को आसमान दिया और रविवार की सुबह खुद फानी दुनिया से विदा लेते हुए उस ओर ही चल दिए। अब जहां कहीं भी 'पड़ेले झिर-झिर बुनिया, बदरा करेला बौछार हो, पड़ेले..' और 'झूला झूल रहे बनवारी, संग में राधा प्यारी ना..' जैसे कजरी का स्वर गूंजेगा, पलकों का कोर सावन-भादो की तरह ही भीजेगा।
दरअसल, हीरालाल यादव इसी तरह की सरल-शुद्ध गायकी के लिए जाने-माने गए। जड़ें हरहुआ ब्लाक के छोटे से गांव बेलवरिया से जुड़ी मगर सराय गोवर्धन की डगर ने होनहार वीरवान का बालपन सहेजा। घर में रोटी के फांके लेकिन वह दिन भी पूरी शान से जिया। गायों को चराने के दौरान दिल से निकले गीतों को इतनी बार स्वर दिया कि बिसरती इस विधा ने अपने उत्थान के निमित्त उनके कंठ को ही अपना लिया। रम्मन, होरी व गाटर खलीफा जैसे गुरुओं की छांव में यह पौध लहलहाई और 1962 का वह दौर जब आकाशवाणी व दूरदर्शन से उनकी आवाज ने बिरहा के शौकीनों को दीवाना बना दिया। बिरहा- कजरी समेत लोकगायन की कोई भी विधा हो उन्होंने श्रृंगार रस, वीर रस हो या करूण रस में बड़ी ही सहजता से पिरोकर कानों में घोल दिया। इसमें गांव-गिरांव, खेत- खलिहान तो जिंदा रहा ही देश भक्ति के भावों को भी पिरो दिया।
उन्हें सुनने वालों में जितनी फरमाईश 'बूढ़े बैल पे चढ़के चले बियाहन भोला, बरतिया सारी झोला में लिए..' की रही उससे भी कहीं कई गुना अधिक 'आजाद वतन भारत की धरा हरदम कुर्बानी मांगेले, बुढ्डों से सबक, अनुभव मांगे और जवानों से जवानी मांगे ले..' ने बटोरी। सिर पर गांधी टोपी, हाथ में लाठी स्वाभिमान की सिर पर गांधी टोपी, हाथ में लाठी सहेजे इस कलाकार ने कभी भी स्वाभिमान से समझौता न किया। दंगल या साझा मंचीय प्रस्तुतियों ने इसका अहसास कराया। कई कलाकारों के साथ कई-कई बार उन्होंने मंच साझा किया लेकिन हीरा-बुल्लू की जोड़ी के अंदाज ने लोगों का दिल जीत लिया। 'बनले के सार बहनोई हो, जगतिया में कोई नहीं अपना..' समेत लोकगीतों के जरिए करीब सात दशक तक पूरी ठसक से इस जोड़ी का सिक्का चला।
यह टूटा भी तब जब तीस दिन-रात दिन साथ गाने वाले बुल्लू खुद हाथ छुड़ा दुनिया से चल दिए। यशभारती से सम्मानित विष्णु यादव को आज भी याद है वह रात विश्वेश्वरगंज में जब मंच सजा और आजमगढ़ के रामप्रसाद से मुकाबला 24 घंटे चला। शायरी का दौर, सवाल-जवाब के बाद भी नहीं दंगल फरियाया तो आयोजक मंडल मान मनौव्वल पर उतर आया। गायकी का दबंगई अंदाज यह कि शुरूआती दौर में जोड़ीदार रहे पारस ने कभी स्वर लगाया कि 'हीरा बने छटंकी, पारस बन गए पउवा, बनउवा बतिया एको न लगी..' तो नहले पे दहला सरीखा ताकीदी जवाब आया 'ज्यादा बोलबा बच्चू, मारब गरदनिया संभार के जबनिया कहा..'। मुंशी प्रेमचंद की जन्म स्थली लमही में जयंती समारोह हो या संत मत अनुयायी आश्रम मठ गड़वाघाट का कोई उत्सव-अनुष्ठान उन्होंने स्वस्थ रहते कभी 'मिस' नहीं किया।
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